Wednesday, September 19, 2012

मांडवी


तुलसीदासजी ने रामायण में
मांडवी के त्याग और विरह
वेदना का उल्लेख नहीं किया

उन्होंने केवल सीता के त्याग
और लक्ष्मण के भ्रातृ प्रेम का
ही प्रमुखता से वर्णन किया 

मैथली शरण गुप्ता ने भी
साकेत में मांडवी के त्याग
को महत्त्व नहीं दिया

उन्होंने केवल उर्मिला की
विरह वेदना का ही साकेत
में उल्लेख किया

सीता को तो वन में रह कर भी
अपने पति के साथ रहने का
अवसर मिला 

लेकिन मांडवी को तो अयोध्या
में रह कर भी पति के सामीप्य
का सुख नहीं मिला 

भरत चौदह साल तक परिवार
से दूर जंगल में पर्ण कुटी
बना कर अकेले रहे

फिर मांडवी के त्याग को
सीता के त्याग से कमतर
क्यों आंका गया ?

मांडवी की विरह वेदना को
उर्मिला की विरह वेदना से
कमतर क्यों समझा गया ?

एक दिन फिर कोई
तुलसीदास जन्म लेगा
फिर कोई मैथली शरण आयेगा

जो मांडवी के दुःख दर्द को
नए आयाम और
नए अर्थों में लिखेगा।



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





Sunday, September 16, 2012

विसमता



पेट भरते ही पक्षी दाना
छोड़  कर उड़ जाते हैं
वो भविष्य की नहीं सोचते
केवल वर्तमान में जीते हैं  

इंसान वर्तमान में नहीं
भविष्य में जीता है और
आने वाले कल की चिंता
सबसे पहले करता है

इसी कारण पक्षियों में   
आज भी समानता है
और इन्सानों में अमीर
गरीब जैसी विषमता है 

मानव को प्रकृती ने
खुले हाथों से दिया है 
सबके लिए समान
रूप से दिया है 

काश ! हम सब मिलझुल कर
दुनियाँ में रह पाते
दुनिया से इस विषमता
को मिटा पाते।




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]|

Saturday, September 15, 2012

जीवनदानी




हे जीवनदानी !
तुमको सत-सत
नमन 

तुम तो अनेक के
जीवन दाता बन कर 
सदा सदा के लिए
अमर हो गए

तुमने आँखे देकर 
किसी को दृष्टी दी
अपना दिल देकर 
किसी को धड़कने दी 

अपने फेफड़े देकर 
किसी को सांसे दी
गुर्दे देकर किसी को
जीवन की आशाएं दी 

हे महादानी
हे गुप्तदानी

हम सब ऋणी
रहेंगे तुम्हारे 
सदा-सदा के लिए  

जाओ अब तुम 
महाप्रयाण करो
स्वर्ग में निवास करो 

देखो  सभी देवता
तुम्हारे स्वागत
के लिए खड़े हैं

अप्सराऐं
तुम्हारे लिए फूलों की
वर्षा कर रही है 

अलविदा महादानी
अलविदा जीवनदानी।



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, September 6, 2012

थकने का तुम नाम लेना





चींटी कितनी मेहनत करती
  दाना चुन कर घर में लाती
            ऊपर चढ़ती- निचे गिरती
            थकने का वो नाम न लेती।
       
चूहा कितनी मेहनत करता
जमीन खोद कर घर बनाता
            कितनी मिट्टी बाहर करता
             थकने का वो नाम न लेता।
         
चिड़िया कितनी मेहनत करती
तिनका -तिनका चुन कर लाती
            कितना सुन्दर नीड़ बनाती
             थकने का वो नाम न लेती।

मधुमखी कितनी मेहनत करती
उड़-उड़ कर फूलों से रस लाती
             मीठा-मीठा शहद बनाती
             थकने का वो नाम न लेती।

  बच्चों तुम भी इनसे सीखो
जीवन पथ पर बढ़ना सीखो
        लक्ष्य हमेशा ऊँचा रखना
        थकने का तुम नाम  लेना।

     



Friday, August 31, 2012

पिट्सबर्ग का मौसम





कब सोचा था कि  
अमेरिका के पिट्टसबर्ग में
जाकर रहना पडेगा

भाषा और चाल- चलन
को समझना पडेगा
सर्दी-गर्मी को भी सहना पडेगा 

गर्मियों में होता है यहाँ
पंद्रह घंटों का दिन 
और नौ घंटों की रात

सड़क पर पैदल चलना पड़े तो
गर्मी करदे बेहाल और देखते ही 
देखते बादल और बरसात

फाल के मौसम में पेड़-पौधे 
छोड़ देते पुराना आवरण
और धारण करते नया परिधान

नयी कोपले जब पेड़ो पर
नए रंग में निकलती है
नंदन बन से लगते है बागान

सर्दियों में जब बर्फ गिरती है
चारो ओर उड़ते है बर्फ के फोहे
पूरा वातावरण ठिठुर जाता है

सड़क, मकान और पेड पौधे
सब हिम के धवल कणो से
ढक जाते है

सबसे सुन्दर होता है स्प्रिंग
जब चारों और रंग-बिरंगे
फूल खिलते हैं

पेड़ फलों से लहलहा उठते है
घाटियां और मैदान फूलों से
ढक जाते हैं

धरती पर ऐसा नजारा
बनता है की मन
आनंद से भर जाता है। 



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

Wednesday, August 29, 2012

गणतंत्र दिवस

छब्बीस जनवरी आई 
खुशियों संग यादें लाई
गांव-शहर में गूँजें गान 
मेरा भारत देश महान

नया जोश, नयी उम्मीदे
लेकर प्रति वर्ष आये 
ऐसा पावन रास्ट्र पर्व है 
सबका मन हरसाये

आओ जन -गण-मन गाये
सत्यमेव दोहराये
वीर शहीदों के नारों से
आसमान गुंजायें

अमीर-गरीब का भेद मिटायें
जात-पांत को दूर भगायें
हर हाथ को काम मिले
ऐसा अपना देश बनाये।

मिल कर सभी करे प्रयास
दुनिया में हो इसका नाम
विश्व गुरु हम फिर कहलाये
दुनिया फिर से करे सम्मान।

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Tuesday, August 28, 2012

सुन्दर रूप तिहारो

बालपने मुख माटी खाई                                                                                                                        
मुख में तीनो लोक दिखाया
                
                   सूखे तंदुल चाव से  खाकर
                  बाल सखा का मान बढ़ाया

मीरा का विष अमृत कीनो
द्रोपद  सूत को चिर बढायो
                 
                    ग्वाल-बल संग धेनु चराई
               गोपियन के संग रास रचायो

इंद्र कोप करयो ब्रज ऊपर
अँगुली पर गोवर्धन धारयो
                   
                    पापी कंस को मार गिरायो
                     कपटी कौरव वंस मिटायो

गीता ज्ञान दियो अर्जुन को
  समर भूमि में बने खेवैया
                     
                       कुँज गली में माखन खायो
                          कालिदेह के नाग नथैया

नाना रूप धरे प्रभु जग में
धरुँ ध्यान इस सूरत से
                           
                            इतनो सुन्दर रूप तिहारो
                            अंखियां हटे नहीं मूरत से।  



 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]