Wednesday, January 20, 2016

वह अबला नहीं सबला है

नारी ! मृत पति संग
चिता पर जलाई गई,
भरी सभा में निर्वस्त्र की गई 
श्राप देकर पाषाण बनाई गई। 

तलाक के तीन शब्दों संग 
परित्यक्ता बनाई गई,
अग्नि में परीक्षा ली गई
बोटी-बोटी काट तंदूर में जलाई गई। 

नग्न देह में उकेरी गई
बाजारों में नीलाम की गई,
डायन कह कर पुकारी गई
जन्म से पहले ही कोख में मार दी गई। 

जलती लकड़ी से दागी गई
मिट्टी के तेल से जलाई गई,
बलात्कार की शिकार हुई 
जानवरों की भांति नोची -खसोटी गई। 

रूढियों के सींखचों में 
 बहुत अपमान सहा है नारी ने 
मगर अब और नहीं सहेगी 
अब वह हर जुल्म का प्रतिकार करेगी। 

अब वह सबला बन जियेगी
उन्मुक्त दरिया बन बहेगी 
उमंगों के सपने बुनेगी 
कंवल जैसी खिलेगी 
अपने आत्म सम्मान और
स्वाभिमान की कहानी स्वयं लिखेगी।


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )








Sunday, January 17, 2016

पीहर और ससुराल

     मायके आने पर 
                                                                       बेटी फिर से ढ़ूँढतीं है
अपना बचपन

जिसे वो 
रख कर किसी कोने में
चली गई थी ससुराल

मिलती है 
सखी-सहेलियों से
सहेजती है पुरानी यादों को 

घर में घूम-घूम 
ढूंढती है पुराने सामान को 
खुश होती है अपनी गुड़िया को देख 

लेकिन वह जानती है 
इस घर में अब बदल गई है 
उसकी भूमिका 

अब यह 
उसका घर नहीं 
बल्कि उसका मायका है

उसका घर तो 
 अब सदा-सदा के लिए 
उसका ससुराल हो गया है

जहाँ 
चंद दिनों बाद 
उसे लौट कर चले जाना है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Friday, January 15, 2016

सद विचार

धन-दौलत का घमंड ठीक नहीं
आज है कल का कोई ठीक नहीं
दो-चार दिन की इस जिंदगी में
किसी को दुःख देना ठीक नहीं।

संतोषी सदा सुखी रहा करता है
सदा सुख की नींद सोया करता है
उल्लास आनद भी तभी मिलता है
जब मन में संतोष रहा करता है।





Wednesday, January 13, 2016

महानगरीय जीवन

महानगरीय जीवन का
वह भयावह पहलू 
जहाँ जिंदगी आज भी
नरक से कमतर नहीं है। 

दिन भर सड़कों पर 
भीख माँगने के उपरान्त
गरीब परिवार आज भी 
गट्ठरों में रहने को मजबूर है। 

भूख से छटपटाते
ठण्ड से ठिठुरते 
लावारिस बच्चे आज भी 
पुलों के नीचे सिर छिपाने को मजबूर है। 

फटे-पुराने चींथड़ों में लिपटे 
अपाहिज और भिखमंगें
आज भी सड़कों के फुटपाथों पर
जीवन बसर करने को मजबूर है। 
 
गृह-विहीन मजदुर परिवार
गंदे नालों के पास बसी 
झोंपड़ियों में आज भी 
रहने को मजबूर है।  

महानगरों में रह कर भी 
अपनी गरीबी और लाचारी पर 
आज भी इन्हें हँसना और रोना 
एक जैसा लगता है। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

महानगरों में बसंत

कंकरीट के जंगलों में
प्रदूषण भरे शहरों में
गंधाती संकरी गलियों में
क्या कभी बसंत आएगा ?

नजदीकी उद्यान में
कोठी के लॉन में
खुले मैदानों में
क्या कभी बसंत मुस्करायेगा ?

महानगरों में बसंत अब
गुजरे जमाने की बात
हो जाने की राह पर है

अब केवल
बसंत पंचमी के दिन
दूरदर्शन के चैनल पर
आकाशवाणी के विशेष कार्यक्रम में
समाचार पत्रों के विशेष स्तम्भ में या
काब्य सम्मेलनों के मंच पर
थोड़े समय के लिए
महानगरों में बसंत आएगा।






Saturday, January 9, 2016

सफल जीवन

आगमन-निर्वाण करते रहे
स्वार्थ भरा जीवन जीते रहे।
                  कुछ धन कमाने में लगे रहे
                  कुछ तन सजाने में लगे रहे।    
           
कुछ भोगों में भ्रमित रहे 
कुछ रोगों में ग्रसित रहे।
                   कुछ आलसी बन पड़े रहे 
                   कुछ अंहकार में डूबे रहे।
            
जीवन तो उन्ही के सफल रहे
जो सदा परोपकार करते रहे।
                दानवीरों का जीवन जीते रहे
                सदा सब का भला करते रहे।

फूलों की तरह जो महकते रहे
सूरज की तरह जो चमकते रहे।
                जो करुणा और प्रेम बरसाते रहे
                सदा सत्य की राह पर चलते रहे। 
                       


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )


रह गई अब यादें

मोती जैसे उज्जवल दिन थे, स्वप्नील थी सब रातें
चली गई तुम साथ छोड़ कर, रह गई अब यादें।

     स्वर्ग भी स्वीकार नहीं था, उस एक पल के आगे
             जिस पल में था संग तुम्हारा, रहते नैना जागे।

पचास वर्ष तक जवां हुई थी, साथी प्रीत हमारी
पल भर में तुम चली गई, ले कर खुशियाँ सारी।

          विरह तुम्हारा मुझको, नहीं देगा सुख से जीने
           जीवन में दुःख-दर्द के प्याले, मुझको होंगे पीने।

जीवन में अब नहीं दीखता, मुझको कोई किनारा
कोई नहीं अब संगी-साथी, जो मुझ को दे सहारा।

एक बार तुम आ जाओ, मैं जी भर तुम से मिल लूंगा
 आँखों में बैठा कर तुमको, पलकों से बंद कर लूंगा।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]