संध्या के समय
गीता भवन के घाट पर
नौका में बैठ कर
नदी में बहती
सुनहली-रुपहली
मछलियों को देखते हुए
आटे की गोलियाँ डालना
कितनाअच्छा लगता है ?
गंगा की निर्मल लहरों को
एक टक देखना
और देखते-देखते
स्वयं उनमें खो जाना
कुछ देर के लिए ही सही
मगर कितना अच्छा लगता है ?
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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