Monday, August 1, 2011

टूटता सपना

पढाई करके
जब कलकता कमाने निकला
तब यह सोच कर निकला
एक लाख कमाने के बाद
वापिस गाँव लौट आऊँगा 

गाँव आकर
प्रकृति के संग रहूँगा
खेती करूँगा
गाय भैंस को पालूँगा

खालिश दूध के साथ
रोटी खाऊँगा
अपनी आठों याम
मस्ती के सँग जीऊँगा

गाँव में बच्चों को
अपने ढंग से पढाऊँगा
अस्पताल खुलवाऊँगा
सड़के बनवाऊँगा

बिजली लगवाऊँगा
अपने गाँव को एक
आदर्श गाँव बनवाऊँगा 

आज एक लाख
की जगह सैकड़ों लाख
कमा लिए लेकिन संतोष
अभी भी नहीं आया है

अब मै टाटा,बिड़ला
अम्बानी की जीवनी को 
पढ़ने लगा हूँ

एक कहावत है 
सपने देखने वालों के ही
सपने पूरे होते हैं

और मै अब 
इसकी सच्चाई को
परखने में लगा हुआ हूँ

मैंने अपनी चाहतों के
जो मोती कभी पिरोये थे
उन्हें आज भी पिरोना चाहता हूँ
लेकिन बुद्धि तर्क दे कर
मन को समझा देती है 

क्या करोगे वहाँ जाकर ?
जो काम तुम करना चाहते थे
वो काम गांवों में सरकार कर रही है

और जब सरकार कर रही है तो 
तुम्हारे करने के लिए
अब गाँव में रहा ही क्या है ?

ऐसा सिर्फ
मेरे साथ ही नहीं
मेरे बहुत से दोस्तों के
साथ भी हुआ है।  


कोलकत्ता
३१ जुलाई,२०११ 
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

No comments:

Post a Comment