Thursday, August 4, 2011

साथ-साथ



जब तुमने अपना
हाथ मेरे हाथ में दिया था
तो हमने वादा किया था
साथ जियेंगे
साथ मरेंगे 

आज तक
तुमने मेरा साथ निभाया
हाथ में हाथ डाल
पूरी दुनिया में घुमाया 

अब वो हाथ
तुम क्यों छुडाना चाहती हो
आगे का सफ़र क्यों अकेली
करना चाहती हो ? 

मत छुड़ावो
अपना हाथ मेरे हाथ से
रहने दो इसे अभी मेरे हाथ में

 अभी हम
बाकि दुनियां को देखेंगे
साथ-साथ घूमेंगे

और फिर 
चलेंगे साथ-साथ
एक दूजे का हाथ पकड़
क्षितिज के उस पार तक

जहां जाकर
कोई वापिस नहीं आता
 वहाँ तक। 





कोलकत्ता
३  अगस्त, २०११


(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

No comments:

Post a Comment