इस बार चौथ पर
मैं नहीं देख सका तुम्हारे
हाथों की मेहंदी
हाथों की मेहंदी
तुम्हे बहुत शौक था
लगाने हाथों में
मेहंदी
जब भी तुम लगाती
हाथों में मेहंदी
मुझे आकर जरूर दिखाती
"बताओ कैसी रची है मेरी मेहंदी'
"बताओ कैसी रची है मेरी मेहंदी'
अपने हाथों को मेरे सामने कर
तुम बार-बार पूछती
तुम बार-बार पूछती
मुस्कराते हुए पूछना
अच्छा लगता
और मुझे तुम्हारे
हाथों की खुशबू का
सांसो में उत्तरना अच्छा लगता।
[ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]
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