भेड़ गर्मिंयो में
लू के थपेड़े खा कर
जलती देह पर ऊन उगाती है
सर्दियों में
ठंडी हवाओं के थपेड़े भी
सहती रहती है
लेकिन अपनी
ऊन दूसरो को कम्बल
बनाने के लिए दे देती है
इंसान आज तक
भेड़ चाल के नाम पर
कटाक्ष ही करता आया है
क्या उसने कभी
भेड़ के इस त्याग को भी
समझ ने की चेष्टा की है ?
गीता भवन
१२ जुलाई,२०१०
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )