Saturday, September 29, 2018

गूढ़ कविता

प्यार पर लिखी कविता
जीवन भर के प्यार
का दस्तावेज होती है।

कैनवास पर उकेरा चित्र
चित्रकार के भावों की
अभिव्यक्त्ति होती है।

एक भूकंप सुनामी बन
हजारों-लाखों की जिंदगी
लील जाता है।

बगीचे का पूरा बसंत
फूलों की एक सुन्दर
माला में कैद हो जाता है।

लम्हों से हुई खता
सदियों की सजा बन जाती है
ऐसा इतिहासकार कहते हैं।


Friday, September 28, 2018

अपने हाथों से सजाऊँ

दिल करता है तुम्हें आज, अपने हाथों से सजाऊँ
तुम्हारे माथे  पर बिंदिया, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है तुम्हारे हाथों में, चूड़ियाँ पहनाऊँ
तुम्हारे होठों पर लाली, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है तुम्हारे पांवों में, पायलियाँ पहनाऊँ
तुम्हारी मांग में सिंदूर, मैं अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है, तुम्हारे नाक में नथनी पहनाऊँ
तुम्हारे हाथों में मेंहन्दी, अपने हाथों से लगाऊँ।

दिल करता है, तुम्हारी कमर में करधनी पहनाऊँ
तुम्हारे कानों में झुमका, अपने हाथों से लगाऊँ।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, September 27, 2018

कसम खाई है

किसी ने झूठ बोल दिया तो क्या हुआ, 
मैंने तो सच बोलने की कसम खाई है।

                                             मैं बड़ा आदमी नहीं बना तो क्या हुआ,               
                                             मैंने तो इंशान बनने की कसम खाई है ।                      

                                        
किसी ने मेरी बुराई करदी तो क्या हुआ, 
मैंने तो भलाई करने की कसम खाई है।

                                        किसी ने कड़वा बोल  दिया तो क्या हुआ, 
                                        मैंने तो प्यार से बोलने की कसम खाई है।


जीवन में दुःख - दर्द आए भी तो क्या हुआ, 
मैंने तो आनन्द से जीने की कसम खाई है।

किसी ने नफ़रत कर भी ली तो क्या हुआ,               
      मैंने तो मोहब्बत करने की कसम खाई है।                    



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, September 22, 2018

तुम एक बार गाँव जरूर जाना

                                                                          मैं चाहता हूँ
तुम एक बार
गाँव जा कर आओ

गाँव में हमारे
 बीते हुए बचपन को
एक बार देख कर आओ

तुम घूमना 
गाँव की गलियों में 
जहाँ हम नगें पाँव दौड़ा करते थे

तुम बैठना बैलगाड़ी में 
जिस पर बैठ कर  
हम शहर पढ़ने जाते थे 

तुम जाना खेत में
जहाँ हम काकड़ी, तरबूज 
तोड़ कर खाते थे

तुम जाना बाड़े में
जहाँ हम गाय का ताजा दूध
खड़े-खड़े पी जाते थे

तुम बैठना
पीपल की ठंडी छाँह में
जहाँ हम झूला-झूलते थे  

तुम देखना 
गाँव में हमारा बचपन 
कैसे बीता था। 
  





Thursday, September 20, 2018

चाँदनी संग लौट आना तुम

मैं रात भर सेज सजाता रहा
          मेरी  यादों  में बसी रही तुम
                   अभिसार की सौगंध तुमको
                             मधुऋतु संग लौट आना तुम।

                              मैं रात भर फूल बिछाता रहा
                                      मेरी पलकों में बसी रही तुम
                                                मनुहारों की  सौगंध  तुमको
                                                         पुरवा के संग लौट आना तुम।

                                                         मैं रात भर दीप जलाता रहा
                                                                  मेरी  सांसों में बसी रही तुम
                                                                             कांपते दीप की सौगंध तुमको
                                                                                     सावन  संग  लौट  आना तुम।

                                                                                     मैं रात  भर राह देखता रहा 
                                                                                              मेरे ख्वाबों में बसी रही तुम
                                                                                                     पहले प्यार की सौगंध तुमको
                                                                                                              चाँदनी संग लौट आना तुम।





( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )


Saturday, September 8, 2018

नारी सशक्तिकरण

                                                                  मैं अब नहीं बनना चाहती
अहिल्या की प्रस्तर प्रतिमा
जिसे कोई राम आकर
पांव लगाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
घृतराष्ट्र की गांधारी
जो आँख पर पट्टी बाँध कर 
जीवन बिताए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
महाभारत की द्रोपदी
जिसे कोई धर्मपुत्र जुए मे
दाँव पर लगाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
नल की दमयन्ती
जिसे उसका प्रेमी जंगल में 
 छोड़ कर चला जाए। 

मैं अब नहीं बनना चाहती
राम की सीता
जिसकी सतीत्व के लिए
अग्नि -परीक्षा ली जाए। 

मैं अब अबला नहीं
सबला बन जीना चाहती हूँ,
आत्मनिर्भर सशक्त नारी की 
 कहानी खुद लिखना चाहती हूँ। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, September 7, 2018

अग्नि का रहना शुभ होता है

माँ रोज रात को
चूल्हे में अंगारों को 
दबा कर रखती थी 
ताकि अगली सुबह 
वो उनसे चूल्हा जला सके 

माँ मुँह अँधेरे उठ कर 
राख के ढेर में छुपी
चिनगी को तलाशती 
छोटी-छोटी लकड़ियां 
उसके ऊपर रखती और 
थोड़ी ही देर में धुऐं की 
पताका फहरा देती 

माँ कहा करती 
घर के चूल्हे में अग्नि 
रहनी चाहिए 
अग्नि का रहना शुभ होता है।  

Monday, September 3, 2018

अतीत और वर्तमान

हमें बीती स्मृतियों 
को भूलना होगा
और वर्तमान को
सवांरना होगा

अतीत का सत्य
सत्य नहीं है
वह तो अब पूर्ण
असत्य है

अतीत से
चिपके रहना
वर्तमान की
उपेक्षा करना है

अतीत से
मोह घटाना होगा
वर्तमान को
गले लगाना होगा

अतीत तो
धूल-धूसरित पथ है
वर्तमान ही
आलोक का पथ है

अतीत तो
बीता हुआ सपना है
वर्तमान ही
आज अपना है।



Saturday, September 1, 2018

यह कैसी विडम्बना है ?

पैंतीस वर्ष की लड़की की 
दहेज़ के लिए शादी नहीं हो रही है,
अब वह हताश होने लगी है
वह आत्महत्या करने जा रही है।

लड़के की पढाई ख़त्म हो गई
पांच साल से नौकरी ढूँढ रहा है,
उसे अभी तक नौकरी नहीं मिली
वह नक्शलवादी बनने जा रहा है।

बीच सड़क पर कुछ गुंडे 
अकेली लड़की को छेड़ रहें  हैं,
भीड़ में कुछ वीडियो बना रहें हैं
बाकी के बुद्ध बनने जा रहें हैं।

हम दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र में रह रहे हैं,
गुंडे, बदमाश चुनाव जीत कर
देश का कानून बनाने जा रहे हैं।

देश में गरीब भूखा सो रहा है
बाहुबली गुलछर्रे उड़ा रहा है,
राजनेताओं के संरक्षण में
भ्र्ष्टाचार बढ़ता जा रहा है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )