Sunday, September 28, 2014

मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है




जब से तुम बिछुड़ी हो मुझसे
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारे स्नेह स्पर्श से  
मेरे मन में प्यार उमड़ आता 
अधरों पर गीत मचल जाता 
अब वो स्नेह स्पर्श नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारी मुस्कराहट के संग
मेरा सूर्योदय होता
मन उत्साह-उमंग से भर जाता
अब वो मुस्कान नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारी उन्मादक गंध 
मेरे मन में मादकता भरती 
दिल में भावों के फूल खिलाती 
अब वो उन्मादक गंध नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारे नयनों का दर्पण 
मेरे मन में चंचलता भरता 
आकुल प्यार मुखर हो उठता 
अब वो नयनों का दर्पण नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है। 

तुम्हारी पायल की झंकार 
मेरे कानों में सरगम घोलती 
एक प्यारी धुन निकल आती 
अब वो पायल की झंकार नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है। 

जब से तुम बिछुड़ी हो मुझसे
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, September 25, 2014

दुसरो को भी जीने दो



इस धरती पर
सभी के लिए पर्याप्त है
सूर्य और उसकी रोशनी
चन्द्रमा और उसकी चाँदनी
हवा और पानी
विस्तृत फैला नीला आकाश है

धरती की मिटटी से
उठती है एक सौंधी महक
सौभाग्य की खुशियों की
और सौंदर्य की जो करती है
सब के मन को मोहित

इस धरती पर
केवल अपने लिए नहीं जीना है
दुसरो को भी जीने का हक़ देना है
उतनी ही आशाओं के साथ
जीतनी हम करते हैं।






पण थूं पाछी कोनी बावड़ी (राजस्थानी कविता )






म्है तो चावौ हो
थनै सावण-भादौ री 
उमट्योड़ी कलायण 
दाईं देखबो करूँ 

पण तुंतो 
बरस'र पाछी 
बावड़गी।  

*******


म्हारै माथै भला ही 
चाँद चमकण लागग्यो हुवै 
मुण्डा पर भला ही 
झुरया पड़नै लागगी हुवै 

पण म्हारै हैत में थूं 
कोई कमी देखी कांई  
जणा बता थूं सावण की
डोकरी दाईं क्यूँ चली गई। 

*********


पून ज्यूँ बालूरा धोरा नै
सजार- संवार चली जावै
बियान ही थूं चली गई
म्हारै जीवण ने सजार- संवार

पण पून तो साँझ ढल्या
ठण्डी हुवारा लैर लैहरका
पाछी  आज्यावै
पण थूं पाछी कोनी बावड़ी।

*********




Tuesday, September 23, 2014

जीवन की परिभाषा




आँख का खुलना
और बंद होना
इतने में ही तो सिमट जाता है जीवन

साँस का आना 
और दूसरी का जाना
इतने में ही तो गुजर जाता है जीवन

बिजली का चमकना
और लुप्त होना
इतने में ही तो लुट जाता है जीवन

जलते दीपक को
हवा का झोंका लगना और बुझाना
इतने में ही तो बुझ जाता है जीवन

बंद मुट्ठी में
रेत को पकड़ना और फिसलना
इतने में ही तो रीत जाता है जीवन

सागर की लहरों का
किनारे से टकराना और लौटना
इतने में ही तो लौट जाता है जीवन।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]







Monday, September 22, 2014

पूर्ण विराम



चार महीने पहले आज के दिन
घर में खुशियों का  माहौल  था
किसी का भी पाँव जमीं पर
नहीं टिक रहा था 

मम्मी- पापा की शादी की
गोल्डन जुबली मनाई गयी थी
सबने  साथ मिल कर
ढेरों खुशियाँ बाँटी थी

लेकिन आज लगता है जैसे
जीवन में सब कुछ थम गया है
जीवन की राह में एक
पूर्ण विराम लग गया है

अचानक मम्मी हमें
अकेले छोड़ कर चली गई
अपनी ईह लीला समाप्त कर
ईश्वर में विलीन हो गई

अब तो लगता है बिना मम्मी
के घर जैसे वीरान हो गया है
खुशियों से भरे जीवन में
हिमपात हो गया है

किससे जाकर कहूँ कि मम्मी
तुम्हारी बहुत याद आती है
हर पल तुम्हारी बातें मन में
आकर आँखों से अश्रु बहाती है

लेकिन कभी लगता है जैसे
मम्मी तुम हमारे पास ही हो
और हम सभी के जीवन का
पथ प्रदर्शन कर रही हो

जब तक मम्मी तुम्हारा
आशीर्वाद हमारे साथ है
जीवन में कभी पूर्ण विराम नहीं होगा
ऐसा हम सब का विश्वाश है।

नोट : यह कविता मनीष कांकाणी द्वारा लिखी गयी है।  )

Saturday, September 20, 2014

जब तक तुम साथ थी


जब तक तुम साथ थी
मन में खुशियों के
फूल खिला करते थे
अब तो दुःखों के बादल
छाए हुए हैं।

जब तक तुम साथ थी
जीवन सुहाना सफर
लगता था
अब तो जीवन गुजरा हुवा
कारवां लगता है।

जब तक तुम साथ थी
आँखों में सुख की नींद
बसा करती थी
अब तो आँखों से केवल
अश्रु बहते हैं।

जब तक तुम साथ थी
होठों पर प्यार भरे गीत
मचलते थे
अब तो केवल
दर्द भरी आहें निकलती है

जब तक तुम साथ थी
दिन सोने के और रातें
चांदी की होती थी
अब तो दिन रेगिस्तान और
रातें पहाड़ लगती है।



  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Tuesday, September 16, 2014

मेरे मन की कौन सुनेगा

  
हर दम तेरी आती यादें
मन में उमड़े सारी बातें    
तन्हाई के इस जीवन में  
कौन प्यार की बात करेगा     

  मेरा दिल अब टूट गया है                                                       
   मेरे मन की कौन सुनेगा                                                      

  मैं दुःख के दरिया में जीता   
    अपने अश्रु जल को पीता   
 जीवन की इस अर्द्धरात्रि में        
  दीपोत्सव अब कौन करेगा  

                                            मेरा दिल अब टूट गया है 
                                             मेरे मन की कौन सुनेगा।    

     सोते-उठते तुम्हें पुकारूँ          
सपनों में अब तुम्हें निहारूँ       
     कैसे जीवन अब काटूंगा       
   इसकी चिंता कौन करेगा     

                                             मेरा दिल अब टूट गया है 
                                              मेरे मन की कौन सुनेगा।     

   मेरे सारे ख्वाब थे तुमसे       
    आँखों में सपने थे तुमसे     
   मेरी जीवन की नैया को     
    कौन खेवैया पार करेगा   

                                           मेरा दिल अब टूट गया है
                                             मेरे मन की कौन सुनेगा।        




                                           [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Wednesday, September 10, 2014

उसने कहा था


एक बार
उसने मुझे कहा था कि 
जब मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूँ 
तो तुम यह मत समझना
मैं तुमसे दूर चली गयी हूँ

मुझे देखने के लिए
तुम आसमान की तरफ मत देखना
अपने दिल के भीतर झांकना 
मैं तुम्हें  वहीं मिल जाऊँगी

मैं तुम्हारे दिल में
सदा बसी रहूँगी
मैं तुम्हें छोड़ कर 
कभी नहीं जाऊँगी। 


NO 

Monday, September 8, 2014

मेरा आभार




जीवन के
लम्बे संग-सफर में
मैं कभी प्रकट नहीं कर सका
तुम्हें अपना आभार 

निश्छल प्रेम
करुणा
शुभ भाव वर्षण 
सब कुछ पाया
लेकिन नहीं कह सका
आभार 

सोचता हूँ 
आज तुम्हे प्रेषित करूँ 
अपना आभार

बादलों को दूत बना
मैं भेज रहा हूँ
तुम्हें अपना आभार

भावांजलि बन मैं
बिखर जाना चाहता हूँ
प्रकट करने तुम्हें
अपना आभार

अपने ह्रदय में
सहेजना मेरे भावों को 
स्वीकार करना
मेरा आभार।

[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]






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Sunday, September 7, 2014

आओ आपा उछब मनावां (राजस्थानी कविता)

महालया रे दिन
बरसा न बरस स्यूं
आपा देवा निमंत्रण 
बुलावा छोटी - छोटी 
कुँवारी कन्यावां ने 

धौवां बारा पगल्या
पुंछ गमछा स्यूं
लगावां कुंकु अर 
करा नमन समझ 
दुर्गा रे उणियारै

माथै तिलक लगावां 
देवां मोकळो सामान
जको काम आवै
पढने-लिखणे मांय 

बूढी'र विधवां रो भी
करा आपा सम्मान
देवां बानै भी पैरण 
ओढ़ण रो सामान

जीवण री आपाधापी स्यूं
थोड़ो टेम काढ़ 'र आवो
नवरात्रा के दिना मांय

आपा सगळा सागै मिल 'र
पुजा कुँवारी कन्यावां नै
देवा कपड़ा बूढी'र विधवाओं ने
नवरात्रा के दिना मांय।


NO 

Wednesday, September 3, 2014

तुम सदा मेरे साथ रहोगी




इस जीवन में अब तुम से
मिलना नहीं होगा
लेकिन जीवन के हर पल में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

बारिश की रिमझिम में
सर्दी की गुनगुनी धुप में
मुस्कराते बसंत में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरे सपनों के आकाश में
मेरी कविताओं के भाव में
परिंदों के चहचहाते स्वर में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरी बातों में
मेरी यादों में
मेरे मन के भावों में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरी तो सुबह भी तुमसे होगी
साँझ भी तुम से ढलेगी
जिन्दगी के राहे-सफर में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Tuesday, September 2, 2014

हसरतें अधूरी रह गई मेरी

नेह भरे थे नयन तुम्हारे
        चितवन से मृग भी थे हारे
                 गीत लिखे थे तुम पर मैंने
                          अपने  स्वर में गाए तुमने

जब तक संग तुम्हारा था 
        जीवन बचपन लगता था 
                   अब तो जीवन संध्या है
                           कुछ  ही दिन का मेला है

जब जब याद तुम्हारी आती
          कंठ रुँध, आँखे  भर आती
                  मरुभूमि बन गयी जिंदगी
                           सपने सी खो गयी बंदगी 

बिना तुम्हारे रह नहीं पाता
        अपना दर्द मैं कह नहीं पाता
                  खुशियां सारी खो गई मेरी
                        हसरतें अधूरी रह गई मेरी।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
                 
               



Monday, September 1, 2014

बन कर मेरी परछांई





आज बहती पुरबा ने 
हौले से मेरे कान में कहा
आँखें क्यों रो रही है ?

याद कर अपने
संग-सफर की बातें
बेहद मीठी होती है यादें

मैं जैसे ही
तुम्हारी यादों में डूबा
तुम बरखा बन
चली आई मेरे पास

तुम्हारी यादों के संग
रिमझिम फुहारों ने
भीगा दिया मेरा तन-मन

तुम सूरज की
पहली किरण बन
कल फिर आना मेरे पास

मुझे हौले से सहला कर
कुछ देर बैठ जाना मेरे
सिरहाने के पास

मैं जब भी तुम्हें याद करूँ
तुम इसी तरह आते रहना
बन कर मेरी परछांई
मेरे संग - संग चलते रहना।