तुम्हारे विछोह के बाद
अब मुझे कुछ भी
अच्छा नहीं लगता
खाने बैठता हूँ तो
दाल पनीली लगती है
सब्जियाँ बेस्वाद लगती है
कोई मिलने आता है तो
मुलाकातें बेगानी लगती है
दिन अनमना और
रातें पहाड़ लगती है
नहीं करता मन अब
बरामदे में बैठ चाय पीने का
पार्क में जाकर अकेले
घूम आने का
विंध्य से लेकर हिमालय तक
गंगा से लेकर वोल्गा तक
न जाने कितने पहाड़ और नदियाँ
तुम्हारे संग जीवन में पार की
लेकिन आज
तुम्हारे विछोह के दर्द को
पार पाना मेरे लिए
भारी हो गया।
( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )
अब मुझे कुछ भी
अच्छा नहीं लगता
खाने बैठता हूँ तो
दाल पनीली लगती है
सब्जियाँ बेस्वाद लगती है
कोई मिलने आता है तो
मुलाकातें बेगानी लगती है
दिन अनमना और
रातें पहाड़ लगती है
नहीं करता मन अब
बरामदे में बैठ चाय पीने का
पार्क में जाकर अकेले
घूम आने का
विंध्य से लेकर हिमालय तक
गंगा से लेकर वोल्गा तक
न जाने कितने पहाड़ और नदियाँ
तुम्हारे संग जीवन में पार की
लेकिन आज
तुम्हारे विछोह के दर्द को
पार पाना मेरे लिए
भारी हो गया।
( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )
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