Monday, December 25, 2017

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं

भूल गया मैं सब रंगरलियाँ
सुख गई खुशियों की बगियाँ
जीवन की झांझर बेला में
पाई मैंने विछोह की पीड़ा

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा। 

लाख बार मन को समझाया
फिर भी मन नहीं भरमाया 
आँखों से अश्रु जल बहता 
कैसे छिपाऊं मन की पीड़ा 

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।

डुब गया सूरज खुशियों का
संग-सफर छूटा जीवन का  
तुम तो मुक्त हुई जीवन से
मैंने पाई वियोग की पीड़ा 

कैसे मैं तुम को लिख भेजूं 
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।



 ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )

Friday, December 22, 2017

बहुत याद आती है

जब भी आकाश से
बरसती है रिमझिम बूँदें
मुझे याद आती है तुम्हारे
गेसुओं से टपकती बूँदें

मैं अक्सर खड़ा हो जाता हूँ
खिड़की खोल कर
देर तक खड़ा रहता हूँ
यादों की चादर ओढ़ कर

ऐसे बदलते मौसम में
बहुत याद आती है तुम्हारी
हवा की छोटी सी दस्तक भी
आहट लगती है तुम्हारी

बहुत सारे महीने और वर्ष
बित गए तुमसे बिछड़े
लेकिन तुम्हारा इन्तजार और
यादें आज तक नहीं बिछड़े

तुम्हारे विरह के दर्द में
आज भी लम्बी आहें भरता हूँ
हर सांस के संग
तुम्हें याद करता हूँ

तुम्हारी सूरत आँखों से
नहीं निकल पाती है
जितना भी भुलना चाहता हूँ
उतनी याद अधिक आती है।


फ्रेम में जड़ी तुम्हारी
तस्वीर देख कर सोचता हूँ
आज भी दमक रही होगी 
तुम्हारे भाल पर लाल बिंदिया

कन्धों पर लहरा रहे होंगे 
सुनहरे रेशमी बाल 
चहरे पर फूट रहा होगा 
हँसी का झरना

चमक रही होगी मद भरी आँखें
झेंप रही होगी थोड़ी सी पलकें
देह से फुट रही होगी 
संदली सौरभ 

बह रही होगी मन में  
मिलन की उमंग
बौरा रही होगी प्रीत चितवन 
गूंज रहा होगा रोम-रोम में
प्यार का अनहद नाद

मेरे मन में आज भी
थिरकती है तुम्हारी यादें
महसूस करता हूँ
तुम्हारी खुशबु को
तुम्हारे अहसास को।
फ्रेम में जड़ी तुम्हारी
तस्वीर देख कर सोचता हूँ
आज भी दमक रही होगी 
तुम्हारे भाल पर लाल बिंदिया

कन्धों पर लहरा रहे होंगे 
सुनहरे रेशमी बाल 
चहरे पर फूट रहा होगा 
हँसी का झरना

चमक रही होगी मद भरी आँखें
झेंप रही होगी थोड़ी सी पलकें
देह से फुट रही होगी 
संदली सौरभ 

बह रही होगी मन में  
मिलन की उमंग
बौरा रही होगी प्रीत चितवन 
गूंज रहा होगा रोम-रोम में
प्यार का अनहद नाद

मेरे मन में आज भी
थिरकती है तुम्हारी यादें
महसूस करता हूँ
तुम्हारी खुशबु को
तुम्हारे अहसास को।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है ]



Friday, December 8, 2017

तुम आओगी ना

दिसंबर आ गया
तुम्हारा पश्मीना साल
अभी तक ज्यों का त्यों
रखा है अलमारी में
तुम्हें ही ओढ़ना है ना
तुम आओगी ना

ठण्ड भी बढ़ गई है
मेरा स्वेटर, मफलर
निकाल कर धुप में
तुम्हें ही देना है ना
तुम आओगी ना

सुबह उठ कर
अदरक वाली चाय बना
तुम्हें ही पिलाना है ना
तुम आओगी ना

मीठी आंच में सेंक
गरम-गरम भुट्टे
निम्बू-नमक लगा
तुम्हें ही देना है ना
तुम आओगी ना।




Wednesday, November 29, 2017

अक्सर मैं जब तनहा होता

अक्सर मैं जब तनहा होता, गीत तुम्हारे लिखता हूँ
बैठ कल्पना के पंखों पर, तुमसे मिलता रहता हूँ।

भूल हुई मुझसे जीतनी भी, मैं स्वीकार उन्हें करता हूँ
तुम छोड़ गई मझधार मुझे, यह स्वीकार नहीं करता हूँ। 

तुम तो भूल गई मुझको, पर मैं तो याद सदा करता हूँ
एक बार देखो ऊपर से, कब से तुम्हें निहार रहा हूँ।

नींद नहीं आती है मुझ को,यादों के संग मैं सोता हूँ 
  सपनों की गोदी  में चढ़, तुम से मिलता रहता हूँ।  

हर पल तुम्हारी यादों को, मैं दिल में बसाए  रखता हूँ
जब-जब याद तुम्हारी आती,  मैं गुनगुनाया करता हूँ।

आँखों से अश्रुजल बहता, जब भी तुम पर लिखता हूँ
कैसे लिख दूँ मन की बातें,जो कुछ लिखना चाहता हूँ।  



( यह कविता "कुछ अनकही" में छप गई है )

Thursday, November 23, 2017

सुकून भरी तुम्हारी यादें

मेरे ख्यालों में तुम थी
मेरे ख़्वाबों में तुम थी
मेरे परिहास में तुम थी
मेरे समर्पण में तुम थी
सुकून भरी तुम्हारी यादें।

मेरी शायरी में तुम थी
मेरी ग़ज़ल में तुम थी
मेरी सासों में तुम थी
मेरी बातों में तुम थी
सुकून भरी तुम्हारी यादें।

मेरी कल्पना तुम थी
मेरी भावना तुम थी
मेरी मोहब्बत तुम थी
मेरी आराधना तुम थी
सुकून भरी तुम्हारी यादें।

मेरी चाहत तुम थी
मेरी मंजिल तुम थी
मेरी जिंदगी तुम थी
मेरी बंदगी तुम थी
सुकून भरी तुम्हारी यादें।

मेरे दिल का करार तुम थी
मेरी रूह की पुकार तुम थी
मेरी रातों की नींद तुम थी
मेरे दिन का चैन तुम थी
सुकून भरी तुम्हारी यादें।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 




Monday, November 20, 2017

प्रिया मिलन को जियरा तरसे

सावन आयो बदरा बरसे
प्रिया मिलन को जियरा तरसे।

उमड़-घुमड़ कर बदरा छाए
मन में प्रिय की याद सताए
पुरवा बह के अगन लगाए
नेह - निमंत्रण याद दिलाए

सावन आयो बदरा बरसे
प्रिया मिलन को जियरा तरसे।

मयूरा नाचै सौर मचाए
पिऊ की बोली प्यार जगाए
मल्हा मेघ मल्हार सुनाए
घूँघट पट की याद दिलाए

सावन आयो बदरा बरसे
प्रिया मिलन को जियरा तरसे।

प्रिया प्रिया पपिहारी गाए
मृग-नयनी की याद सताए
मधुर कंठ से कोयल गाए
विरह-वेदना मन तड़फाए

सावन आयो बदरा बरसे
प्रिया मिलन को जियरा तरसे।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

मैं आज अकेला रह गया

मेरा जीवन साथी बिछुड़ गया
          मेरा प्यार का पंछी उड़ गया
                    मैं जीवन राह में भटक गया  
                                मैं आज अकेला रह गया।  

मेरे प्यार का झरना सुख गया
         मेरा सावन पतझड़ बन गया
                     मैं मरुभूमि सा सुख गया                          
                              मैं आज अकेला रह गया।  

मेरा प्यार का मंदिर ढह गया
             मेरा गीत अधूरा रह गया 
                    मैं राह सफर में छूट गया 
                              मैं आज अकेला रह गया।  

मेरा स्वपन सलोना टूट गया
          मेरा जीवन नीरस बन गया 
                  मैं अब जीवन से हार गया
                              मैं आज अकेला रह गया।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]


Monday, October 30, 2017

पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै (राजस्थानी)

पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै सावण रै
झूला झूलती देतो हिलौर रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै तीज रै
मेंहदी मांड दिखाती हाथ रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै होली रो त्योंहार रै
रंग तो लगातो करतो रमझोळ  रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।

कोई सामण आवै गणगौर रै
कर सोलह सिणगार पुजती गौर रै
पपैया मत ना बोल नीम री डाल रै
म्हारी तो मृगानैणी बसै अमरापुर रै।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]


Wednesday, October 18, 2017

साथी मेरा चला गया था

एक कलख है मन में मेरे
        अंत समय में पास नहीं था
                 मीलों लम्बा सफर किया पर
                         तुम से बातें कर न सका था।

देख तुम्हारी नश्वर देह को
        लिपट-लिपट कर मैं रोया था
                जीवन भर तक त्रास रहेगी
                      यम से तुमको छिन न सका था।

आँखों में अश्रु जल भर कर
        मरघट तक मैं साथ गया था
                 पंच तत्व में विलिन हुई तुम
                          मैं खाली हाथ लौट पड़ा था। 

सारी खुशियाँ मिट गई मेरी
         सुख का जीवन रित गया था
                 जीवन का अनमोल खजाना
                          मेरे हाथों से निकल गया था।





  ( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )



Monday, October 16, 2017

कश्मीर कल और आज

कल तक 

पहाड़ों पर दमकती बर्फ
चिनार पर चमकती शबनम
खेतों में महकती केशर
धरती का जन्नत था कश्मीर।

डलझील में तैरते शिकारे
वादियों में महकते गुलाब
फिजाओं में घुलती मुहब्बत
धरती का जन्नत था कश्मीर।

शिकारों में घूमते शैलानी
घाटी में फूलते ट्यूलिप
झीलों पर तैरते बाज़ार
धरती का जन्नत था कश्मीर।

और आज 

माँ ओ की ओढ़नी छिन  गई
बेटियों की अस्मिता लूट गई
मांगो का सिंदूर उजड़ गया
जन्नत नरक में बदल गया।

केसर क्यारी कुम्लाह गई
हिमगिरि में आग लग गई
जिहाद में युवा बहक गया
जन्नत नरक में बदल गया।

सभी आकांक्षायें कुचल गई
होठों की हंसी दुबक गई
घाटी में आतंक फ़ैल गया
जन्नत नरक में बदल गया।



















Thursday, October 5, 2017

तुम कहाँ हो ?

दामिनि दमकी, बरखा बरसी
काली घटा छाई, तुम कहाँ हो ?

मानसून गया, विजय पर्व आया
रावण भी दहा, तुम कहाँ हो ?

करवा चौथ, मेहन्दी लगे हाथ
निकला चाँद, तुम कहाँ हों ?

ज्योति पर्व आया, दीप जले
खुशहाली छाई, तुम कहाँ हो ?

सर्द मौसम, सुलगता अलाव
थरथराती देह, तुम कहाँ हो ?

बसंत बहार, होली का त्योंहार
रंगों की बौछार, तुम कहाँ हो ?

गीतों की रमझोल, झूले पड़े
आई गणगौर, तुम कहाँ हो ?



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]


Tuesday, October 3, 2017

यादों के झुण्ड

फुर्सत के समय
आ घेरती है तुम्हारी यादें
तस्वीर से निकल खुशबु बन
फ़ैल जाती है इर्द-गिर्द

बचपन की मुलाकातें
ख्वाबों में डूबी रातें
रूठना और मनाना
बेपनाह बातें

एक के बाद एक
उमड़ पड़ते हैं
यादों के झुण्ड

कभी सोचा भी न था
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेले बैठ तन्हाई में
तुम्हारी यादों को जीवूंगा

लेकिन अब
इन यादों के सहारे ही
तय करना होगा
जीवन का अगला सफर

बड़ा मुश्किल होता है
तसल्ली देना अपने आप को
और तन्हाई में पौंछना
खुद के आँसू।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Monday, September 18, 2017

एक खुशनुमा तितली

जब तक रही
एक कली बन रही
अंतस को छूती रही
बिन मांगे गंध भरती रही

खुशबु बन
फ़ैलाती रही
अपनी सुवास
चहुं ओर

फूल की
पत्ती-पत्ती पर
लिखती रही
अपना नाम

जाते-जाते
खुशनुमा तितली बन
उड़ गई फूलों से
बिखेर गई अपने सारे रंग।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Monday, September 4, 2017

आँखें छलकती रही

तुम मेरे जीवन में एक बहार बन कर आई
तुम्हारे संग-संग मेरी जिन्दगी महकती रही।

उम्मीद की किरण लिए मैं राह देखता रहा
मन को समझाता रहा आँखें छलकती रही। 

कल रात चांदनी मेरे कमरे में उतर आई
चाँद की चाँदनी में तुम्हारी यादें मचलती रही। 

रात तुम्हारी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
तकिया भीगता रहा और यादें सिसकती रही।

इन्ही गलियों में तुम कभी साथ चली थी मेरे
चूड़ियां बेंचने वाली तुम्हारी राह देखती रही।

महीनें वर्ष बिट गए पर यादें भुलाई नहीं गई
नज़रों से दूर हो कर भी साँसों में बसी रही। 


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Friday, September 1, 2017

सबसे प्यारी खुशबू

मैं आ गया हूँ शहर में 
छोड़ आया हूँ पीछे 
गाँव के घरों को 
गाँव की गलियों को 
गाँव के लोगो को 
लेकिन मेरे मन में 
रह गई है खेत में खड़ी 
बाजरी की बालियों की 
पकने की खुशबू 
जिसे मैं आज भी पहचानता हूँ 
दुनिया की सबसे प्यारी खुशबू 
के रूप में।  



Thursday, August 31, 2017

पक्षी भी उड़ान भरने से डरते हैं

मेरी आँख से अब
आँसूं नहीं निकलते
और नहीं दीखता है अब
मेरा उदास चेहरा

इसका अर्थ यह नहीं
कि मेरा विछोह का दर्द
अब कम हो गया है

असल में मैंने अपने
दर्द को ढक लिया है
इसलिए अब वह
अंदर ही अंदर तपता है

रिसता रहता है
देर रात तक आँखों से
गायब हो जाती है
रात की नींद भी आँखों से

कभी लिखूँगा वो सारी बातें
अपनी कविताओं में
जो मैंने सम्भाल रखी है
अपनी धड़कनों में

मेरी जिन्दगी तो अब
रेगिस्तान के उस टीले पर
खड़ी हो गई है जहां
पक्षी भी उड़ान भरने से डरते हैं।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]








Wednesday, August 30, 2017

आतंकवाद और जन्नत

हम दुनियाँ में आतंक फैला देंगे,
हम दुनियाँ में कोहराम मचा देंगे,
बस अल्लाह की मेहरबानी हो जाएँ,
                                    हमें तो बस जन्नत में
                                    बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम दुनियाँ में अत्याचार बढ़ा देंगे,
हम दुनियाँ में हाहाकार मचा देंगे,
बस अल्लाह की रहनुमाई हो जाएँ,
                                       हमें तो बस जन्नत में
                                       बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम निर्दोषों को गोलियों से भून देंगे,
हम मासूमों का कत्ले-आम कर देंगे,
बस अल्लाह की इनायत हो जाएँ,
                                    हमें तो बस जन्नत में    
                                    बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

हम दुनियाँ में कहर बरपा देंगे,
हम दुनियाँ से अमन मिटा देंगे, 
बस अल्लाह की रहमत हो जाएँ,
                                   हमें तो बस जन्नत में
                                   बहत्तर हूरें मिल जाएँ। 

( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Monday, August 28, 2017

मेरे अन्तर्मन में

तुम चली गई
इस धराधाम से
पर आज भी बैठी हो
मेरे अन्तर्मन में
जैसे रह जाती है
पहली वर्षा के बाद
मिट्टी में सौंधी महक
जैसे ढ़लता सूरज
छोड़ जाता है
झीने बादलों पर लाली
वैसे ही आज भी
तुम्हारी आँखों मस्ती
तुम्हारी प्यारी हँसी
तुम्हारा समर्पण -भाव
तुम्हारा शील-स्वाभाव
सब कुछ बसा है
मेरे अन्तर्मन में
जो बह कर आ रहा है
मेरी कविताओं में
मेरे भावों में
मेरी बातों में।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Saturday, August 26, 2017

हे प्रकृति माँ !

हे धरती !
तुम मुझे दो गज जमीं दो
कि मैं एक छोटा सा
घर बना सकूँ 

हे आकाश !
तुम मुझे छोटी सी बदली दो
कि मैं सिर छुपाने एक
छत डाल सकूँ 

हे  पवन !
तुम मुझे थोड़ी शुद्ध हवा दो
कि मैं अपनी सांसों को
सुकून दे सकूँ 
हे नदी !
तुम मुझे थोड़ा निर्मल जल दो
कि मैं स्वस्थ और निरोग
जीवन जी सकूँ 

हे इंद्रधनुष !
तुम मुझे थोड़े रंग दो 
कि मैं अपने जीवन में 
खुशियों के रंग भर सकूँ 

हे प्रकृति माँ !
मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि 
मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा 
जिससे मैं सुकून भरा
जीवन जी सकूँ। 



Thursday, August 10, 2017

चरवाहें

                                                                             मैंने देखा है
चरवाहों को खेजड़ी की
छाँव तले अलगोजों पर
मूमल गाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को दूध के साथ
कमर में बंधी रोटी को
खाते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को भेड़ के 
बच्चे को गोद में लेकर
चलते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को शाम ढले
टिचकारी से ऐवड़ को 
हाँकते हुए। 

मैंने देखा है
चरवाहों को खेतों में
मस्त एवं स्वच्छंद जीवन
जीते हुए।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, August 4, 2017

दो कविता

मन समझता है

एक सुबह
उस दिन हुयी थी
जब तुम मेरे साथ थी

और एक सुबह
आज हुयी है जब
तुम मेरे साथ नहीं हो

मेरा मन समझता है
दोनों में कितना
अन्तर है।


 तुम जो साथ नहीं हो

जब तक तुम मेरे साथ थी
मुझे नदी, नाले
पहाड़, उमड़ते बादल
हरे-भरे खेत और
खलिहान
सभी बहुत अच्छे लगते थे

अच्छे तो वो आज भी है 
लेकिन अब अकेले में
मुझे यह सब
अच्छे नहीं लगते।


Thursday, July 13, 2017

एक कहानी का अन्त

चिता पर
लाया हुवा सारा सामान
रख दिया गया
चन्दन की लकड़ियों पर
घी उड़ेल दिया गया
चिता के चारों गिर्द घूम
पानी का मटका भी
फोड़ दिया गया
बेटे ने लकड़ी जला
मुखाग्नि भी दे दी
कल ठंडी पड़ी आग से
बची-खुची हड्डियां भी
इकट्ठी कर
गंगा को समर्पित हो जाएंगी।

और इसी के संग
भस्म हो जाएंगी
मेरे जीवन की सभी आशाएं
अंत हो जाएगा
एक कहानी का
जो पूरी लिखी जाने से
पहले ही दम तोड़ गई।

                                                      [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]


Saturday, May 20, 2017

जीवन का एक कटु सत्य

सुबह सवेरे
चाय के साथ
जब मैं सन्मार्ग पढ़ता हूँ
मुख्य पृष्ठ पर
सरसरी निगाहें डाल
मैं सीधा तथाकथित पेज
पर चला जाता हूँ
जहां एक अदद तस्वीर
के  साथ लिखा होता है
"बड़े दुःख के साथ सूचित
किया जाता है कि  ----"
यह देखने कि आज कोई
परिचित तो नहीं चला गया

मन में ख़याल आता है
एक दिन मेरा फोटो भी
इसी पेज पर छपेगा
मैं भी उस दिन एक
समाचार बन जावूंगा

घरकी दीवार पर फ्रेम में
लग जाएगी एक तस्वीर
पहना दी जाएगी माला
पुण्य तिथि पर बहु
एक पंडित को बुला कर
करवा देगी भोजन
दे देगी दक्षिणा में
एक धोती-गंजी और चंद रुपये।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]




Saturday, May 13, 2017

कुछ तो कह कर जाती

आज अचानक
सुना हो गया मेरा जीवन
क्या गलती की थी मैंने
जो मिला विछोह का
इतना बड़ा दर्द
अब तो आजीवन
अफसोस ही बना रहेगा
अंत समय नहीं था पास तुम्हारे
तुमने इतना वक्त भी नहीं दिया
कि आकर कर लेता थोड़ी सी बात
लोग पूरी करते है शतायु
अभी तो कईं बरस बाकी थे
रुक जाती कुछ और
भोगती जीवन का सुख
करते-करते सबकी देखभाल
अभी जाकर ही तो मिला था
थोड़ा आराम
चार-चार बेटे-बहुएं
सात पोते-पोतियाँ
भरा-पूरा परिवार
सब सुख था जीवन में
जानें क्यों रुठ गई अचानक
चली गई अनंत में
कहाँ खोजें और कहाँ देखें
अब कहने को भी कुछ नहीं बचा
शिकायत करें तो भी किससे
तुम तो चली गई
काश ! जाने से पहले
कुछ तो कह कर जाती।


                                            [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Friday, May 12, 2017

चीन की धरती पर

आज की तारीख
अठाइस अप्रेल दो हजार 
सतरह -शुक्रवार 
मैं चीन की धरती पर।

सिर ताने खड़ी है मेरे सामने 
चीन की विशालतम दिवार
फुसफुसा रही है वो 
कुछ कहने को मुझे।

मैं पास गया 
टूटे-फूटे पत्थरों से 
आवाज आई 
अकेले आये हो 
कहाँ है तुम्हारी जीवन संगिनी
क्यों नहीं लाये साथ उसे ?

जब तुम आस्ट्रेलिया के
समुद्री नजारों को देखने गए
जब तुम स्वीट्जरलैण्ड की
मनोरम वादियाँ देखने गए
जब वेनिस की ठण्डी हवा खाने गए
जब ग्रेट बैरीयर रीफ देखने गए
हर समय वो तुम्हारे साथ रही।

आज क्यों छोड़ आये
क्यों नहीं साथ लाए उसे
चीन की दीवार दिखाने ?

मेरे लिए कदम बढ़ाना
मुश्किल हो गया
मन में इस तरह के भाव
पहले भी कईं बार आ चुके हैं। 

चाहे वो गोवा के समुद्र तट हो 
या दुबई की गर्म रेत,
जहां भी मैं अकेला गया 
मेरे मन को हर जगह 
यह  सुनाई पड़ा

मैं भारी कदमों से
आगे बढ़ता हूँ
इस कसक के साथ कि
काश! हम दोनों पहले ही
साथ - साथ आए होते।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]










Tuesday, April 18, 2017

ममता की मूरत

तुम
बदली बन बरसती रही                                                                                                                       
करती रही प्यार की बरसात
सभी पर।

तुम
फूल बन महकती रही 
बिखेरती रही प्यार की खुशबू 
सभी पर।

तुम
लोरी बन गाती रही
लहराती रही प्यार का आँचल
सभी पर।

तुम
किरण बन चमकती रही
लुटाती रही चांदनी
सभी पर।

तुम
ममता की मूरत बन झरती रही
बहाती रही स्नेह की धारा
सभी पर।



 [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]


Monday, April 17, 2017

गाँव का जीवन

                                                                      देश के महानगरों में 
रह कर भी मुझे 
अपने गाँव की 
याद आती है। 

आलीशान मकान में 
रह कर भी मुझे 
गाँव वाले घर की 
याद आती है। 

हवाई जहाजों में
सफर करके भी मुझे 
गांव वाली बैलगाड़ी की 
  याद आती है।  

पाँच सितारा होटलों में 
ठहर कर भी मुझे 
खेत वाले झोंपड़े की
याद आती है। 

स्वादिष्ट खाना 
खाकर भी मुझे 
माँ के हाथ की रोटी की 
याद आती है। 


                                                                         ऐशो आराम की  
                                                                   जिंदगी जी कर भी मुझे     

गाँव के जीवन की 
याद आती है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, April 8, 2017

पचास ऋतु चक्रों को समर्पित

पचास ऋतु चक्रों को समर्पित
जीवन के संग-सफर में
आज हर एक मोड़ पर
मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा
जरुरत है।

लेकिन मैं यह भी जानता हूँ
कि तुम अब इस जीवन में
मुझे कभी नहीं मिलोगी।

मैं चाह कर भी
तुम्हारी कोई झलक
तुम्हारी कोई आवाज
तुम्हारी कोई खबर
नहीं ले पाऊंगा।

फिर भी मैं तुम्हें
हर मौसम
हर महीने
हर सप्ताह
हर दिन
हर घड़ी
हर पल
हर क्षण
अपने जीवन सफर में जीवूंगा।

Friday, April 7, 2017

मेरी आँखों में सावन-भादो उत्तर गया

मेरे जीवन में कोई उल्लास नहीं रहा
           मेरे जीवन में कोई मधुमास नहीं रहा
                   मेरे जीवन का स्वर्णिम सूरज डूब गया
                          मेरी आँखों में सावन-भादो उतर गया।


मेरे जीवन में खुशियां की सौगात नहीं रही
         मेरे जीवन में पायल की झनकार नहीं रही
                   मेरे जीवन का मंगल गान बिसर गया
                         मेरी आँखों में सावन-भादो उतर गया।


मेरी पलकों में सुनहरा स्वपन नहीं रहा
        मेरे होठों पर प्यार भरा गीत नहीं रहा
                मेरा हमसफर जीवन राह में बिछुड़ गया
                        मेरी आँखों में सावन-भादो उतर गया।


मेरे जीवन में अधरों का हास नहीं रहा
        मेरे जीवन में गीतों का सार नहीं रहा                                     
                 मेरे जीवन से सुख का कारवाँ गुजर गया
                          मेरी आँखों में सावन-भादो उतर गया।                       



  [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]

















Tuesday, March 14, 2017

याद आता मुझको मेरा गाँव

बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुँवा वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।

सोने जैसी माटी, वहाँ हरे-भरे खेत
बहुत याद आती है, धोरा वाली रेत।
                     खेत में लगे हुए हैं, खेजड़ी के पेड़
                     हरेहरे पत्तों को, चरती बकरी भेड़।

गायों का घर आना, गोधूलि बेला
रात में खेलना, लुका छिपी खेला।
                  खुला - खुला आसमां, तारों भरी रात
                  चाँद की चांदनी में, करते मीठी बात।

सावन में झूला, फागुन में होली
याद आती है,  जगमग दिवाली।
                          गणगौर मेला, बैलों का दौड़ना
                          आपस में सबका, प्रेम से रहना।

कुऐ का मीठा, अमृत जैसा पानी
अलाव पर बैठ, सुनते थे कहानी
                        शहर की जिंदगी, मुझे नहीं भाती
                         गाँव की यादें, मुझे बेहद सताती।

बहुत याद आता है,  मुझको मेरा गाँव
कुवाँ वाले पीपल की, ठंडी-ठंडी छाँव।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )




Monday, March 6, 2017

तुम्हारा इन्तजार

आज भी दर्पण पर
 लगी बिंदी करती है
तुम्हारा इन्तजार
जहां बैठती तुम सजने-संवरने को 

आज भी पार्क की
[पगडण्डी करती है
तुम्हारा इन्तजार 
जहाँ जाती तुम घूमने को

आज भी छत पर बैठे
पक्षी करते हैं
तुम्हारा इन्तजार 
दाना-पानी चुगने को 

आज भी शाम ढले
तुलसी का बिरवा करता है
तुम्हारा इन्तजार
दीया-बाती जलाने को

आज भी दरवाजे पर 
रंभाती है धोळी गाय
 तुम्हारे हाथों से 
 गुड़-रोटी खाने को




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 




Monday, January 23, 2017

जीवन बे-राग री

झाँझर नैया
डाँड़ें टूटना
राहे सफर
अकेले चलना
साथ छूटा, राह भुला, मुश्किल हुई  मंजिल री।
मधुऋतु बीती, पतझड़ आया, जीवन बेराग री।

तनहा रहना
जुदाई सहना
घुट-घुट जी
टूट-टूट बिखरना 
उदासी छाई, आँखे भर आई, मिटा अनुराग री।
मधुऋतु बीती, पतझड़ आया,  जीवन बेराग री।

निष्प्राण जीवन
गमों को सहना
विरह के आँसूं
अरमां बिखरना
साज टूटा, स्वर रूठा, अब गीत बना बेराग री।
मधुऋतु बीती, पतझड़ आया, जीवन बेराग री।

चिर वियोग
जीवन में सहना
व्याकुल ह्रदय
यादों में रहना
ख़्वाब आया, दीदार हुवा, सपना प्यारा टुटा री।
मधुऋतु बीती, पतझड़ आया, जीवन बेराग री।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, January 18, 2017

कथनी और करनी

मैं पढ़ता रहा
समाजवाद, मार्क्सवाद
और प्रजातंत्रवाद पर लिखी पुस्तकें
और तुम खिलाती रही भिखारियों को,
गायों को और कुतो को रोज रोटी।

मैं सुनता रहा पर्यावरण पर
लंबे-चौड़े भाषण और
तुम पिलाती रही तुलसी को
बड़ को और पीपल को रोज पानी।

मैं चर्चाएं करता रहा
टालस्टाय, रस्किन और
गाँधी के श्रम की महता पर
और तुम करती रही सुबह से
शाम तक घर का सारा काम।

मैं सेमिनारों में सुनाता रहा
पशु-पक्षियों के अधिकारों के बारे में
और तुम रोज सवेरे छत पर
देती रही कबूतरों को, चिड़ियों को
और मोरो को दाना-पानी।

मैं सुनता रहा
उपदेशो और भाषणों को
और तुम रोज पढ़ाती रही
निर्धन बच्चों को
देती रही उन्हें खाना
कपड़े और दवाइयाँ।

तुमने मुझे दिखा दिया
दुनिया कथनी से नहीं
करनी से बदलती है।

काम कर्मठ हाथ करते हैं
थोथले विचारों से
दुनिया नहीं बदलती है।