हे अन्तर्यामी प्रभु !
तुम सर्वब्यापी हो
अनादि और अनन्त हो
सब देखते हो
सब की सुनते हो
सब देखते हो
सब की सुनते हो
मैं क्या कहना चाहता हूँ
वह भी जानते हो
मैंने आज तक
तुमसे कुछ नहीं माँगा
जो तुमने दिया
वो मैंने लिया
आज मैं
पहली बार तुमसे कुछ
माँग रहा हूँ
मेरा बस
इतना काम कर दो
सुशीला को फिर से
स्वस्थ और निरोग करदो
वह भी जानते हो
मैंने आज तक
तुमसे कुछ नहीं माँगा
जो तुमने दिया
वो मैंने लिया
आज मैं
पहली बार तुमसे कुछ
माँग रहा हूँ
मेरा बस
इतना काम कर दो
सुशीला को फिर से
स्वस्थ और निरोग करदो
तुम तो
अनादि काल से दया
ममता और करुणा के सागर
कहलाते हो
कहलाते हो
फिर बताओ
तुम उसे अपनी करुणा
से कैसे वंचित रखोगे ?
यदि उसे कुछ हो गया
तो मेरी तमाम जिन्दगी
शाम का धुंधलका बन
कर रह जाएगी
लेकिन प्रभु !
तुम्हारा भी तो
दयावान और करुणा का
रूप बिखर जाएगा
तुम्हारी
एक करुणा मेरे
जीवन में सैकडों चन्दन
मंजुषाओं की सुगंध बिखेर देगी
मेरे जीवन पथ के
कंकड़ -पत्थरों को
हीरों की तरह चमका देगी
कल सारा
संसार जानेगा कि
तुमने सुशीला पर अपनी
करुणा बरसाई
जैसे तुमने
मीरा, अहिल्या और द्रोपदी
पर बरसाई।
कोलकता
१६ अगस्त २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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