पढ़-लिख गए हैं
अंग्रेजी बोलने में ही
गर्व का अनुभव करते हैं।
अपनी मातृभाषा में
बात करने में अब
उनकी जबान ऐंठती है।
ठंडे ज़ायक़े को
दिमाग में घोलते हुये
विदेशी भाषा बोलने में ही
अपनी शान समझते है।
भूले से भी नहीं दिखती
उन्हें अपनी जमीन
जिसकी जड़ों को लगातार
काट रहे हैं।
आत्मप्रदर्शन और
आत्मप्रशंषा के शिकार
खुदगर्जों के पार्श्व में बैठी
मातृभाषा आज कराह रही है।
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
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