रिमझिम फुहारों में
मन भीगना चाहता हैतुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से
धरती की उठती महक में
मन भरना चाहता है
तुम्हें अपनी बाहों में
एक बार फिर से
भीगी घास पर
मन दौड़ना चाहता है
तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से
सावन की बरखा में
मन झूमना चाहता है
तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से
बसंती बहारों में
मन खेलना चाहता है
होली तुम्हारे संग-संग
एक बार फिर से
मेरे प्यार की पनाहों में
हो सके तो लौट आओ
एक बार फिर से।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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