Saturday, June 22, 2013

अनकहा दर्द


प्यार के लिए सात समुद्र पार
कभी कभी महँगा पड़ जाता है
                 
                     एक का सानिध्य पाने के लिए
                   देश-परिवार सभी छूट जाता है

जवानी तो जोश में बीत जाती है
लेकिन बुढ़ापा भारी पड़ जाता है

                   अपनो की यादे सताने लगती है
                   एकाकीपन भारी लगने लगता

घुट कर उमर बीत जाती है
एक जीवन अपनो के बिना

                    छोटी आकांक्षायें भी रह जाती है
                    मन में किसी के साथ बाँटे बिना

उम्र भर तड़पते ही रह जाते है
पाने के लिए अपनो का प्यार

                         विदेशी धरती पर नहीं मिलता
                          अपनी धरती का सच्चा प्यार

जब यादों की गांठे खुलती है
गली दोस्तो की यादें आती है

                      दिल में सिर्फ यादे ही बची रहती है
                      जिन्दगी घिसे सिक्के सी लगती है।

(पिट्टसबर्ग,अमेरिका में एक वृद्ध दम्पती से मिल कर, मुझे जो कुछ अनुभव हुवा,उसी को मैंने शब्द दिए हैं )



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


4 comments:

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  2. तुम्हे पसंद आयी,मुझे अच्छा लगा। यह कविता हमारे पड़ोस में रहने वाले दम्पती के जीवन पर आधारित है, जो आज से पचास साल पहले यहाँ आये और यही के बन कर रह गए। आज उन्हें अपना परिवार, अपना देश याद आ रहा है लेकिन मज़बूरी यह है कि अब यहाँ से जा नहीं सकते और अगर चले भी जाए तो परिवार के साथ रह नहीं सकते। उनकी आँखों में दुःख के आँसू देख कर मुझे यह कविता लिखने की प्रेरणा मीली।

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  3. आदरनीयभागीरथ सर,इस तरह का दर्द आज गली- गली,मुहल्ले- मुहल्ले है। कही माता पिता अकेले तो कहीं आजादी के दीवाने युवा बुढ़ापे में देश की गलियों को तरसते हुये।कभी अपनों से दूर हो जाने वाले एक दिन खुद ही परायों के बीच अकेले रह जाते हैं। आज तो हर गली नुक्कड़ se युवा विदेशों की ओर अग्रसर हैं।किसी विकल का दर्द उजागर करती रचना के लिए बधाई आपको 🙏

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