Friday, October 2, 2015

सोच की सीमा

मैं जीना चाहती हूँ
उम्र का हर गुजरता लम्हा
अब केवल तुम्हारे साथ

लेकिन अब तुम्हारे पास
वक्त कहाँ है मेरे लिए
तुम तो अब इसे खुदगर्जी
की संज्ञा देने लग गए

तुम्हारा दिन तो
ऑफिस में बीतता है
शामें मीटिंग में ढलती है
देर रात पार्टियां चलती है

जब घर आते हो
अखबार,टी०वीo और
मोबाइल से घिर जाते हो

मेरे बात करने से पहले ही
राह में खड़ी हो जाती है
ये सारी सौतनें

अगर मेरा बस चलता
तो बंद कर देती अखबार
बेन कर देती टीo वीo के  प्रोग्राम
और मृत्यु दंड दे देती मोबाइल के
आविष्कारक को

मैं जानती हूँ
खुदगर्जी की पराकाष्ठा है यह
अपने से आगे नहीं सोच पाने का
एक मात्र स्वार्थ

पर मैं क्या करूँ
मेरे सोच की सीमा भी तो
तुम्हारे पास आकर
समाप्त हो जाती है।





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