माँ अपने
कमरे में
रोज रात को
एक कटोरा भर कर
दाना रखती
मुहें अंधेरे
उठ कर
छत पर
जाकर
कबूतरों को
दाना डाल आती
कभी
आराम-बीमार
हो जाती
तो हमें कहती
जाओ कबूतरों
को दाना डाल आओ
वो कौन से
तुम से माँगने आयेंगे
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर हैं
माँ के
जाने के बाद
ये काम
माँ की बहू
कर रही है
रोज सवेरे
उठ कर
छत पर जाकर
कबूतरों को दाना
कबूतरों को दाना
डाल आती है
कहती है
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर है
और यही
हमारी संस्कृति की
लकीर है।
कोलकत्ता
६ सितम्बर,२००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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