आज अकेला
सुनी संध्या में
उदास मन को बहलानेसुनी संध्या में
झांकने लगा तुम्हारी
अलमारी में
अचानक शादी की
पचासवीं वर्ष-गाँठ पर पहनी
तुम्हारी साड़ी
आ गयी मेरे हाथ में
साड़ी को छुआ
तो लगा जैसे तुम समाई हो
उसके रोम-रोम में
तुम्हारी देह की
संदिल गंध समा गई
मेरे पोर-पोर में
लगा जैसे अचानक
कहीं से आकर तुमने मुझे
भर लिया हो बाँहों में
मैं अपलक निहारता रहा
तुम्हारी साड़ी को
तुम्हारी कंचन काया की छवि
छाने लगी मेरी यादों में
उस रंग भरी शाम की
तस्वीरें तिरने लगी मेरी आँखों में
आँखों से बहने लगे अश्रु
सारी उदासी बह गई
रह गया केवल तुम्हारा मेरा प्रेम
दिल के झरोखे में।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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