Tuesday, October 25, 2016

बेबसी का जीवन

नहीं मरनी चाहिए
पति से पहले पत्नी
पति का भीतर-बाहर
सब समाप्त हो जाता है

घर भी नहीं लगता
फिर घर जैसा
अपने ही घर में पति
परदेशी बन जाता है

बिन पत्नी के
पति रहता है मृतप्रायः
निरुपाय,अकेला
ठहरे हुए वक्त सा और
कटे हुए हाल सा

घर बन जाता है
उजड़े हुए उद्यान सा
बेवक्त आये पतझड़ सा

ढलने लग जाती है
जीवन की सुहानी संध्या
रिक्त हो जाता है
बिन पत्नी के जीवन

अमावस का अन्धकार
छा जाता है जीवन में
बेअर्थ हो जाता है
फिर जीना जीवन।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]




गोळ-मटोळ रोटी (राजस्थानी कविता)

चूल्हा स्यु उठ रियो है धुँओं
थेपड़या नें सुलगा रही है माँ
बाजरी री रोटी अर 
फोफलियाँ रो साग बणासी माँ 

आँख्यां हुय राखी ह लाल 
झर रियो है पाणी घूँघट मांय 
ओसण री है बाजरी रो आटो 
लकड़ी री काठड़ी मांय 

दोन्यु हथेलियाँ रे बीच
थेपड़र बणारी है रोटी
आँगल्या रा निशाण स्यूं
बणसी गोळ-मटोळ रोटी 

टाबरिया खाय रोटी
ज्यासी पढ़बा नै
भाभी ले ज्यासी भातो
जिमावण हाळी नै

बाबो रोटी खाय सौसी
झूंपड़ा मांय लम्बी खूंटी ताण नै 
बाजरे री रोटी दौपारी ताईं
कौनी आण देव भूख ने। 



Thursday, August 11, 2016

बम बम बोले रे काँवड़िया

फूलों से काँवड़ को, सजाई रे काँवड़िया
          गंगा जी का जल भर, चले रे काँवड़िया
                मार्ग दुर्गम नंगे पाँव, दौड़े रे काँवड़िया
                        भोले का दर्शन करने, जाये रे काँवड़िया  
बम बम बोले रे काँवड़िया।

भाँग घोट भोले को, चढ़ाए रे काँवड़िया
        राहे-डगर मस्ती संग, झूमें रे काँवड़िया
               तन-मन में उमंग भर, सोहे रे काँवड़िया
                        दर्शन का सतभाव, निभाये रे काँवड़िया
बम बम बोले रे काँवड़िया।

धूप -छाँव चिंता नहीं, करे रे काँवड़िया
         दुर्गम राह सुगम लगे, नाचे रे काँवड़िया
                 राहे-सफर टेन्टों में, ठहरे रे काँवड़िया
                          भंडारे में राम प्रसाद पाये रे काँवड़िया
बम बम बोले रे काँवड़िया।

छोटे-बड़े एक रंग, रंगे रे काँवड़िया
         ऊंच -नीच भाव तज, मोहे रे काँवड़िया
                 भोले को मन्दिर मांय, पूजे रे काँवड़िया
                         गंगा जल शंकर के,चढ़ाये रे काँवड़िया
बम बम बोले रे काँवड़िया।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



 

Monday, August 1, 2016

बाल कविता

नटखट मेरा कृष्णा भैया
दिन भर करता धम्मक धैया। 

पूजा दीदी बड़ी सयानी 
लेकिन करती है मनमानी। 

राधा दीदी प्यारी-प्यारी 
बाते करती न्यारी-न्यारी। 

राहुल भैया को भाता आम
बात है कोई इसमें खास।

अभि भैया सबसे प्यारा
है सबके नैनो का तारा।

गौरव भैया एक सितारा
मुझको लगता सबसे प्यारा। 

सबसे अच्छी मेरी नानी 
रोज सुनाए मुझे कहानी। 

देखो माँ है कितनी अच्छी 
मुझे सिखाती बाते अच्छी। 

मैं मम्मी की प्यारी बिटिया 
नाचा करती ता-ता-थैया। 



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Thursday, July 28, 2016

तुम जो बिछुड़ गई

मधुवन  ही  वीरान  हो गया,      तु जो चली गई 
अश्क मेरी आँखों से ढलते, तुम जो बिछुड़ गई।

                                                          मंजिलें अब जुदा हो गई, अंजानी अब राह हुई                                                              जिंदगी अब दर्द बन गई, तुम जो बिछुड़ गई।

खाली-खाली मन रहता, एक उदासी गहरी छाई
यादें अब तड़पाती मुझको, तुम जो बिछुड़ गई।

साथ जियेंगे साथ मरेंगे, हमने कसमें थी खाई 
गीत  अधूरे रह गए मेरे,  तुम जो बिछुड़ गई।

सपने मेरे सपने रह गए,ऑंखें हैं अब भरी-भरी
टूट पड़ा है पहाड़ दुःखों का,तुम जो बिछुड़ गई।

अब मरे संग साथ चले, ऐसा साथी  कोई नहीं  
जीवन-पथ में रहा अकेला, तुम जो बिछुड़ गई।

किससे मन की बात कहूँ, साथ तुम्हारा रहा नहीं
कैसे अब दिल को बहलाऊँ, तुम जो बिछुड़ गई।




                                              [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




प्रार्थना

प्रभु !
हमें भक्ति दो 
हमें शक्ति दो 
हमें अपने चरणों में 
आसक्ति दो। 

शक्ति नहीं हममे इतनी 
गुण आपके गा पाए 
है अज्ञानी बालक हम सब 
प्रभु चरणों में शीश नवाए। 

मोह-बंधन की काट बेड़ियां 
जीवन पथ आलोकित कर दो 
कर पाएं हम दर्शन निश दिन 
ऐसी दृस्टि हमें दे दो।  

अंतर्मन का हरो अन्धेरा 
मन में ज्ञान की गंगा बहादो 
कर्तव्य का बोध हमें हो 
ऐसा पावन मन बनादो। 

Saturday, July 23, 2016

एक दिन साथ-साथ

एक दिन हम
गीता भवन के घाट पर
गंगा में नहाने चलेंगे साथ-साथ

नहाने के बाद
करेंगे पूजा गंगा की और
चलेंगे नाश्ता करने
गीता भवन की
मिठाई की दुकान पर

शाम का खाना हम
चोटिवाले के यहाँ खाएंगे
आइसक्रीम खाने चलेंगे
नौका में बैठ मुनि की रेती

लौटते समय
राम झूला पर खिलाएंगे
चने बंदरों को
आटे की गोलियां डालेंगे
मछलियों को

बालूघाट पर बैठ कर
सुनेंगे कल-कल करती
गंगा की स्वर लहरी को

लौटते समय तुम देना
अपना हाथ मेरे हाथ में
और फिर इठला कर चलना
मेरे संग में।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]