जब से तुम बिछुड़ी हो मुझ से
चैन खो गया सारा जीवन से
छोड़ अकेला पथ में मुझको
तुम पहुंची भू से अम्बर को।
जब भी बात तुम्हारी होती
दिल रोता ऑंखें भर आती
नयनों में सावन घिर आता
मन मेरा विचलित हो जाता।
नहीं मिटा पाता यादों को
ख़्वाब नहीं दे पाता आँखों को
चली गयी तुम प्रीत लगाकर
बिच राह में मुझे छोड़ कर।
बिच राह में मुझे छोड़ कर।
साथ तुम्हारा नहीं भूलूंगा
जीवन भर मैं याद रखूंगा
चली गई तुम दूर क्षितिज में
फिर भी बैठी मेरे अन्तर में।
फिर भी बैठी मेरे अन्तर में।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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