चलो
चलते है
गाँव में
लहराती फसलें जहाँ
बजते अलगोजे वहाँ
गायों के झुण्ड
भेड़ों के रेवड़
ऊंटों के टोले
पानी भरे तलाब जहाँ
पायल पानी लाये वहाँ
रंभाती गायें
नाचते मोर
गाती कोयलकंधो पर हल जहाँ
चलते है पाँव वहाँ
होली के रंग
सावन के झूले
तीज के गीत
गाती है गौरियाँ जहाँ
बजते है चंग वहाँ
मुंडेरों पर काग
खेतों में मोर
पेड़ों पर पपीहे
उड़ती तितलियाँ जँहा
गुनगुनाते भँवरे जहाँ
नागौरी बैल
मदुवा ऊंट
दुजती भैंसे
घर -घर होते बिलौने जहाँ
सुलभ होता नवनीत जहाँ
खिलती कचनार
झरते हरसिंगार
दहकता पलास
धरती बनती दुल्हन जहाँ
गगन बनता दूल्हा वहाँ
चलो
लौट कर चलते हैं
गाँव में।
कोलकत्ता
१० दिसंबर, २००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )