गंधारी आज
अपनी आँखों पर
बन्धी पट्टी को खोलो
तुम असहाय नहीं हो
तुम निरुपाय नहीं हो
तुम अबला नहीं सबला हो
आज का घृतराष्ट्र जन्मांध नहीं है
वो केवल अन्धे होने का
नाटक मात्र कर रहा है
वो तुम्हें अपनी सम्पति समझ
छलता जा रहा है
तुम्हें भोगता जा रहा है
ईक्कीसवी सदी
तुम्हे निमंत्रण दे रही है
मानवी बनने का आमंत्रण दे रही है
उठो ! अपने आप को पहचानो
मौन की चट्टानों को तोड़ो
तूफानी धारा को मोड़ो
भ्र्स्टाचार का मर्दन करो
स्वार्थ को दहन करो
विजय का नर्तन करो
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
अपनी आँखों पर
बन्धी पट्टी को खोलो
तुम असहाय नहीं हो
तुम निरुपाय नहीं हो
तुम अबला नहीं सबला हो
आज का घृतराष्ट्र जन्मांध नहीं है
वो केवल अन्धे होने का
नाटक मात्र कर रहा है
वो तुम्हें अपनी सम्पति समझ
छलता जा रहा है
तुम्हें भोगता जा रहा है
ईक्कीसवी सदी
तुम्हे निमंत्रण दे रही है
मानवी बनने का आमंत्रण दे रही है
उठो ! अपने आप को पहचानो
मौन की चट्टानों को तोड़ो
तूफानी धारा को मोड़ो
भ्र्स्टाचार का मर्दन करो
स्वार्थ को दहन करो
विजय का नर्तन करो
जब तुम्ह हिम्मत करोगी
तुम्हारी जीत का शंख बजेगा
मिटटी का हर कण
तुम्हारी जयघोष करेगा।
तुम्हारी जीत का शंख बजेगा
मिटटी का हर कण
तुम्हारी जयघोष करेगा।
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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