जका चल्या गया छोड़ र गाँव
बसग्या टाबरा ने ळैर परदेश
बानै कांई लेणो है बिरखा स्यूं
अर कांई लेणो है चौमासा स्यूं।
दीसावरा में चाळै चौखा धंधा
एयरकण्डीशन में बैठ्या करे मौज
देश में बिरखा बरसे जे नहीं बरसे
बांको मन तो कदै नी तरसे।
बाजार में मिल ज्यावै सगळी सरा
काकड़ी,मतीरा,काचरा र फल्या
चोखा-चोखा छांट-छांट ले आवै
जणा बानै क्यू चौमासो याद आवै।
फरक पड़े है गाँव में रेव जका कै
नहीं बरस्या काळ पड़तो ही दिखै
पड्या काळ मुंडै पर फेफी आज्यावै
डांगर-ढोर भूखा मरता मर ज्यावै।
ना होली दियाळी लापसी बणै
ना टाबरियां ने सीटा पौली मिलै
घरा में रोट्या का फोड़ा पड़ ज्यावै
बाबो बिना दुवाई के ही मर ज्यावै।
[ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गयी है। ]
.
No comments:
Post a Comment