सुबह का सूरज
आज भी चमक रहा था
आज भी चमक रहा था
चाँद आज भी
चांदनी संग आया था
तारे आज भी
झिलमिला रहे थे
लेकिन आज तुम नहीं थी
बगीचे में फूल
आज भी खिले थे
तितलियाँ आज भी
फूलों पर मंडरा रही थी
भँवरें आज भी
गुनगुना रहे थे
लेकिन आज तुम नहीं थी
बच्चे आज भी
स्कूल जा रहे थे
दरवाजे पर काली गाय
आज भी रम्भा रही थी
आज भी रम्भा रही थी
कबूतर आज भी
छत पर दाना चुग रहे थे
लेकिन आज तुम नहीं थी
पूजा की घंटियों के साथ
आज भी सवेरा हुआ था
आज भी सवेरा हुआ था
आरती आज भी
गाई गई थी
तुलसी चौरे पर आज भी
दीपक जला था
दीपक जला था
लेकिन आज तुम नहीं थी
काव्यात्मक दग्धता
आज भी मचल रही थी
आज भी मचल रही थी
हाथ लिखने को
आज भी आतुर थे
लेकिन मैं लिख नहीं पाया
कागज़ कलम तो थी
लेकिन आज तुम नहीं थी।
[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]
फरीदाबाद
दिनांक : २३ जुलाई २०१४
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