Wednesday, January 17, 2018

उम्र के पड़ाव पर

तुम्हारे जाने के बाद
मैं अपने ही घर में
एक अजनबी की  तरह
रहने लग गया हूँ

कम बोलना और
ज्यादा सुनने का प्रयास
करने लग गया हूँ

कोई कुछ भी कहता है
तो मान लेता हूँ
तर्क अब नहीं करता हूँ

किस से करू तर्क
किससे कहूँ मन की बात
तुम्हारे सिवा कोई
हमजुबां रहा भी तो नहीं

जज्बातों का
सैलाब उठता है
नाराजगियों का
तूफ़ान भी उठता है

मगर उम्र के
इस पड़ाव पर
जिन्दगी को किसी तरह
सम्भाले चल रहा हूँ।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]






Monday, January 15, 2018

आज मकर सक्रांति आई

कहींअर्पण किया
कहीं तर्पण किया
कहीं डुबकी भी लगाई
आज मकर सक्रांति आई।

कहीं लोहड़ी मनाई
कहीं पोंगळ मनाई
कहीं बिहू भी मनाई
आज मकर सक्रांति आई।

कहीं खिचड़ा बनाया
कहीं चूँगापीठा खाया
कहीं पिन्नी भी बनाई
आज मकर सक्रांति आई।

सूर्य उत्तरायण को चले
भक्त गंगा- सागर चले
कहीं पतंग भी उड़ाई
आज मकर सक्रांति आई।


Tuesday, January 9, 2018

घर की निशानी चली गई

बस्ते के बोझ तले बचपन बीत गया
मस्ती भरी सुहानी नादाँ उम्र चली गई।

तेल,नून,लकड़ी के भाव पूछता रह गया
जीवन से झुंझती मस्त जवानी चली गई।

बुढ़ापा क्या आया सब कुछ चला गया
दरिया सरीखी दिल की रवानी चली गई।

चूड़ियाँ, बिन्दी, मंगलसुत्र सब हट गया
औरतों के सुहाग की निशानी चली गई।

पढ़-लिख कर बेटा शहर चला  गया
बाप के बुढ़ापा की उम्मीद चली गई।

गांव का जवाँ फ़िल्मी गीतों में रीझ गया
मेघ मल्हार, कजली की तानें चली गई।

गांव में खाली पड़ा मकान बिक गया
गांव की जमीं से घर की निशां चली गई।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, January 3, 2018

बरस बीतग्या (राजस्थानी कविता )

सहेळ्या रो झुलरों
माथै पर घड़ो
बणीठणी पणिहारियाँ देख्या न्हं
बरस बीतग्या।

सोनल बरणा धौरा
खेजड़ी'र खोखा
मोरियाँ रो नाच देख्यां न्हं
बरस बीतग्या।

फोग'र रोहिड़ा
खेत'र खळां
मदवा ऊंटां री गाज सुण्यां न्हं
बरस बीतग्या।

बळती अर लूवां
सरदी'र डांफर
भूतियो बगुळियो देख्यां न्हं
बरस बीतग्या।

सावण रो महीणो
रिमझिम बरसतो म्है
अलगोजा पर मूमल सुण्यां न्हं
बरस बीतग्या।

आँगण मायं माण्डना
ब्याव रो राती जोगो
लुगायां रो टूंटियों देख्यां न्हं 
बरस बीतग्या।

Monday, December 25, 2017

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं

भूल गया मैं सब रंगरलियाँ
सुख गई खुशियों की बगियाँ
जीवन की झांझर बेला में
पाई मैंने विछोह की पीड़ा

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा। 

लाख बार मन को समझाया
फिर भी मन नहीं भरमाया 
आँखों से अश्रु जल बहता 
कैसे छिपाऊं मन की पीड़ा 

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।

डुब गया सूरज खुशियों का
संग-सफर छूटा जीवन का  
तुम तो मुक्त हुई जीवन से
मैंने पाई वियोग की पीड़ा 

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।



 ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )

Friday, December 22, 2017

बहुत याद आती है

जब भी आकाश से
बरसती है रिमझिम बूँदें
मुझे याद आती है तुम्हारे
गेसुओं से टपकती बूँदें

मैं अक्सर खड़ा हो जाता हूँ
खिड़की खोल कर
देर तक खड़ा रहता हूँ
यादों की चादर ओढ़ कर

ऐसे बदलते मौसम में
बहुत याद आती है तुम्हारी
हवा की छोटी सी दस्तक भी
आहट लगती है तुम्हारी

बहुत सारे महीने और वर्ष
बित गए तुमसे बिछड़े
लेकिन तुम्हारा इन्तजार और
यादें आज तक नहीं बिछड़े

तुम्हारे विरह के दर्द में
आज भी लम्बी आहें भरता हूँ
हर सांस के संग
तुम्हें याद करता हूँ

तुम्हारी सूरत आँखों से
नहीं निकल पाती है
जितना भी भुलना चाहता हूँ
उतनी याद अधिक आती है।


फ्रेम में जड़ी तुम्हारी
तस्वीर देख कर सोचता हूँ
आज भी दमक रही होगी 
तुम्हारे भाल पर लाल बिंदिया

कन्धों पर लहरा रहे होंगे 
सुनहरे रेशमी बाल 
चहरे पर फूट रहा होगा 
हँसी का झरना

चमक रही होगी मद भरी आँखें
झेंप रही होगी थोड़ी सी पलकें
देह से फुट रही होगी 
संदली सौरभ 

बह रही होगी मन में  
मिलन की उमंग
बौरा रही होगी प्रीत चितवन 
गूंज रहा होगा रोम-रोम में
प्यार का अनहद नाद

मेरे मन में आज भी
थिरकती है तुम्हारी यादें
महसूस करता हूँ
तुम्हारी खुशबु को
तुम्हारे अहसास को।
फ्रेम में जड़ी तुम्हारी
तस्वीर देख कर सोचता हूँ
आज भी दमक रही होगी 
तुम्हारे भाल पर लाल बिंदिया

कन्धों पर लहरा रहे होंगे 
सुनहरे रेशमी बाल 
चहरे पर फूट रहा होगा 
हँसी का झरना

चमक रही होगी मद भरी आँखें
झेंप रही होगी थोड़ी सी पलकें
देह से फुट रही होगी 
संदली सौरभ 

बह रही होगी मन में  
मिलन की उमंग
बौरा रही होगी प्रीत चितवन 
गूंज रहा होगा रोम-रोम में
प्यार का अनहद नाद

मेरे मन में आज भी
थिरकती है तुम्हारी यादें
महसूस करता हूँ
तुम्हारी खुशबु को
तुम्हारे अहसास को।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है ]



Friday, December 8, 2017

तुम आओगी ना

दिसंबर आ गया
तुम्हारा पश्मीना साल
अभी तक ज्यों का त्यों
रखा है अलमारी में
तुम्हें ही ओढ़ना है ना
तुम आओगी ना

ठण्ड भी बढ़ गई है
मेरा स्वेटर, मफलर
निकाल कर धुप में
तुम्हें ही देना है ना
तुम आओगी ना

सुबह उठ कर
अदरक वाली चाय बना
तुम्हें ही पिलाना है ना
तुम आओगी ना

मीठी आंच में सेंक
गरम-गरम भुट्टे
निम्बू-नमक लगा
तुम्हें ही देना है ना
तुम आओगी ना।