Friday, November 29, 2013

बर्फानी हवा



आओ बैठो
खिड़की के पास 
देखो बाहर का नजारा 
  बर्फ के फोहें उड़ रहे है हवा में
   चाँदी का बर्क बिछ गया है धरा पर 

 खोल दो खिड़की 
आने दो बर्फीली हवा को
फिर न जाने कब मौका मिले
नयनों से समेटो इस सौंदर्य को
और सुनो बर्फानी हवा के संगीत को

सामने के लॉन ने
ओढ़ली चाँदी की लिहाफ
सड़क पर आकर सो गयी है हिम
चारो तरफ बिखरे पड़े है हीरक कण
कारों की कतारो पर जा बैठी है बर्फ

चमक रहे हैं 
 गिरजाघरों के कँगूरे 
स्कूल से घर लौटते बच्चे
फेंक रहें है एक दूजे पर गोले
प्रकृति का अदभुत नजारा है यह

पेड़ों कि टहनियों
पर पड़ी बर्फ हवा के
झोंकों से गिर रही है निचे
पंछी कोटरों में दुबक गये हैं
गिलहरियां फुदक रही है बर्फ में

  
आओ बैठो
एक-एक गर्म चाय
के साथ बर्फ के इन फाहों से
ढाई अक्षर की एक कविता बनाएं 
   इस बर्फानी हवा को आज जी भर जिएं । 

  

    [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]



Sunday, November 24, 2013

आभार प्रभु आपका



हे करुणाकर
मै आपकी करुणा
   पाकर धन्य हो गया प्रभु ! 

मै निर्मल मन से
करता रहा आपसे प्रार्थना
हर समय जपता रहा  आपका नाम
कहता रहा अपने मन की बात आपको प्रभु !

सुबह शाम आपके
चरणो में अश्रु सुमन समर्पित
करता रहा और कातर स्वर से कहता रहा-
सुशीला को स्वस्थ करो प्रभु !

हे अन्तर्यामी
अपरिमित दया आपकी 
जो स्वीकार किया आपने मेरा आग्रह 
कर दिया सुशीला को स्वस्थ और निरोग प्रभु !

आज आपने मेरी
अभिलाषा को पूर्ण कर दिया
जीवन में फिर मधुमास ला दिया
  सब कुछ आपकी अहेतुकि कृपा प्रभ ! 




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Saturday, November 23, 2013

मर्यादा पुरुषोत्तम राम


हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम !
सीता से यही तो अपराध
हुवा कि उसने आपसे
स्वर्ण मृग माँगा

वो भी इसलिए कि
आपकी पर्णकुटी
सुन्दर लगे
राम स्वर्णचर्म पर बैठ सके 

लेकिन आपने
उसके साथ क्या किया ?
सीता की अग्नि परिक्षा ली
क्या यह स्त्रीत्व का
अपमान नहीं था ?

एक रजक के कहने पर 
 आश्वप्रसवा सीता को 
निर्वासन दिया 
क्या यह पति धर्म था ?

आपकी हृदयहीनता से दुःखी
सीता धरती में समा गयी
क्या यह नारी जाति का
अपमान नहीं था ?

   राज्य के सुखों को त्याग   
सीता आपके साथ वन गयी
क्या सीता का यह त्याग कम था ?

राम!
इतिहास के पन्नो में भले ही
आप "मर्यादा पुरषोत्तम" कहलाये 
लेकिन सीता के साथ आप
न्याय नहीं कर सके।









Tuesday, November 12, 2013

प्यार की पराकाष्ठा



दोनों एक दूजे  के
सुख-दुःख में शामिल

कई अनमोल सौगाते  
एक दूजे की 
एक दूजे के पास

गात अलग 
लेकिन मन एक 

मेरे मन कि बात 
अनायास निकल पड़ती है  
तुम्हारे मुख से

और तुम्हारे मन कि बात 
निकल आती है
मेरे होठों से

सब कुछ समाहित है
एक दूजे का 
एक दूजे में 

कहीं यही तो नहीं है
प्यार की पराकाष्ठा 
मेरा प्यार - तुम्हारा प्यार।



 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]






























Monday, November 11, 2013

मेरी चाहत है

मेरी चाहत है
तोड़ लाऊं मेहंदी के पत्ते
लगाऊं चटक रंग तुम्हारी
हथेलियों पर और 
सजाऊं तुम्हें  

मेरी चाहत है 
समंदर से चुन लाऊं 
मोतियों वाली सीपियाँ 
और बना कर सुन्दर हार
पहनाऊं तुम्हें  

मेरी चाहत है 
बगीचे में जाकर 
चुन लाऊँ बेला के फूल 
और बना कर गजरा 
सजाऊँ तुम्हें 

मेरी चाहत है 
इंद्रधनुष के रंगो में
रंगाऊँ  रेशम की चुन्दडी
और लगा कर चाँद-सितारे
औढ़ाऊँ तुम्हें।


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Friday, November 8, 2013

टर्मिनल


भाग-दौड़ भरी 
जिंदगी में परिवार 
बिखरते जा रहे हैं 

सभी इतनी तेजी से 
दौड़ रहे है कि 
मुड़ कर देखने का भी 
समय नहीं है

जिंदगी को जीवो 
लेकिन इतनी रफ़्तार 
से भी नहीं कि सब कुछ  
पिछे छूट जाए

दूरियां जीतनी तेजी से 
तय की जायेगी  
फासले उतने ही 
बढ़ते जायेगें  

वेग कि भी एक 
मर्यादा होनी चाहिए 
रुकने के लिए भी एक 
टर्मिनल होना चाहिये

साल भर में एक बार
परिवार कि सभी गाड़ियाँ
एक साथ आकर
ठहरनी भी चाहिये।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, November 5, 2013

महानगर

यह महानगर है
यहाँ कुत्ते नहीं भोंकते
बिल्लियाँ रास्ता नहीं काटती
यहाँ बेकाबू गाड़िया दौड़ती है

तुम ठिठक कर
खड़े क्यों हो गये ?
सड़क पर जो दम तोड़ रहा है
उसे अभी-अभी सिटी बस ने कुचला है

अस्पताल पहुँचाने का
यहाँ कोई कष्ट नहीं उठाता
सभी ठिठकेंगे, देखेंगे और
निश्चिंत होकर आगे बढ़ जायेंगे
 
जब तक पुलिस आयेगी
घायल सड़क पर दम तोड़ देगा
यहाँ का यह आम नजारा है
यहाँ जीवन सबसे सस्ता है

लोग सकुशल घर पहुँचने के लिए
यहाँ मनौती मना कर
घरों से निकलते हैं
यह महानगर है। 


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]








Friday, November 1, 2013

जीवन की यादे

जीवन भी
धूप-छांव कि तरह
कितने रंग बदलता है

कभी सुख
तो कभी दुःख
कभी ग़म तो कभी ख़ुशी

कभी दोस्त
तो कभी अजनबी
कभी सुदिन तो कभी दुर्दिन

नदी की तरह बहता है जीवन
पुराने बिछुड़ते रहते है
नए मिलते रहते है

जो आज हमारा है
कल किसी और का हो जाता है
सब कुछ बदलता चला जाता है

रह जाती है केवल चंद यादे
वो यादें जो जीवन के अंत तक
साथ निभाती है।




 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]