Saturday, October 31, 2015

तुम्हारी धरोहर



सारी दुनियाँ
जब सो जाती है
तब मैं खो जाता हूँ
सपनों की गोद में

तुम्हारी यादों के संग
पल-पल गुजरती रातों में
मैं जोड़ता  रहता हूँ
यादों की लड़ियों को

बचपन में तुम्हारा
दुल्हन बन गांव आना
मेरा कॉलेज में पढ़ कर
छुट्टियों में घर आना

लड़ना-झगड़ना
प्यार मोहब्बत
बच्चों का होना
बहुओं का आना

पोते-पोतियों से
आँगन खिलखिलाना
कितना कुछ जीया हमने
इस जीवन में साथ-साथ

ये यादें
धरोहर है तुम्हारी
और जीवन की नाव को
खेने की अब पूंजी है मेरी।



  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, October 28, 2015

पश्मीना

एक दम
खाटी पश्मीना
जिसे खरीदा था तुमने
कश्मीर से

नेफ्थलीन
की गोलियों के संग
सहेज कर रखती थी तुम
बड़े जतन से

कितने चाव से
पहनती थी तुम
सोहणा लगता था
तुम्हारे बदन से

बड़ा ही नरम
और मुलायम
लगा कर रखती थी
तुम बदन से

कश्मीरी बाला लगती
पहन कर पश्मीना
जैसे ढका हो गुलबदन
फूलों से

मैं जब कहता
लगालो काला टीका
शरमा जाती तुम
ढाँप लेती चेहरा
हाथों से।



 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]






Monday, October 26, 2015

मैंने सौगात में तुम्हें


मैंने सौगात में तुम्हें
एक नदी दी 
तुमने मुझे पूरा समुद्र
दे दिया

मैंने सौगात में तुम्हें
कुछ तारे दिए 
तूमने मुझे पूरा आकाश 
दे दिया 

मैंने सौगात में तुम्हें
कुछ दिशाएं दी 
तुमने मुझे पूरा ब्रमांड 
दे दिया 

मैंने सौगात में तुम्हें 
चंद बूंदे दी 
तुमने मुझे पूरा सावन 
दे दिया

मैंने सौगात में तुम्हें
चुटकी भर सिंदूर दिया
तुमने मुझे पूरा जीवन
दे दिया।




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, October 15, 2015

यही है संसार

पिता ने
पौध को माली की
तरह से पाल पोस कर
बड़ा किया था

कल्पना की थी
ठंडी छाँव और मीठे
फलों की

पेड़ों की
धमनियों में डाला था
अपना रक्त और जड़ों में
सींचा था अपना पसीना

लेकिन पेड़ों के
बड़े होते ही उनकी साँसों में
बहने लगी जमाने की हवा

अब पेड़ों की छाँव
वहाँ नहीं पड़ती जहाँ
पिता बैठते है

मीठे फलों की जगह
पिता को चखना पड़ता है
कडुवे फलों का स्वाद

जब तब
लगती है मन को ठेस
सिमटते रहते हैं पिता

लाचार
हो जाता है बुढ़ापा
जवान बेटो के आगे

मन में दुःख होता है
पर कह नहीं सकते
किसी को

अपने कमरे में गुमसुम बैठे 
दीवार पर लगी पत्नी की 
तस्वीर देख कहते हैं  
पगली! यही है संसार

उभर आता है
एक तारा आकाश में
सिहर उठता है बेबशी पर।



 ( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, October 9, 2015

आयशा रंग भरती है

आयशा रंग भरती है

सूरज-चाँद, हवाई जहाज में
लाकर दिखाती है मुझे
नन्हें हाथों की कला देख
खुश होता हूँ मैं

पकाती है नन्हें बर्तनों में
अदरक वाली चाय
कम चीनी वाली कॉफी
लाकार देती है मुझे
तृप्त होता हूँ मैं

माँ के दुपट्टे की
पहनती है साड़ी
लगा कर घूँघट
दिखाती है मुझे
शर्माता हूँ मैं

सोने को जाते समय
तोतली आवाज में कहती है
नारायण-नारायण
जय श्रीकृष्ण
प्रत्युत्तर में तुतलाने की
कोशिश करता हूँ मैं।


Wednesday, October 7, 2015

तुम जो चली गई

मंजिलें अब जुदा हो गई, अंजानी अब राहें हैं                                                                                              
जिंदगी अब दर्द बन गई, तुम जो चली गई।

साथ जियेंगे साथ मरेगें, हमने कसमें खाई थी
पचास वर्ष के संग-सफर में, तुम जो चली गई।

जीवन मेरा रीता-रीता,ऑंखें हैं अब भरी-भरी
टूट पड़ा है पहाड़ दुःखों का,तुम जो चली गई।

नहीं काटे कटती है रात, सुख रहा है मेरा गात 
अँखियाँ नीर बहाती रहती, तुम जो चली गई।

अंत समय पास नहीं था, सदा रहेगा इसका दुःख
दिल में मेरे रह कर भी, बिना मिले तुम चली गई।

किससे मन की बात कहूँ ,साथ तुम्हारा रहा नहीं
उमड़ पड़ी है दुःख की नदियाँ, तुम जो चली गई।





                                            [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Friday, October 2, 2015

सोच की सीमा

मैं जीना चाहती हूँ
उम्र का हर गुजरता लम्हा
अब केवल तुम्हारे साथ

लेकिन अब तुम्हारे पास
वक्त कहाँ है मेरे लिए
तुम तो अब इसे खुदगर्जी
की संज्ञा देने लग गए

तुम्हारा दिन तो
ऑफिस में बीतता है
शामें मीटिंग में ढलती है
देर रात पार्टियां चलती है

जब घर आते हो
अखबार,टी०वीo और
मोबाइल से घिर जाते हो

मेरे बात करने से पहले ही
राह में खड़ी हो जाती है
ये सारी सौतनें

अगर मेरा बस चलता
तो बंद कर देती अखबार
बेन कर देती टीo वीo के  प्रोग्राम
और मृत्यु दंड दे देती मोबाइल के
आविष्कारक को

मैं जानती हूँ
खुदगर्जी की पराकाष्ठा है यह
अपने से आगे नहीं सोच पाने का
एक मात्र स्वार्थ

पर मैं क्या करूँ
मेरे सोच की सीमा भी तो
तुम्हारे पास आकर
समाप्त हो जाती है।





Thursday, October 1, 2015

जन्म-जन्म का साथ हमारा

  मेरी जीवन की बगिया में
कोयल बन कर तुम चहकी,
   मेरे जीवन  की  राहों  में
सौरभ बन कर तुम महकी।

    मेरा भाग्य संवारा तुमने                                                 
    बादल बन कर छायां की,                                                 
    नया सवेरा आया  तुमसे                                                 
        खुशियों की  बरसाते की।                                                    

       मेरे ह्रदय की रानी बन        
       राज किया तुमने रानी,  
       मेरे मन  मंदिर में बैठी 
     मेरी सौन्दर्यमयी रमणी।    

      सोने जैसे दिन थे अपने                                                           
       चाँदी जैसी प्यारी रातें,                                                           
     सारी-सारी राते जगकर                                                           
        करते हम मन की बातें।                                                            

       कैसे करदु विस्मृत मन से   
        करुणा-प्रेम रूप तिहारा,
      सौ जन्मों का बंधन है यह   
     जन्म-जन्म का साथ हमारा।        


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]