Saturday, January 15, 2011

बेटियाँ

      


हवा के शीतल झोंकों की
तरह  माँ- बाप को 
 प्यारी होती हैं बेटियाँ


घर खुशी से महक उठता है 
जब हँसती और
मुस्क़ुराती हैं बेटियां

                                                                मर्यादाओं की सीमाओं 
और  संस्कारों  में 
पली-बड़ी होती हैं बेटियां

बड़ी होने से पहले ही 
 समझदार हो कर 
 आगे निकल जाती हैं बेटियां

गले  में बांहों क़ा झूला बना  
 माँ को बचपन  याद 
 करा देती हैं बेटियां

कोयल की तरह मधुर
  स्वरलहरी सुना 
 एक दिन उङजाती है बेटियां

दीवार पर अपने पीले हाथों
 के निशान लगा
आँगन छोड़ चली जाती है बेटियां। 
 
ससुराल में पत्नी, बहू 
दिवरानी, भाभी 
जैसे रिश्ते फिर निभाती हैं बेटियां। 


कोलकत्ता
११ अगस्त,२०११  
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, January 14, 2011

बादल आये




                                     

बादल आये  बादल आये, 
रंग - रंगीले  बादल आये। 

गड़-गड़ करते सोर मचाते,
मानो   घोड़े नभ  में उड़ते। 

गोरे  बादल, काले  बादल, 
पानी  है  बरसाए   बादल। 

चम-चम बिजली चमकाए,
धुड़ूम-धुड़ूम पानी बरसाए। 

जीवनदायी जल  बरसाते,
नहीं किसी को ये तरसाते। 

बरसाते ये नभ से मोती,
चाँदी जैसा बहता पानी |

महक उठी धरती से सोंधी,   
हवा  हो  गई  ठंडी - ठंडी |

जंगल में मंगल हो  जाए,
बादल  जब पानी  बसाए | 

कोलकत्ता
१४ जनवरी, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )


Friday, November 12, 2010

मोरियो ( राजस्थानी कविता )



सतरंगी पांख्याँ वालो     
                                    रंग-रंगीलो मोरियो  
 शीश किलंगी घंणी सोवणी
                                       प्यारो लागे मोरियो 


पंख फैलाय छतरी ताणै
                                        घूमर घाले मोरियो  
    मैह आव जद बोलण लागे
                                           पैको-पैको मोरियो  


   चोंच मार अर नाड़ उठावै 
                                              दाणा चुगतो मोरियो 
     काचर  खायर पांख गिरावै 
                                              चोमासा में मोरियो 


      साँझ ढल्यां पीपल रे ऊपर
                                                  जाकर बैठे मोरियो  
     पंछीङा में घणो सोवणों     
                                                   रास्ट्र पक्षी यो मोरियो।     

              
                                                                                             

कोलकत्ता
१२ नवम्बर, 2010
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, November 8, 2010

एक बादळी (राजस्थानी कविता )


                                    


बणी काजळी एक बादळी 
दूर खेत रे मायं जी

पुरवाई री पून चालगी
रिमझिम मैह बरसावै जी

बेलां री जोड़ी ने लेयर 
छैल खेत में चाल्यो जी

मीठी बाणी मरवण बोले
छेलो तेजो गावेजी 

        कोयल गावे, बुलबुल फुदके       
मोरयों छतरी ताणे जी 
पंछीङा गाछां पर बैठ्या
मधरा गीत सुणावे जी 

काची-काची कोंपल फूटी
धरती रो रंग निखरयो जी

हरियल बूंटा  लेहरां लैव 
मरवण करे निनाण जी

अलगोजा खेता में बाज्या
गौरी कजली गावै जी

बिजल्यां चमके, बिरखा बरसे
ळाटण री रूत आई जी 

मैह मोकळो अबकी बरस्यो
घणे चाव धरती जोती

ओबरियो अबकै भरस्यां
मिज्याजण गौरी बोली

गुंवार मोठ के फल्यां लागगी
सीट्या कूं-कूं लाग्यो जी

काचर,बोर,मतीरा पाक्या
                           चुनड़ सिट्टा मोरे जी                          
                            
            पीळा- पीळा बोर मोकळा             
  लाग्या झाड़ी ऊपर जी

        मठ काचरिया मीठा-मीठा        
   खावण री रुत आईजी   

भर कटोरो  छाछ-राबड़ी
मरवण भातो ल्याईजी

बाजरी री रोटी ऊपर
गंवार फली रो सागजी 

खोल छाक जिमावण लागी
मेहँदी वाळा हाथां जी

   ढोळो गास्यो भूल गयो    
निरख चाँद सो मुखड़ो जी। 


कोलकत्ता
८ नवम्बर, 2010
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Tuesday, October 26, 2010

चाँदनी रात


चाँदनी रात में
तुम छत पर खड़ी
अपने बालों को संवार रही थी

मैं पढ़ रहा था
लेकिन नजर बार -बार
तुम्हारी तरफ उठ रही थी

तुमने मोनालिसा की तरह
मुस्करा कर पूछा -
क्या देख रहे हो ?

मैंने कहा -
तुम्हारी शोख अदाओं को
जिन्हें देख सितारे भी
मदहोश हो रहें हैं

चाँदनी भी शरमा कर
अपना मुँह  बादलों में
छिपा रही है 

मेरी तो बात ही क्या है 
आज तो चाँद भी तुमको देखने
जमीन पर आना चाहता है

तुमने  लज्जाकर
दोनों हाथों  से  अपने
मुँह को ढाँप लिया

मानो मेरी
बात को सहज ही
स्वीकार कर लिया। 


कोलकत्ता
२५  अक्टुम्बर, २०१० 
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, October 23, 2010

पिया मिलन री रुत आई (राजस्थानी कविता)





मालण करदे म्हारा सोळा सिणंगार ऐ
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री 

चंपा रे फूलां रो बणवादे म्हारो गजरो ऐ
चोटी तो गुथंवा दे बेला फुल री 
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री 

नौलख तारां स्यूं जङवा दे म्हारी कांचली ऐ
टूकी तो लगवा दे सूरज-चाँद री
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री 

 इंद्रधणक रे रँगा स्यूं रंगवादे म्हारी चुनडी ऐ
गोटा में लगवा दे आभा बिजली री 
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री  

कजरा रे बादल रो सरवादे म्हारे काजलियो ऐ
टिक्की तो लगवा दे धूजी नखत री
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री|

चन्द्र -किरण रो बनवादे म्हारो चुड़लो ऐ
सूरज री किरणा सूं नोलख हार री
म्हारे पिया मिलन री रुत आई री। 


कोलकत्ता
२२ अक्टुम्बर,२०१०

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, October 1, 2010

स्पर्श



शिशु के बदन पर माँ के 
हाथ का ममतामयी स्पर्श

प्रणय बेला में नववधू के
हाथ का रोमांच भरा स्पर्श

पेड़ो पर झूलती लताओं का 
आलिंगनपूर्ण स्पर्श

पहाड़ों पर मंडराते बादलों का 
प्यार भरा स्पर्श

हँसती खिलखिलाती नदी  का
 सागर में समर्पण  का स्पर्श

गुलशन में गुनगुनाते भंवरों  का 
 फूलों से मधुमय स्पर्श

मानसरोवर के स्वर्णिम कमलों  पर
 तुहिन कणों का स्पर्श

दुनियां के कोमलतम
     स्पर्श की कहानी कहते हैं। 

कोलकत्ता
१ अक्टुम्बर, २०१०
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )