सोने के मृग के पीछे
दौड़ते-दौड़ते जवानी बीत गई
बुढ़ापा आ गया
जब आँखों से दिखना मन्द हुआ
कानों से सुनना कम हुआ
दांतों का गिरना शुरू हुआ
साँसों का फूलना शुरू हुआ
तब जाकर समझ आया
कि यह सब तो छलावा था।
तब तक एक लम्बी उम्र बीत गई
जीवन की शाम ढल गई
बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया
अब मैं नहीं दौड़ता सोने के मृग पीछे
अब मैं अपनी जड़ों की तरफ देखता हूँ
जो अब खोखली होती जा रही है
जब आँखों से दिखना मन्द हुआ
कानों से सुनना कम हुआ
दांतों का गिरना शुरू हुआ
साँसों का फूलना शुरू हुआ
तब जाकर समझ आया
कि यह सब तो छलावा था।
तब तक एक लम्बी उम्र बीत गई
जीवन की शाम ढल गई
बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया
अब मैं नहीं दौड़ता सोने के मृग पीछे
अब मैं अपनी जड़ों की तरफ देखता हूँ
जो अब खोखली होती जा रही है
न जाने किस आइला-अम्फान में
जीवन की जड़े उखड़ जाएं।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )