मोती जैसे उज्जवल दिन थे, स्वप्नील थी सब रातें
चली गई तुम साथ छोड़ कर, रह गई अब यादें।
पचास वर्ष तक जवां हुई थी, साथी प्रीत हमारी
पल भर में तुम चली गई, ले कर खुशियाँ सारी।
जीवन में अब नहीं दीखता, मुझको कोई किनारा
कोई नहीं अब संगी-साथी, जो मुझ को दे सहारा।
चली गई तुम साथ छोड़ कर, रह गई अब यादें।
स्वर्ग भी स्वीकार नहीं था, उस एक पल के आगे
जिस पल में था संग तुम्हारा, रहते नैना जागे।
पल भर में तुम चली गई, ले कर खुशियाँ सारी।
विरह तुम्हारा मुझको, नहीं देगा सुख से जीने
जीवन में दुःख-दर्द के प्याले, मुझको होंगे पीने।
कोई नहीं अब संगी-साथी, जो मुझ को दे सहारा।
एक बार तुम आ जाओ, मैं जी भर तुम से मिल लूंगा
आँखों में बैठा कर तुमको, पलकों से बंद कर लूंगा।
आँखों में बैठा कर तुमको, पलकों से बंद कर लूंगा।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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