Sunday, March 17, 2013

बीत गए वो दिन





जब से इन्टरनेट आया 
पुस्तको का अलमारियों से 
निकलना ही बंद हो गया

पुस्तके झांकती रहती है
बंद आलमारियों के शीशों से
जैसे कोई कर्फ्यू लग गया

अब तो कम्पूटर पर
क्लीक किया और जो पढ़ना
वो स्क्रीन पर खुल गया

लेकिन पुस्तकें पढ़ने का 
जो आनन्द था वो आनन्द
कम्पूटर पर कहाँ रह गया

पुस्तकें कभी गोदी में
तो कभी सीने पर रख पढ़ते
नींद आती तो मुहँ ढक सो जाते

पुस्तकें जब किसी के
हाथों से गिरती तो उठा कर 
देने के बहाने रिश्ते बन जाते

पुस्तकों का आदान-प्रदान
  बांधता प्रेम की डोर से
    माँगने के भी बहाने बन जाते

पुस्तकों में निकलते 
 फूल और महकते इत्र के फोहे  
जो दिल की धड़कनों को बढ़ा देते

अब बीत गए वो दिन
सब गुजरे जमाने की
बाते हो गयी 

अब तो पुस्तकें 
केवल अलमारियों की
शोभा बन कर रह गयी।



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]




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