महानगरीय जीवन का
वह भयावह पहलू
जहाँ जिंदगी आज भी
नरक से कमतर नहीं है।
दिन भर सड़कों पर
भीख माँगने के उपरान्त
गरीब परिवार आज भी
गट्ठरों में रहने को मजबूर है।
भूख से छटपटाते
ठण्ड से ठिठुरते
लावारिस बच्चे आज भी
पुलों के नीचे सिर छिपाने को मजबूर है।
फटे-पुराने चींथड़ों में लिपटे
अपाहिज और भिखमंगें
आज भी सड़कों के फुटपाथों पर
जीवन बसर करने को मजबूर है।
गृह-विहीन मजदुर परिवार
गंदे नालों के पास बसी
झोंपड़ियों में आज भी
रहने को मजबूर है।
महानगरों में रह कर भी
अपनी गरीबी और लाचारी पर
आज भी इन्हें हँसना और रोना
एक जैसा लगता है।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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