Tuesday, August 2, 2011

आज के गीत



एक समय था
जब गीत गाये जाते थे

खेतों में
खलिहानों में
पनघट पर
पहाड़ों पर
सर्वत्र
गीत गाये जाते थे

वो गीत
हृदय से निकला करते थे 
दुःख-सुख में साथ रहते थे
श्रम में हौंसला बढ़ाते थे

अब गीत
श्रम या सुख दुःख
से नहीं निकलते
वो अर्थ से निकलते हैं 

अब गीतों में
न छंद है न लय है 
न ताल है न स्वर है

आज गीत
जीवन के गीत नहीं
जीविका के गीत बन गए हैं। 

कोलकाता
२ अगस्त, 2011

यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

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