Thursday, December 10, 2009

चलो चलते है गाँव में

                                                             चलो                                                                 
               चलते है                  
        गाँव में          
                 
लहराती फसलें जहाँ
बजते अलगोजे वहाँ 

गायों के झुण्ड
भेड़ों के रेवड़
ऊंटों के टोले

पानी भरे तलाब जहाँ
पायल पानी लाये वहाँ

रंभाती गायें
नाचते मोर
गाती कोयल

कंधो पर हल जहाँ
चलते है पाँव वहाँ 

होली के रंग
सावन के झूले
तीज के गीत

गाती है गौरियाँ जहाँ
बजते है चंग वहाँ 

मुंडेरों पर काग
खेतों में मोर
पेड़ों पर पपीहे

उड़ती तितलियाँ जँहा
गुनगुनाते भँवरे जहाँ 

नागौरी बैल
मदुवा  ऊंट
दुजती भैंसे

घर -घर होते बिलौने जहाँ
सुलभ होता नवनीत जहाँ

खिलती कचनार
झरते हरसिंगार
दहकता पलास

धरती बनती दुल्हन जहाँ
गगन बनता दूल्हा वहाँ

चलो
लौट कर चलते हैं
गाँव में। 


कोलकत्ता
१० दिसंबर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Sunday, November 22, 2009

सियाळो ( राजस्थानी कविता )



सियाळा में सी पङै जी ढोला         
                 सूरज निकल्यो बादल में 
पीळा पड़ग्या खेत भंवरजी        
                         सरसों फूली खेतां में 

डूंगर ऊपर मोर ठिठरग्या             
                    पालो जमग्यो हांडी में    
  छोरा-छोरी सिंया मरग्या               
                    सोपो पड्ग्यो सिंझ्या में    

  चिड़ी-कमेड़ी ठांठर मरती           
                 जाकर घुसगी आळा में
   बुड्ढा-बडेरा थर-थर कांपे         
                 जाकर बङग्या गुदडा में

अमुवा री डाली पर बैठी            
                        कोयल बोली बागा में  
बेगा आवो बालम म्हारा             
                      गौरी उडीके महलां में।


कोलकत्ता
२१ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, November 16, 2009

माँ और नारी



माँ,
आँखों में क्षमा
मन में वात्सल्य
हाथ देने हेतु उठा हुवा

नारी
आँखों में आलोचना
मन में कामना
हाथ लेने हेतु फैला हुआ

माँ
समर्पित-सात्विक जीवन
अल्पसंतोषी
इश्वर की सीधी-सादी रचना 

नारी
समर्पण की चाहत
संतुष्टी का अभाव
इश्वर की जटिल रचना

माँ
असमर्थ, पराजित, दुर्बल
पुत्र को भी बढ़ कर
आँचल में बैठाती है 

नारी
असमर्थ, पराजित
 दुर्बल पुरूष को
बांहों में नहीं भारती है। 



कोलकत्ता
१५ नवम्बर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, November 7, 2009

गर्मी की रातें



गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे 


शाम का
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाते थे 

बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
 चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे 

चाँद के सरासर
सामने सप्तऋषियों को बाँधने
और तारों को फँसाने का
गुमान करते थे 

रात में तारों की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता था

ये सब 
करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही लगता था  

अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है

लेटे-लेटे
गाँव की सुनहरी
 यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
   छत दिखाई देती है।  


कोलकत्ता     
७ नवम्बर, 2009

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, September 21, 2009

भ्रस्टाचार


हिमालय के जंगलों में
घूमते हुए मुझे
एक दिब्य आत्मा
के दर्शन हुए

मैंने उन्हें
प्रणाम करके कहा-
प्रभु !
आप तो साक्षात
भगवान बुद्ध
लग रहे है

क्या आप मेरी
 एक प्रार्थना
 सुनेंगे  ?

मेरे इस  देश को
भ्रष्टाचार से मुक्त
 करेंगे ?

दिब्य आत्मा
 ने कहा-
वत्सः!
 
 
                                                                             जाओ      
तुम मुझे
एक मुट्ठी चावल
 उस घर से ला दो
जिसने आज तक
सच्चाई का जीवन जिया हो

मै इस देश
को सदा-सदा के लिए
भ्रस्टाचार से मुक्त  कर दूंगा

काश !
 मै ऐसे किसी ऐसे
एक भी घर को
 ढूंढ़ पाता
और
अपने देश को
भ्रस्टाचार से मुक्त करा पाता।


कोलकत्ता
२१  सितम्बर, २००९

Thursday, September 17, 2009

स्वार्थी दुनियां


पूर्वी बंगाल* में
 डाकुओं द्वारा
दादी के पति की
ह्त्या कर दी गई

बाल्य अवस्था में ही
दादी विधवा हो कर
गांव लौट आई

दादी के पास
धन की कोई कमी
नहीं थी

ढेर सारा
सोना-चाँदी लेकर
दादी आई थी

देवर
बेटे की शादी के लिए
दादी के पास गहने
 माँगने गया

तराजू का पलड़ा
सोने-चांदी के गहनों से
भर गया

तब देवर ने कहा 
तुम माँ हो और
मैं तुम्हारा बेटा हूँ

क्यों तोल रही हो 
आजीवन सेवा करूंगा
मैं वचन देता हूँ 

दादी ने
सब कुछ समेट कर
देवर को दे दिया

लेकिन समय के साथ 
कथित बेटे ने माँ को
भुला दिया

अस्सी की उम्र में 
आज दादी रास्ते से
गोबर उठा उपले बनाती है

आस-पड़ोस से
छाछ मांग कर थोड़ी 
राबड़ी बनाती है

दो कच्ची पक्की
रोटी बना कर अपना
 पेट भरती है

दादी आज
आँखों में आँसूं भर
स्वार्थी दुनिया को
कोसती है

जिसे मैंने
अपना सब कुछ
निकाल कर दे दिया

उसने मुझे
दो रोटी के लिए
भिखारी बना दिया।



* पूर्वी बंगाल विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान और स्वतंत्र होने के बाद बांग्ला देश कहलाया।









कोलकत्ता
१७ सितम्बर, २००९

Saturday, September 12, 2009

गाँव का विकास


मेरे गाँव में कभी दूध की नदियाँ बहती थी
आज वहाँ शराब की नदियाँ बहती है
मेरे गाँव का विकास हो रहा है!

मेरे गाँव में कभी निर्विरोध चुनाव होते थे
आज पूरे विरोध के साथ चुनाव होते हैं
मेरे गाँव का विकास हो रहा है 

मेरा गाँव कभी भाईचारे की मिशाल होता था
आज भाईचारा नफरत की गंध में खो रहा है
मेरे गाँव का विकास हो रहा है !

मेरे गाँव के लोग कभी सुख की नींद सोते थे
आज सबकी नींद हराम हो गई है
मेरे गाँव का विकास हो रहा है !

मेरे गाँव की गोरियाँ कभी चुनरी-लहंगा पहनती थी
आज राधा, सीता, गीता सब जींस पहनती हैं 
मेरे गाँव का विकास हो रहा है !

पनघट पर कभी छम-छम पायल बजती थी
आज गांव का पनघट सूना पड़ा है
मेरे गाँव का विकास हो रहा है !

गुवाड़ में कभी कुस्ती और मुकदर के खेल होते थे
आज वहां सियासत के अखाड़े जमते  हैं
मेरे गांव का विकास हो रहा हैं !


कोलकत्ता
१२ सितम्बर, २००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Thursday, September 10, 2009

बर्ड फ्लू



मुर्गी बोली
सुनो प्रिये
बर्ड फ्लू
आ गया है
इंसान अब
हमें नही
खायेगा 

अब हम
थोड़े नहीं
बहुत साल

आराम से जियेंगे

मुर्गा बोला
तुम भूल रही हो
तुम जानवरों के नहीं 
इन्सान के पल्ले
पड़ी हो 

अरे  !
इन्सान तो
अपनों को भी
नहीं छोड़ते
तुमको क्या छोडेंगे

पहले तो
दस बीस को
मारते थे

अब तो
हजारों को
एक साथ मारेंगे।



कोलकत्ता
९ सितम्बर, २००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, September 8, 2009

दादीजी की कहानी

दादी ने बच्चों से कहा-
बच्चों आओ मैं तुम्हें 
एक कहानी सुनाऊँ

बड़ा राहुल बोला-
दादीजी अभी मैं
होमवर्क कर रहा हूँ
बाद में सुनूँगा

मँझली पूजा बोली-
दादीजी अभी मैं
टी.वी देख रही हूँ
बाद में सुनूंगी

छोटी राधिका बोली-
दादीजी अभी मैं
फ्रेंड से बात कर रही हूँ
बाद में सुनूंगी

सबसे छोटा कृष्णा बोला-
दादीजी अभी मैं
कंप्यूटर पर गेम खेल रहा हूँ
बाद में सुनूँगा

दादी जी ने रूठते हुए कहा -
अब मैं तुम्हें कभी कहानी
नही सुनाऊँगी

सभी बच्चे
एक साथ बोले -
हम इंटरनेट पर ही सुन लेंगे।




कोलकत्ता
८ सितम्बर, २००९

Sunday, September 6, 2009

कबूतर को दाना






माँ अपने
कमरे में
रोज रात को
एक कटोरा भर कर
दाना रखती 


मुहें अंधेरे
उठ कर
छत पर
जाकर
कबूतरों को
दाना डाल आती

कभी
आराम-बीमार
हो जाती
तो हमें कहती
जाओ कबूतरों
को दाना डाल आओ

वो कौन से
तुम से माँगने आयेंगे
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर हैं 

माँ के
जाने के बाद
ये काम
माँ की बहू
कर रही है

रोज सवेरे
उठ कर
छत पर जाकर
कबूतरों को दाना 
डाल आती है

कहती है
बेचारे बिन झोली के
फ़कीर है

और यही 
हमारी संस्कृति की
लकीर है।  


      कोलकत्ता
 ६ सितम्बर,२००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
  

Friday, September 4, 2009

बिल्ली को बुखार




पूसी बिल्ली को हो चढ़ा बुखार
टेम्परेचर हो गया एक सौ चार

भोलू डॉक्टर को उसे दिखाया
उसने पूसी को वायरल बताया

झट एक इंजेक्शन लगवाया
फ़िर थोड़ा परहेज़ बताया

नहीं दौड़ोगी चूहों के पीछे 
नही खाओगी  दूध मलाई  

सोंठ डालकर काढा पीकर
तुम सोओगी ओढ़ रजाई

अभी करोगी तुम आराम 
 पूसी को हो गया जुकाम।





कोलकत्ता
४ दिसम्बर, २००९


(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Wednesday, September 2, 2009

कोल्हु का बैल


मेरे गांव में
कालू कुम्हार के
घर एक बैल है 

बैल सुबह से
 शाम तक कोल्हू
  चलाता है

 वह तब तक
चलाता रहेगा
जब तक वो जिन्दा रहेगा

शहर में
इस बैल का
प्रतिनिधित्व मैं करता हूँ 

सुबह से शाम तक
कोल्हू का बैल
बना घूमता रहता हूँ

और
  तब तक
   घूमता रहूँगा
       जब तक ......  .I




Monday, August 31, 2009

जीवन की साँझ



  बहारों के साथ मैंने भी गुनगुनाया था        
           अब वो गुलसन वीरान हो गया है 
  हसीन पलों को मैंने भी जिया था              
                अब वो चमन कहीं खो गया है 

चाँदनी रातो में मैंने भी गीत गाये थे        
                 अब वो गीत कहीं खो गए हैं
फूलों से राहों को मैंने भी सजाया था       
                   अब वो राहें वीरान हो गई हैं 

जिन्दगी में अनेक बसन्त आये थे           
                     अब तो वहां पतझड़ आ गया है       
     कल्पना के पंखो से चाँद को छुआ था          
                       अब कल्पना के पाखी उड़ गए हैं           
  |
तूफ़ान की पीठ चढ़ दुनिया घूमा था       
                  अब तूफ़ान भी शांत हो गया है   
   किरणों को पकड़ आकाश को छुआ था             
                   अब वो भुजाऐं निर्मल हो गई हैं    

        उगते सूरज के साथ मैं भी हँसा था                  
                     अब ढलते सूरज को देख रहा हूँ         
जीवन का बसंत तो बीत गया             
              अब तो यादों के सहारे जी रहा हूँ। 


कोलकात्ता                                                                                                                                            
३१ अगस्त  २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Sunday, August 30, 2009

उदगम का खोना

अस्पताल में तुम
रूग्ण-बीमार
खाट पर सोई हुयी

प्रतीक्षारत 
अपनी अनन्त
यात्रा के लिए

तुम्हे पता है कि 
तुम अब चंद घंटो की 
मेहमान हो

तब भी तुम्हे
मेरी ही चिंता रही
मैं खड़ी खड़ी थक जाउंगी 

महा प्रयाण के
समय तक तुम मेरा हाथ 
अपने हाथ में थामे रही

कितना स्नेह था
ममत्व था माँ
तुम्हारे अन्दर

आज तुम्हे
चले जाना है
अपनी अनन्त यात्रा पर

सदा-सदा के लिए
सब कुछ यहीं
छोड़ कर

डबडबा रही है
मेरी आँखे
कलेजे में हुक सी
उठ रही है 

मुझे दुःख है
आज मेरे 
उदगम के खोने का। 


लेखिका: सुशीला कांकाणी
दिनांक: १७.०४.२००६

Tuesday, March 17, 2009

गाय का बछड़ा


कृष्णा अपने ननिहाल गया था
   गाय ने बछड़ा वहाँ दिया था 
         बछडा कृष्णा को प्यारा लगा
            साथ में उसके खेलने लगा                               
                                     
रोज सवेरे जल्दी  उठता      
दौड़ पास बछड़े के जाता 
          प्यार से उसको गले लगाता
           कभी हाथ से उसे सहलाता                                          

कृष्णा की छुट्टिया खत्म हो गई 
वापिस आने की टिकट बन गई 
         जाकर झट नानी से बोला     
         नट-खट ओ  भोला-भाला                 

बछड़े की भी टिकट बना दो  
    प्लेन में मेरे साथ बिठा दो 
        मैं इसको ले कर जाऊँगा
         साथ में इसके मैं खेलूँगा       

नानी ने उसको समझाया
माँ -बेटे का प्यार बताया
        माँ से अलग बेटे को करना
        बड़ा पाप है ध्यान में रखना

कृष्णा को झट समझ आ गया
वापिस अपने घर को आ गया। 
        एक दिन नानी को फ़ोन मिलाया
       बछडे से बात करावो उन्हें बताया 

नानी बछड़ा बनकर बोली
प्यारी मीठी वाणी बोली 
           अच्छे-अच्छे  काम करो
           दुनिया में तुम नाम करो

पढ़ -लिख कर विद्वान बनो 
पाकर ज्ञान महान बनो 
     करो बड़ो का आदर तुम  
      प्यार सभी का पावो तुम।       

कोलकत्ता
17 मार्च 2009
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )






                  



                  

Saturday, February 28, 2009

मेरा गाँव


गाँव में वह पीपल का पेड़ भी नहीं रहा
जिस पर हम सब मिल कर खेलते  थे
  आशु काका की बैलगाड़ी भी नहीं रही   
  जिस पर चढ़ कर शहर जाया करते थे  
                                                  मेरा गांव अब बदल गया है।

कुम्हार काकी का अब नाच भी नही रहा
जो शादियों में ढोल पर हुआ करता था
दूध- दही की नदियाँ भी अब नहीं  बहती  
 जो घर पर मेहमान आने पर बहती थी।
                                                     मेरा गाँव अब बदल गया है।

 अलागोजों पर कजली भी नहीं गाई जाती 
जो गायों को चराते समय चरवाहे गाते थे
 गौरियां भी अब चौपाल में गीत नहीं गाती
जो गणगौर के पूजन के  समय गाती   थी
                                                         मेरा गाँव अब बदल गया है।

गाँव में अब निर्विरोध चुनाव भी नहीं  होते
जो मालू काका के सरपंच रहने तक हुए थे
   चौपाल पर अब हँसी ठहाके भी नहीं लगते  
     जो बलजी के रहते समय तक लगा करते थे    
                                                            मेरा गाँव अब बदल गया है। 

       गाँव में अब पनघट पर पायल भी नहीं बजती    
     जो कभी बनठन करऔरतें पानी लाने जाती थी 
      गांव में अब लम्बे घूँघट भी दिखाई नहीं  देते
          जो कभी गाँव की औरतें निकाला करती थी | 
                                                          मेरा गाँव अब बदल गया हैं। 


कोलकत्ता
२८ फ़रवरी,२००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Wednesday, February 18, 2009

अन्तिम अध्याय




इतिहास का अन्तिम अध्याय
                                 कभी नही लिखा जाता है
यह तो हर पीढ़ी दर पीढ़ी      
                                       पुस्त दर पुस्त लिखा जाता है           


हर बार मरे हुओं को जीवितों की
                          अदालत में पेश किया जाता है
कभी फूलों की माला तो कभी
                         काँटों का ताज पहनाया जाता है


हर सदी में कोई अच्छा तो
                                       कोई बुरा काम होता  है
राम के साथ रावण का
                                 इतिहास भी लिखा जाता है


इतिहास के पन्नों में यही सब
                                             जुड़ता चला जाता है
इतिहास का अन्तिम अध्याय
                                        कभी नही लिखा जाता है।



कोलकत्ता
१७  फ़रवरी  २००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, February 17, 2009

सत्ता का हस्तांतरण

बहू ने
सास की थाली में
घी से चुपड़ी चपाती
को रखा

प्यार से कहा -
खाइए !
थक गई तो
लोग कहेंगे
बहू ने सास को
ठीक से नही रखा

सास के
मुँह में जानेवाला ग्रास
हाथ में ही थम गया

आज अचानक
सास को वास्तविकता
का ज्ञान हो गया

कल तक
सास जो बहू को
अपने पास रखने का
दम भर रही थी

आज बहू
उसे अपने पास रखने
का एहसास दिला रही थी 

शब्दों के
बोल में ही सब कुछ
बदल गया था

अनजाने  में ही
शान्ति से
सत्ता का हस्तांतरण 
हो गया था।



कोलकत्ता
१७ फ़रवरी, २००९

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, January 19, 2009

वतन

Add caption

   आभारी हूँ मैं तुम सबका, जो इतना प्यार दिया
    अपना समझ कर हमें,जो इतना सम्मान दिया 
                  तुम्हारे प्यार को साथ लिए जा रहे हैं
                   आज हम अपने वतन को जा रहे हैं। 

  ये खुशियाँ जो तुम लोगो ने दी, बहुत याद आयेंगी
ये क्षण जो सब के साथ बिताए हर पल याद आयेंगे   
                    हम सुखद स्मृतियों के संग जा रहे हैं
                     आज हम अपने वतन को जा रहे हैं।

परिवार से दूर रह कर भी, परिवार की तरह रहना
  एक दूसरे के सुख-दुःख में सदा साथ-साथ रहना  
                   हम सबकी मधुर यादें लिए जा रहे हैं
                     आज हम अपने वतन को जा रहे हैं।

      जिन्दगी के सफर में, किसी मोड़ पर मिलेंगे 
    इन रिश्तों और लम्हों को फिर से ताजा करेंगे
                इन्हीं आशाओं के साथ हम जा रहे हैं 
                  आज हम अपने वतन को जा रहे हैं।

  चकाचोंध ओ डॉलर की खनक में मत फँसना
    फ़िर से अपने वतन लौट कर तुम सब आना 
           हम तुम्हें घर लौटने की कसम दे रहे हैं
                आज हम अपने वतन को जा रहे हैं। 
            
हिम्मत वालों की हार नही होती,यह याद रखना 
सफलता तुम्हारे कदम चूमे, इतने महान बनना 
               सब की की मंगल कामना कर रहे हैं 
                 आज हम अपने वतन को जा रहे हैं।     


सैन डिएगो (अमेरिका)
१९ जनवरी, २००९

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )