गाँवों में लोग
आज भी देते है सूर्य को अर्द्ध
सिंचते हैं तुलसी को जल
आज भी वहाँ
पड़ते हैं सावन के झूले
गूंजते हैं कजरी के बोल
औरते रखती है
चौथ का व्रत और करती है
निर्जला एकादसी
भोरा न भोर
करती है ठन्डे पानी से स्नान
रखती व्रत कार्तिक मासी
दिवाली में
गोबर से निपती है घर
मांडती है रंगोली
होली में
बच्चे-बुड्ढे हो जाते एक
लगाते रंग, खेलते हैं होली
गांव आज भी
पुरखों की बनाई व्यवस्था
पर गर्व करते हैं
अपनी विरासत को
पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए
रहते हैं।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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