Saturday, February 27, 2010

आज बसंती हवा चली


पतझड़ को मधुमास बनाया
बल  खाती मलय बहार चली 
भंवरों के मधु गुंजन से
नन्हें फूलों की कली खिली,आज बसंती हवा चली।

खिली कमलिनी पोखर में
विहँस पड़ी कचनार कली
देखो मधुमय बसंत आ गया
भंवरों से फिर कली मिली, आज बसंती हवा चली। 

मधुगंजी बौराई जंगल में
अमुवा पर कोयलियाँ बोली
ओढ़ बसंती रंग चुनरियां 
धरती दुल्हन बनने चली, आज बसंती हवा चली।

बागों में मधुमास छा गया
फूलों पर डोली तितली 
मतवाले बन गुन-गुन करते
मंडराए भंवरो की टोली, आज बसंती हवा चली।

कुंद मोगरे बेले खिल गये
झूम उठी डाली-डाली 
बागों  में अब झूले डाले
झूल रही है मतवाली, आज बसंती हवा चली ।

कोलकता
२७ फरवरी, २०१०

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
kol

Friday, January 29, 2010

बादली (राजस्थानी कविता )



 भातो लेकर मै चलीजी ढोळा        
                              कोई घिर आई घटा घनघोर जी                                        
                                 बरसण लागी भंवरजी बादळी जी                                             
                           
 उमड़-घुमड़ बादल गरजे ढोळा         
  कोई बिजली चमके जोर जी     
  बरसण लागी भंवरजी बादळी जी             
                                                             
        बिरखा माँई भीजगी जी ढोळा               
                                      मिल्यो न थारो खेत जी                                  
                              बरसण लागी भंवरजी बादळी जी                                         

 ऊँचे मंगरे चढ़ देखती गौरी  
    दीखतो अलबेळो छैल जी  
बरसण लागी भंवरजी बादळी जी       

तीन कोस ढोला चल के आई 
   कोई काँटा गडग्या चार जी 
बरसण लागी भंवरजी बादळी जी       

पगल्या तो राखो गौरी म्हारी गोद में         
   काँटा तो काढां थारा चार जी   
बरसण लागी भंवरजी बादळी जी       

                     कांई तो बीज्यो खेत में जी ढोळा                             
            कांई तो बीज्यो मगंरा मांय जी                
बरसण लागी भंवरजी बादळी जी       

           आंथूना खेतां मे बीजी बाजरी गौरी                   
         ऊँचा मंगरां में बोई मै ज्वार जी             
   बरसण लागी भंवरजी बादळी जी।        




फरीदाबाद
२९ जनवरी २०१०

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Thursday, December 10, 2009

चलो चलते है गाँव में

                                                             चलो                                                                 
               चलते है                  
        गाँव में          
                 
लहराती फसलें जहाँ
बजते अलगोजे वहाँ 

गायों के झुण्ड
भेड़ों के रेवड़
ऊंटों के टोले

पानी भरे तलाब जहाँ
पायल पानी लाये वहाँ

रंभाती गायें
नाचते मोर
गाती कोयल

कंधो पर हल जहाँ
चलते है पाँव वहाँ 

होली के रंग
सावन के झूले
तीज के गीत

गाती है गौरियाँ जहाँ
बजते है चंग वहाँ 

मुंडेरों पर काग
खेतों में मोर
पेड़ों पर पपीहे

उड़ती तितलियाँ जँहा
गुनगुनाते भँवरे जहाँ 

नागौरी बैल
मदुवा  ऊंट
दुजती भैंसे

घर -घर होते बिलौने जहाँ
सुलभ होता नवनीत जहाँ

खिलती कचनार
झरते हरसिंगार
दहकता पलास

धरती बनती दुल्हन जहाँ
गगन बनता दूल्हा वहाँ

चलो
लौट कर चलते हैं
गाँव में। 


कोलकत्ता
१० दिसंबर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Sunday, November 22, 2009

सियाळो ( राजस्थानी कविता )



सियाळा में सी पङै जी ढोला         
                 सूरज निकल्यो बादल में 
पीळा पड़ग्या खेत भंवरजी        
                         सरसों फूली खेतां में 

डूंगर ऊपर मोर ठिठरग्या             
                    पालो जमग्यो हांडी में    
  छोरा-छोरी सिंया मरग्या               
                    सोपो पड्ग्यो सिंझ्या में    

  चिड़ी-कमेड़ी ठांठर मरती           
                 जाकर घुसगी आळा में
   बुड्ढा-बडेरा थर-थर कांपे         
                 जाकर बङग्या गुदडा में

अमुवा री डाली पर बैठी            
                        कोयल बोली बागा में  
बेगा आवो बालम म्हारा             
                      गौरी उडीके महलां में।


कोलकत्ता
२१ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, November 16, 2009

माँ और नारी



माँ,
आँखों में क्षमा
मन में वात्सल्य
हाथ देने हेतु उठा हुवा

नारी
आँखों में आलोचना
मन में कामना
हाथ लेने हेतु फैला हुआ

माँ
समर्पित-सात्विक जीवन
अल्पसंतोषी
इश्वर की सीधी-सादी रचना 

नारी
समर्पण की चाहत
संतुष्टी का अभाव
इश्वर की जटिल रचना

माँ
असमर्थ, पराजित, दुर्बल
पुत्र को भी बढ़ कर
आँचल में बैठाती है 

नारी
असमर्थ, पराजित
 दुर्बल पुरूष को
बांहों में नहीं भारती है। 



कोलकत्ता
१५ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, November 7, 2009

गर्मी की रातें



गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे 


शाम का
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाते थे 

बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
 चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे 

चाँद के सरासर
सामने सप्तऋषियों को बाँधने
और तारों को फँसाने का
गुमान करते थे 

रात में तारों की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता था

ये सब 
करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही लगता था  

अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है

लेटे-लेटे
गाँव की सुनहरी
 यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
   छत दिखाई देती है।  


कोलकत्ता     
७ नवम्बर, 2009

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, September 21, 2009

भ्रस्टाचार


हिमालय के जंगलों में
घूमते हुए मुझे
एक दिब्य आत्मा
के दर्शन हुए

मैंने उन्हें
प्रणाम करके कहा-
प्रभु !
आप तो साक्षात
भगवान बुद्ध
लग रहे है

क्या आप मेरी
 एक प्रार्थना
 सुनेंगे  ?

मेरे इस  देश को
भ्रष्टाचार से मुक्त
 करेंगे ?

दिब्य आत्मा
 ने कहा-
वत्सः!
 
 
                                                                             जाओ      
तुम मुझे
एक मुट्ठी चावल
 उस घर से ला दो
जिसने आज तक
सच्चाई का जीवन जिया हो

मै इस देश
को सदा-सदा के लिए
भ्रस्टाचार से मुक्त  कर दूंगा

काश !
 मै ऐसे किसी ऐसे
एक भी घर को
 ढूंढ़ पाता
और
अपने देश को
भ्रस्टाचार से मुक्त करा पाता।


कोलकत्ता
२१  सितम्बर, २००९