Tuesday, October 22, 2013

कुदरत रो खेल (राजस्थानी कविता)

एक सी तो माटी
एक सी बैवे पून
एक सो तपै तावड़ो
मूळ मांई बैवे एक सो पाणी

फेर ए न्यारा-न्यारा स्वाद
कठै स्यूं निपज्या
कियां हुयो ओ अचरज ?

दाड़मा"र मौसमी
आम "र अंगूर
काकड़ी"र मतीरा
न्यारा-न्यारा रूप"र सुवाद

मिनख र समझ
माईं नीं आवै ओ खेल
सारो कुदरत रो खेल
कठै कांई निपजा देवै 

समझ एकलो  सिरजनहार
सिरजनहार री खिमता
कुण समझ सक्यो
अर कुण समझ पावैळो।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]



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