एक समय था
जब गीत गाये जाते थे
खेतों में
खलिहानों में
पनघट पर
पहाड़ों पर
सर्वत्र
सर्वत्र
गीत गाये जाते थे
वो गीत
हृदय से निकला करते थे
दुःख-सुख में साथ रहते थे
श्रम में हौंसला बढ़ाते थे
अब गीत
श्रम या सुख दुःख
से नहीं निकलते
वो अर्थ से निकलते हैं
अब गीतों में
न छंद है न लय है
न ताल है न स्वर है
आज गीत
जीवन के गीत नहीं
जीविका के गीत बन गए हैं।
जीविका के गीत बन गए हैं।
कोलकाता
२ अगस्त, 2011
यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
No comments:
Post a Comment