Friday, November 8, 2013

टर्मिनल


भाग-दौड़ भरी 
जिंदगी में परिवार 
बिखरते जा रहे हैं 

सभी इतनी तेजी से 
दौड़ रहे है कि 
मुड़ कर देखने का भी 
समय नहीं है

जिंदगी को जीवो 
लेकिन इतनी रफ़्तार 
से भी नहीं कि सब कुछ  
पिछे छूट जाए

दूरियां जीतनी तेजी से 
तय की जायेगी  
फासले उतने ही 
बढ़ते जायेगें  

वेग कि भी एक 
मर्यादा होनी चाहिए 
रुकने के लिए भी एक 
टर्मिनल होना चाहिये

साल भर में एक बार
परिवार कि सभी गाड़ियाँ
एक साथ आकर
ठहरनी भी चाहिये।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


6 comments:

  1. धन्यवाद यशवंत जी।

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  2. bahut sahi baat uthaai aapne .. rukne ke liye ek terminal bhi hona chahiye .. well penned.

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  3. आपका बहुत बहुत स्वागत भावनाजी।

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  4. आपका आभार वन्दना जी

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  5. बहुत ख़ूबसूरत ख़याल ।

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