Thursday, May 26, 2016

करना पानी में हिल्लोल

गंगा की लहरें
टकरा रही है मेरे पैरों से
चल रही है ठंडी-ठंडी बयार
मन को मोह रहा है लहरों का संगीत

फूलों के डोंगें
तैर रहे हैं लहरों पर
झिमिला रही है दीपक की बाती
बह रही है कल-कल करती गंगा 

दूरागत तीर्थ-यात्री उतर रहे हैं
सम्भल -सम्भल कर
डगमगाती नौकाओं से

खेल रही है मछलियाँ
दौड़ रही है एक दूजे के पीछे
उछलती हुई पानी में

आओ हम भी करे
मछलियों की तरह कल्लोल
तुम भी कूदना छपाक से
करना पानी में हिल्लोल।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]




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