जैसे हवा
रहती है हर जगह
वैसे ही अब तुम रहती हो
हवा दिखाई नहीं देती
लेकिन अपने होने का
अहसास करा देती है
कभी दरवाजे को
हल्का सा थपथपा कर
तो कभी पेड़ की पत्तियों को
धीरे से सरसरा कर
तुम भी हवा की तरह
थिरकती रहती हो
मेरे चहुँ ओर
कभी निकल जाती हो
बगल से छू कर
तो कभी बिखर जाती हो
खुशबू बन कर
दिल खिल जाता है
हो जाता है दिप-दिप
लगता है झूमने
तुम्हारी खुशबू में डूब कर
सन्दली हवाओं के
धागों से आज भी बंधी है
हमारी मोहब्बत की डोर।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
रहती है हर जगह
वैसे ही अब तुम रहती हो
हवा दिखाई नहीं देती
लेकिन अपने होने का
अहसास करा देती है
कभी दरवाजे को
हल्का सा थपथपा कर
तो कभी पेड़ की पत्तियों को
धीरे से सरसरा कर
तुम भी हवा की तरह
थिरकती रहती हो
मेरे चहुँ ओर
कभी निकल जाती हो
बगल से छू कर
तो कभी बिखर जाती हो
खुशबू बन कर
दिल खिल जाता है
हो जाता है दिप-दिप
लगता है झूमने
तुम्हारी खुशबू में डूब कर
सन्दली हवाओं के
धागों से आज भी बंधी है
हमारी मोहब्बत की डोर।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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