तुमसे बिछुड़े हुए
एक महीना हो गया लेकिन
मन आज भी नहीं मान रहा
सोचा जैसे ही घर पहुचुँगा
तुम सदा की भाँति मुझे
दरवाजे पर मुस्कराती मिलोगी
और कहोगी-
हाथ मुँह धो कर
कपड़े बदल लीजिए
आज मैंने आपकी पसंद का
खाना बनाया है
गुंवार फली और
काचरे की सब्जी के साथ
बाजरे की रोटी और गुड़
आपको दोपहर में
चाय के साथ केक पसंद है
मैने कल शाम को ही
केक बना लिया था
पाईनेपल और
हेलेपिनो मंगा रखा है
शाम को बना दूंगी पिज्जा
काश ! ऐसा ही होता
लेकिन तुम तो इतनी दूर
चली गई कि मैं आवाज भी दूंगा
तो वो भी लौट आएगी
तुम्हारा हाथ
पकड़ने के लिए
हाथ बढ़ाऊंगा तो वो भी
खाली हथेली लौट आएगी।
[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]
फरीदाबाद
६ अगस्त, २०१४
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