मैं कमरे में बैठा
काँच की खिड़की से
बाहर का
नज़ारा देख रहा हूँ।
नज़ारा देख रहा हूँ।
बाहर आसमान
से गिरती धवल हिमराशि
से गिरती धवल हिमराशि
काश के
फूलों जैसी लग रही है।
फूलों जैसी लग रही है।
बीच-बीच में
रंग बदलते पेड़ों के
पत्तों का
शोर सुनाई पड़ रहा है।
बगीचे में
टिमटिमाते जुगनू
खिड़की से
खिड़की से
बारबार टकरा रहें हैं।
खरगोश
रात के अँधेरे में
हिम से बचने
हिम से बचने
झाड़ियों में छुप रहें हैं।
दौड़ती सड़कें
बर्फ की चादर
ओढ़ कर
बर्फ की चादर
ओढ़ कर
खामोश हो रही है।
एक चपल गिलहरी
पेड़ के ऊपर
अभी भी
अभी भी
फुदक रही है।
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( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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