जब से इन्टरनेट आया
पुस्तको का अलमारियों से
निकलना ही बंद हो गया
पुस्तके झांकती रहती है
बंद आलमारियों के शीशों से
जैसे कोई कर्फ्यू लग गया
अब तो कम्पूटर पर
क्लीक किया और जो पढ़ना
वो स्क्रीन पर खुल गया
लेकिन पुस्तकें पढ़ने का
जो आनन्द था वो आनन्द
कम्पूटर पर कहाँ रह गया
पुस्तकें कभी गोदी में
तो कभी सीने पर रख पढ़ते
नींद आती तो मुहँ ढक सो जाते
पुस्तकें जब किसी के
हाथों से गिरती तो उठा कर
देने के बहाने रिश्ते बन जाते
पुस्तकों का आदान-प्रदान
बांधता प्रेम की डोर से
माँगने के भी बहाने बन जाते
पुस्तकों में निकलते
बांधता प्रेम की डोर से
माँगने के भी बहाने बन जाते
पुस्तकों में निकलते
फूल और महकते इत्र के फोहे
जो दिल की धड़कनों को बढ़ा देते
अब बीत गए वो दिन
सब गुजरे जमाने की
बाते हो गयी
अब तो पुस्तकें
केवल अलमारियों की
शोभा बन कर रह गयी।
[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
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