आँख का खुलना
और बंद होना
इतने में ही तो सिमट जाता है जीवन
साँस का आना
और दूसरी का जाना
इतने में ही तो गुजर जाता है जीवन
इतने में ही तो गुजर जाता है जीवन
बिजली का चमकना
और लुप्त होना
इतने में ही तो लुट जाता है जीवन
जलते दीपक को
हवा का झोंका लगना और बुझाना
इतने में ही तो बुझ जाता है जीवन
बंद मुट्ठी में
रेत को पकड़ना और फिसलना
इतने में ही तो रीत जाता है जीवन
सागर की लहरों का
किनारे से टकराना और लौटना
इतने में ही तो लौट जाता है जीवन।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
No comments:
Post a Comment