Sunday, December 30, 2012

सार-सार को गहि रहै


वृद्ध होने के लिए बालो का
सफ़ेद होना जरुरी नहीं है,
मन में निराशा का संचार
होना ही प्रयाप्त है।

जीवन को इस तरह से
जीवो कि हमारा बुढ़ापा
और बच्चों का यौवन
दोनों की गरिमा बनी रहे।

अभिमान और विनम्रता दोनों
का पिता एक है किन्तु माँ दो है
अभिमान की जननी अहं है
विनम्रता की जननी सदाचार है।

रोता तो आसमा भी है
अपनी जमीन के लिए
मगर हम उसे
बरसात समझ लेते है।

पहाड़ो की चोटियाँ भी
पांवों तले आ सकती है,
लेकिन जरुरी है
पहाड़ो के भूगोल से कहीं ज्यादा
हौंसलो का इतिहास पढ़ा जाए।

आजन्म इच्छाऐ मरती नहीं
चाहत बढती जाती है जीने की ....
फिर मोक्ष कैसा। 

अभिमान,
बुद्धि से पहले पैदा होता।

चाँदनी को चाँदनी भी
कह सकते हो
उसे रात कि गोद में सवेरा
भी कह सकते हो।


(मेरी पढ़ी पुस्तको से कुछ वाक्य,जो मेरे दिल को छूने में सक्षम रहे, शायद आप भी पसंद करे।)


सार-सार को गहि लहै












Thursday, December 27, 2012

मानवता बच जायेगी




आकाश के
दिलकश नजारों को
प्रदुषण ने छीन लिया

रातों की
नींद को ट्रकों की
चिल्लपौं ने छीन लिया

फलों का
स्वाद फर्टिलाईजर 
ने छीन लिया

बच्चों  के
बचपन को होमवर्क
ने छीन लिया

परिवार की
  एकता को महंगाई   
 ने छीन लिया

दादी की
कहानियों को टी वी
 ने छीन लिया

पक्षियों के
कलरव को टावरों
ने छीन लिया

आपसी प्यार को
 अहम् की संकीर्णता
 ने छीन लिया

दुनिया के अमन
चैन को आतंकवाद
 ने छीन लिया

देर सवेर सही
 लेकिन एक दिन
यह बात समझ में आयेगी।

जीतनी जल्दी
समझ में आएगी
मानवता बच जायेगी।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Sunday, December 16, 2012

जीवन की कैसी विडम्बना है ?


                              
कहीं सुख का झरना बह रहा है
कहीं दुखों का पहाड़ टूट रहा है
 कोई विजय का जश्न मना रहा है        
 कोई हार का मातम मना रहा है                           
      जीवन की कैसी विडम्बना है ?

 किसी के घर गीत गाये जा रहे है       
किसी के शोक मनाया जा रहा है 
    कोई मँहगी कार में घूम रहा है                  
   कोई नगें पाँव पैदल चल रहा है                   
       जीवन की कैसी विडम्बना है ?   

     किसी का घर जगमगा रहा है                               
  किसी के यहाँ अन्धेरा छा रहा है     
    कोई ऐ.सी. बँगले में सो रहा है   
   कोई फ़ुटपाथ दिन काट रहा है     
       जीवन की कैसी विडम्बना है ?

   कोई फ़ाइव स्टार में खा रहा है   
   कोई जूठन में खाना ढूँढ रहा है     
     कोई सफलता पर झूम रहा है 
     कोई असफलता पर रो रहा है 
        जीवन की कैसी विडम्बना है ?



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

                                                                       

Friday, November 30, 2012

आयशा



आयशा आज आई आँगन में   
ले अनन्त खुशियाँ जीवन में 
 किलकारी से गूंजा हर कोना    
  चाँद सा मुखड़ा बड़ा सलोना    

   नन्ही परी जब से घर आई 
खुशियाँ दो परिवारो में छाई 
गुनगुन करके वो करती बात   
 फुल सी आयशा बनी सौगात    

नानीजी की गोदी जन्नत बनी  
      नानाजी की मुस्कान खिली      
रुनझुन दादाजी के मन में बसी      
नन्ही कली जैसी पलके खुली   

दादीजी के आँचल में सिमटेगी     
लोरियों की तान में खो जायेगी     
मम्मी- पापा की वो होगी प्यारी     
सब के सपनों की राजदुलारी   

मन की खुशियों को कैसे छुपाऊँ       
 कैसे आयशा  को गोद खिलाऊँ      
गोद खिलाने की चाह बहुत है   
      लेकिन हम तो दूर बहुत है    

सदा प्रभु का आशीर्वाद रहेगा     
खुशियों से भरा जीवन रहेगा   
    चाँद सितारे उम्र लिखेंगे
    गुलसन में अब फुल खिलेंगे।    

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Wednesday, November 21, 2012

मन में बसी है





जीवन के
पैसठवे बसंत में
गांव की यादें आज भी
ताजा  है

पचास साल हो गए
गाँव को छोड़े
लेकिन कल की 
बात लगती है

याद आता है
आज भी गायों का
रम्भाना और बछड़ो का
उछल-कूद मचाना

सज-धज कर पनिहारिनों का
पानी भरने जाना और
पायल का बजना

गडरिये का अलगोजा और
गायों के गले में बन्धी
घंटियों का बजना

सावन की रिमझिम  में
मेहंदी लगे हाथों का
झूले झुलना

गर्मियों में घर आये
मेहमान को छाछ -राबड़ी
पिलाना

गाँव की अनेकों यादें
मन में बसी हैं
मुश्किल है उन्हें भुलाना।



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]




Friday, November 16, 2012

आनन्द और उत्साह





मैं नहीं जानती कि
तुम्हे सुबह के पेपर में
कौन सी खबर चाहिए, 
लेकिन मै जानती हूँ कि
तुम्हे सुबह की चाय में
अदरक जरुर चाहिए।

मैं नहीं जानती कि
देश में बढ़ते घोटाले
कैसे रोके जाने चाहिए,
लेकिन मैं जानती हूँ कि
स्कूल से आने के बाद
बच्चो को क्या चाहिए।

मैं नहीं जानती कि
आरक्षण निति से गरीबो को
कितना लाभ मिलता है,
लेकिन मैं जानती हूँ कि
तुम्हारी माँ को मेरे हाथ का
खाना खाकर आनंद मिलता है।

मैं नहीं जानती कि
बढ़ते राजकोषिये घाटे को
कैसे कम किया जा सकता है,
लेकिन मैं जानती हूँ कि
घर के बजट को कैसे संतुलित
किया जा सकता है।

मैं नही जानती कि अलकायदा 
और तालिबान की धमकी से
अमेरिका की नींद उड़ जाती है,
लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारे
बालो में अंगुलियाँ फेरने से
तुम्हे नींद आ जाती है।



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]















Friday, November 2, 2012

सब फलों का राजा आम


अनेक किस्म के होते आम
लंगड़ा  और बनारसी आम
तोतापुरी और हापुस आम
मद्रासी और सेंदुरिया आम। 

                            रस से भरे दशहरी आम 
                           महके बहुत सफेदा आम 
                             आमों  के है हजारों नाम 
                            कौन नहीं जो खाता आम 

कच्चा  सबसे पहले आता
चटनी और अचार बनाता
खुशबू  इनकी प्यारी होती
इनकी शान  निराली होती।

                            चूस-चूस कर  खाते आम
                            शेक बना कर पीते  आम
                            बड़ा स्वादिस्ट होता आम
                            सबको प्यारा लगता आम।

गर्मियों में आता है आम
मीठा और रसीला  आम
हर दिल को भाता  आम
सब फलों का राजा आम।





Sunday, October 28, 2012

क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?





जब हम गंगा में
माटी के दीपक
प्रवाहित करते और
देखते रहते कि किसका
दीपक आगे निकलता है
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?


जब हम सागर से 
सीपिया चुन-चुन कर 
इकट्ठी करते और
देखते रहते कि किसकी
सीपी से मोती निकलता है
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?


जब हम झील के किनारे बैठे  
बादलो की रिमझिम फुहारों में
भीगते रहते और तुम कहती 
ये पहाड़ कितने अपने लगते हैं
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?
  

जब हम चाँदनी रात में
छत पर सोते और आसमान का
नजारा देखते रहते
टूटते तारों को देख कर तुम कहती
तारों का टूटना मुझे अच्छा नहीं लगता
क्या वह लमहा तुम्हे याद है ?



 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]




Wednesday, October 24, 2012

फाल का मौसम -पिट्सबर्ग





सुबह धना कोहरा
दिन में हलकी बारिश
शाम को गुलाबी ठण्ड
रात में चमचमाते जुगनू

परिधान बदलती धरती 
रंग-बिरंगे पेड़ पौधे
दौड़ते हुए हस्ट-पुस्ट
लडके-लड़कियां 

हरी-भरी वादियाँ
ऊँचे पर्वतों पर
अठखेलियाँ करती
काली घटायें 

मोनोंगैहेला नदी और
ऐलेगनी का संगम स्थल 
ओहियो के उदगम पर    
मनभावन सूर्योदय

फाल के मौसम  में
धरती का स्वर्ग
बन जाता है
पिट्सबर्ग।


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
  

Monday, October 22, 2012

हम किधर जा रहे है ?

आज इन्सान की हँसी
लोप होती जा रही है 
जैसे लोप होती जा रही है
नाना- नानी की कहानियाँ। 

आज इन्सान का प्रेम
लोप होता जा रहा है
जैसे लोप होती जा रही है
चन्दा मामा की कहानियाँ।

आज इन्सान की  करुणा  
लोप होती जा रही है 
जैसे लोप होती जा रही है
परियों की कहानियाँ।

आज इन्सान की शांति
लोप होती जा रही है
जैसे लोप होती जा रही है
राजा-रानी की कहानियाँ।

प्रगतिशील युग की तरफ
जाने के लिए  इस तरह की
सीढियाँ तो नहीं हो सकती
फिर हम किधर जा रहे है ?

    #######


Thursday, October 4, 2012

किसी दिन

सावन का महीना होगा
         गाँव का घर होगा
                मिट्टी के आँगन में
                     तुम्हारी पाजेब की रुनझुन
                                       सुनेंगे किसी दिन 


लहलहाती फसले होंगी
         हवाओं में खुशबू होगी
                  वर्षात में भीगते हुए
                          खेत में साथ-साथ
                                     चलेंगे किसी दिन 


तारों भरी रात होगी
         चाँद की गोद होगी
                  शबनमी रात में
                           तुम्हारी प्रणय राग
                                    सुनेंगे किसी दिन 


कश्मीर की वादियाँ होगी
        केशर की क्यारियाँ होगी
                 कमल खिली झील में
                          साथ बैठ कर सैर
                                   करेंगे किसी दिन


गोधुली बेला होगी
        आरती का समय होगा
                  पास के मंदिर में जाकर
                        भगवान के सामने दीया
                                जलायेगें किसी दिन


खुशबू भरी शाम होगी
         तुम मेरे पास होगी
                जुगनू की कलम से
                       तुम्हारे लिए एक कविता
                                   लिखेंगें किसी दिन।



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

Wednesday, September 19, 2012

मांडवी


तुलसीदासजी ने रामायण में
मांडवी के त्याग और विरह
वेदना का उल्लेख नहीं किया

उन्होंने केवल सीता के त्याग
और लक्ष्मण के भ्रातृ प्रेम का
ही प्रमुखता से वर्णन किया 

मैथली शरण गुप्ता ने भी
साकेत में मांडवी के त्याग
को महत्त्व नहीं दिया

उन्होंने केवल उर्मिला की
विरह वेदना का ही साकेत
में उल्लेख किया

सीता को तो वन में रह कर भी
अपने पति के साथ रहने का
अवसर मिला 

लेकिन मांडवी को तो अयोध्या
में रह कर भी पति के सामीप्य
का सुख नहीं मिला 

भरत चौदह साल तक परिवार
से दूर जंगल में पर्ण कुटी
बना कर अकेले रहे

फिर मांडवी के त्याग को
सीता के त्याग से कमतर
क्यों आंका गया ?

मांडवी की विरह वेदना को
उर्मिला की विरह वेदना से
कमतर क्यों समझा गया ?

एक दिन फिर कोई
तुलसीदास जन्म लेगा
फिर कोई मैथली शरण आयेगा

जो मांडवी के दुःख दर्द को
नए आयाम और
नए अर्थों में लिखेगा।



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





Sunday, September 16, 2012

विसमता



पेट भरते ही पक्षी दाना
छोड़  कर उड़ जाते हैं
वो भविष्य की नहीं सोचते
केवल वर्तमान में जीते हैं  

इंसान वर्तमान में नहीं
भविष्य में जीता है और
आने वाले कल की चिंता
सबसे पहले करता है

इसी कारण पक्षियों में   
आज भी समानता है
और इन्सानों में अमीर
गरीब जैसी विषमता है 

मानव को प्रकृती ने
खुले हाथों से दिया है 
सबके लिए समान
रूप से दिया है 

काश ! हम सब मिलझुल कर
दुनियाँ में रह पाते
दुनिया से इस विषमता
को मिटा पाते।




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]|

Saturday, September 15, 2012

जीवनदानी




हे जीवनदानी !
तुमको सत-सत
नमन 

तुम तो अनेक के
जीवन दाता बन कर 
सदा सदा के लिए
अमर हो गए

तुमने आँखे देकर 
किसी को दृष्टी दी
अपना दिल देकर 
किसी को धड़कने दी 

अपने फेफड़े देकर 
किसी को सांसे दी
गुर्दे देकर किसी को
जीवन की आशाएं दी 

हे महादानी
हे गुप्तदानी

हम सब ऋणी
रहेंगे तुम्हारे 
सदा-सदा के लिए  

जाओ अब तुम 
महाप्रयाण करो
स्वर्ग में निवास करो 

देखो  सभी देवता
तुम्हारे स्वागत
के लिए खड़े हैं

अप्सराऐं
तुम्हारे लिए फूलों की
वर्षा कर रही है 

अलविदा महादानी
अलविदा जीवनदानी।



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Thursday, September 6, 2012

थकने का तुम नाम लेना





चींटी कितनी मेहनत करती
  दाना चुन कर घर में लाती
            ऊपर चढ़ती- निचे गिरती
            थकने का वो नाम न लेती।
       
चूहा कितनी मेहनत करता
जमीन खोद कर घर बनाता
            कितनी मिट्टी बाहर करता
             थकने का वो नाम न लेता।
         
चिड़िया कितनी मेहनत करती
तिनका -तिनका चुन कर लाती
            कितना सुन्दर नीड़ बनाती
             थकने का वो नाम न लेती।

मधुमखी कितनी मेहनत करती
उड़-उड़ कर फूलों से रस लाती
             मीठा-मीठा शहद बनाती
             थकने का वो नाम न लेती।

  बच्चों तुम भी इनसे सीखो
जीवन पथ पर बढ़ना सीखो
        लक्ष्य हमेशा ऊँचा रखना
        थकने का तुम नाम  लेना।

     



Friday, August 31, 2012

पिट्सबर्ग का मौसम





कब सोचा था कि  
अमेरिका के पिट्टसबर्ग में
जाकर रहना पडेगा

भाषा और चाल- चलन
को समझना पडेगा
सर्दी-गर्मी को भी सहना पडेगा 

गर्मियों में होता है यहाँ
पंद्रह घंटों का दिन 
और नौ घंटों की रात

सड़क पर पैदल चलना पड़े तो
गर्मी करदे बेहाल और देखते ही 
देखते बादल और बरसात

फाल के मौसम में पेड़-पौधे 
छोड़ देते पुराना आवरण
और धारण करते नया परिधान

नयी कोपले जब पेड़ो पर
नए रंग में निकलती है
नंदन बन से लगते है बागान

सर्दियों में जब बर्फ गिरती है
चारो ओर उड़ते है बर्फ के फोहे
पूरा वातावरण ठिठुर जाता है

सड़क, मकान और पेड पौधे
सब हिम के धवल कणो से
ढक जाते है

सबसे सुन्दर होता है स्प्रिंग
जब चारों और रंग-बिरंगे
फूल खिलते हैं

पेड़ फलों से लहलहा उठते है
घाटियां और मैदान फूलों से
ढक जाते हैं

धरती पर ऐसा नजारा
बनता है की मन
आनंद से भर जाता है। 



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

Wednesday, August 29, 2012

गणतंत्र दिवस

छब्बीस जनवरी आई 
खुशियों संग यादें लाई
गांव-शहर में गूँजें गान 
मेरा भारत देश महान

नया जोश, नयी उम्मीदे
लेकर प्रति वर्ष आये 
ऐसा पावन रास्ट्र पर्व है 
सबका मन हरसाये

आओ जन -गण-मन गाये
सत्यमेव दोहराये
वीर शहीदों के नारों से
आसमान गुंजायें

अमीर-गरीब का भेद मिटायें
जात-पांत को दूर भगायें
हर हाथ को काम मिले
ऐसा अपना देश बनाये।

मिल कर सभी करे प्रयास
दुनिया में हो इसका नाम
विश्व गुरु हम फिर कहलाये
दुनिया फिर से करे सम्मान।

    ######

Tuesday, August 28, 2012

सुन्दर रूप तिहारो

बालपने मुख माटी खाई                                                                                                                        
मुख में तीनो लोक दिखाया
                
                   सूखे तंदुल चाव से  खाकर
                  बाल सखा का मान बढ़ाया

मीरा का विष अमृत कीनो
द्रोपद  सूत को चिर बढायो
                 
                    ग्वाल-बल संग धेनु चराई
               गोपियन के संग रास रचायो

इंद्र कोप करयो ब्रज ऊपर
अँगुली पर गोवर्धन धारयो
                   
                    पापी कंस को मार गिरायो
                     कपटी कौरव वंस मिटायो

गीता ज्ञान दियो अर्जुन को
  समर भूमि में बने खेवैया
                     
                       कुँज गली में माखन खायो
                          कालिदेह के नाग नथैया

नाना रूप धरे प्रभु जग में
धरुँ ध्यान इस सूरत से
                           
                            इतनो सुन्दर रूप तिहारो
                            अंखियां हटे नहीं मूरत से।  



 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

भीगने का सुख

सुबह हम सब
विक्टोरिया में घूम रहे थे
अचानक आकाश काले
बदलो से ढक गया।

बिजलियाँ चमकने लगी
तेज हवाए चलने लगी
सभी बोले जल्दी चलो
मौसम बदल गया।

बाहर आते -आते
वर्षा शुरू हो गयी
भीगते हुए बाहर निकले
देखा मनोज नहीं आया।

सभी भीगते हुए
मनोज का इन्तजार
करने लगे थोड़ी देर बाद
मनोज भी आ गया।

पूछा- कहाँ रह गए थे
हम सब कब से तुम्हारा
इन्तजार कर रहे है
सब कुछ भीग गया।

वो सहज भाव से बोला-
वो छाता लिए खड़ी  थी
मेरा मन उसके छाते के निचे
भीगने का हो गया।

कनखियों से झांकते
नरेन्द्र जी गुनगुना रहे थे
हम थे वो थी और समां रंगीन
मन भी मचल गया।

गीत गाया तुमने






     मेरी अंधियारी राहों में
ज्योति दीप जलाया तुमने
                     
                     बूँद-बूँद में अमृत भर 
                जीवन आश जगाई तुमने

जीवन के सुख-दुःख में
मेरा साथ निभाया तुमने
                 
                    मेरे लिखे प्रेम गीतों को
                 अपने स्वर में गाया तुमने

   मेरी प्रति छाया बन कर
मुझको अंग लगाया तुमने
                    
                    मेरे जीवन के हर रंग में
                      इंद्रधनुष सजाया तुमने

    मेरे चंचल नयनों में
राधा बन कर आई तुम
                   
                      मेरी जीवन की बगियाँ में
                     सावन बन कर बरसी तुम

नाम भगीरथ रख कर भी
मै  ला न सका  गंगाधारा
                       
                            तुम बनी स्वाती की बूँद
                        लेकर सागर से जल खारा ||




 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

ठांइ-ठौंङ (राजस्थानी कविता )

पंछीड़ा
तू कियां सिंझ्या
ढळया पेली
आय'र बैठ जावै
साग्ये रूखं माथै
सागी डाली माथै 
ठांइ-ठौंङ                     


कांई एनाण-सैनाण है थार कनै
न कदैइ तू मारग भूल 
नीं तू कदैही भटकै
चाहै बिरखा बरसो
चाहै  बादळा  गरजो
तू  पूग ही ज्यावे पाछो
ठांइ-ठौंङ                   


म्हें तनै देख;र 
लगाई ही पांख्या
उड़ग्यो आकासा मायं 
छोड़ गाँव,घर,आंगणो
पण आज तांइ
पाछो कोनी पूग सक्यो
ठांइ-ठौंङ
                  

आज भी चेतै आवै 
गाँव का खेत
ताजी पुन रा लहरका
अगुण कूवै रो मीठो पाणी 
आज भी फङफङावै पांख्या
पुगण ताई ठांइ-ठौंङ                         
                            

पंछीड़ा तू आय
बैठ म्हारै कनै
बताय म्हने भी रसतो
कियांई पाछो पूग जावूँ
गाँव के घर में ठांइ-ठौंङ।  



[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Monday, August 27, 2012

याद घणेरी आवे म्हाने (राजस्थानी कविता )




   

     याद घणेरी आवै म्हाने
           परदेशा में देश री
  भर बाटको छाछ राबड़ी
          दोपारी में पिवण री।

  दूध, दही ओ कांदा रोटी
      घनै चाव से खावण री
   खीर,चूरमो अर खीचड़ो
 रुच-रुच भोग लगावण री।

     याद घणेरी आवै  म्हाने   
           परदेशा में देश री। 

काचर, बोर, काकड़ी मीठी
        मीठा गटक मतीरा री
      बाजारी रा मीठा मोरण
        चौमासा में खावण री।
 
     याद घणेरी आवै  म्हाने
            परदेशा में देश री।

  चौमासा म्हें बिरखा बरसे  
        छमछम नाचै मोर री 
  मीठे स्वर तिजणियाँ गावै
        मीसरी मघरा गीत री।

    याद घणेरी आवै  म्हाने
           परदेशा में देश री।

धान मोकळो खेता निपजे
        भरी भकारयां रैवे री
 धीणो हुवै मोकळो घर में
    माखण भरिया माठ री।

   याद घणेरी आवै  म्हाने
          परदेशा में देश री।

  ऊँचा-ऊँचा धोरा ऊपर
       चमकै सोनल रेत री
 रात चांदनी में अलगोजो
           टैरे मूमल गीत री।

   याद घणेरी आवै  म्हाने
          परदेशा में देश री।

 साँझ पड्या डांगर रंभाव
    रीड़क काली भैस्यां री
      गोट उठै धुंवै रा उँचा
        टाबर रंगत मांड री।
   
    याद घणेरी आवै  म्हाने
           परदेशा में देश री
  भर बाटको छाछ राबड़ी
          दोपारी में पिवण री।



अमर रहेगा तुम्हारा नाम






चाँद संग चांदनी
दीया संग बाती
वैसे ही जुड़ा है
मेरे संग तुम्हारा नाम

मैंने अपनी कविता के
हर छंद में लिखा है
तुम्हारा नाम

कहते हैं
कवि मर जाता है
लेकिन कविता
अमर रहती है

लिखे गए शब्द 
पीढ़ियों यात्रा करने में
सक्षम होते हैं

मेरे ये गीत कालांतर में
जीवित रहेंगे और
इनके साथ जुड़ा रहेगा
तुम्हारा नाम

आनेवाली पीढियां
प्रेम से पढेगी
मेरे गीतों के साथ
तुम्हारा नाम

और इस तरह
युग-युगान्तर तक
अमर रहेगा तुम्हारा नाम।


Friday, August 24, 2012

गांव री लुगायाँ (राजस्थानी कविता )



भौरान भोर उठती
पीसणो   पीसती
खीचड़ो   कूटती
रोट्या    पोंवती
गांव री लुगायाँ

पूसपालो ल्यावंती
गायाँ  ने  नीरती 
दूध    ने   दूंवती 
बिलोवणो  करती
गांव री लुगायाँ 

बुहारी   काढ़ती
बरतन   मांजती
कपड़ा   धोंवती
टाबर बिलमावती
गांव री लुगायाँ 

खेत     जावंती
निनाण करांवती
सीट्या तुड़ावंती
खलो  कढावंती
गांव री लुगायाँ 

पाणी ल्यांवती
गोबर  थापती
माथो   बांवती
मेहंदी  मांडती
गांव री लुगायाँ 

बरत    करती
भजन  गांवती
पीपल  सींचती
काणी  सुणती 
गांव री लुगायाँ

तातो जिमावती
लुखी सूखी खांवती
सगळौ काम
सळटा "र सोंवती
गांव री लुगायाँ।


[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]




झूम रही है बाजरियाँ (राजस्थानी कविता )




सोनल वरणा धोरां ऊपर
मूँग, मोठ लहरावै रे
मोरण, सीटा और मतीरा
मरवण रे मन भावै रे
रे देखो खेता में झूम रही है बाजरियाँ

सावण बरसे भादवो
मुलके मरुधर माटी रे
बणठण चाली तीजणया
हाथी हौदे तीज रे
रे देखो बागा में झूल रही है कामणियाँ

होली आवे धूम मचावै
गूंजै फाग धमाळ रे
चँग बजावे घीनड़  घाले
उड़े रंग गुलाल रे
रे देखो होली में नाच रही है फागणियाँ

सरवर बौले सुवटा
बागां बोलै मोर रे
पणघट चाली गौरड़ी
कर सोलह सिंणगार रे
रे देखो पणघट पर बाज रही है पायलियाँ

बिरखा रे आवण री बेल्यां
चिड़ी नहावै रेत रे
आज पावणों आवलो
संदेशो देव काग रे
रे देखो मेड़ी पर बोल रियो है कागलियो।



[ यह कविता "एक नया सफर" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]






कृष्णा और बरसात




मैंने  कृष्णा को
भीगा हुवा देख कर पूछा
बरसात में छत पर
क्यों गए थे  ?

कृष्णा बाल शुलभ
नज़ाकत से बोला
दादाजी परोपकार का
काम करने गया था 

मैंने आश्चर्य से पूछा 
भला बरसात में छत पर
कौन सा परोपकार का काम
करने गए थे  ?

जब बरसात में कोई भी
नहीं भीगता तो स्वयं बरसात को
भीगना पड़ता है यही तो कल आपने
कहानी में बताया था 

कृष्णा आँखे मटकाकर बोला
अगर मै छत पर जाकर
नहीं भीगता तो स्वयं बरसात को
भीगना पड़ता

इसलिए मै छत पर भीगने चला गया
अब कम से कम  बरसात को
भीगना तो नहीं पड़ेगा
दादाजी। 

[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]


गंगा




भगीरथ के  तप प्रताप से
तारण हार बन आई गंगा
                 
                   शिव की जटाओ  में  उतर 
                    कैलाश से निचे आई गंगा

हिम शिखरों को लगा अंग  
बल खाती हुई आई  गंगा 
                   
                    नदी नालो को लेकर  संग
                    देश की नियंता बनी  गंगा

  अपने पथ को हरित बना
  गावों को समृद्ध करे गंगा
                   
                     पान करा अमृत  सा जल
                     सागर से जाय मिले गंगा 

घाटो  पर सुन्दर  तीर्थ बने  
संतो की शरण स्थली गंगा
               
                  जीवन दायिनी मोक्ष दायिनी 
                      भव सागर पार करे  गंगा
  
अन्तिम साँस थमे तट पर
बैकुंठ की सीढ़ी बने गंगा   
                       
                    दुखियों के दुःख को दूर करे 
                          जीवन  के पाप हरे गंगा।



 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

जीवन रथ की वल्गा

चौबीसों घंटे ओक्सीजन
       मास्क लगाए रखना
          औषधियों के डिब्बो से
             हर समय घिरे रहना 

ओक्सिमिटर से सेचुरेशन
     लेवल चेक करते रहना
         कन्सेंनट्रेटर और सिलेंडर
              को ऐडजस्ट करते रहना 

दिनचर्या के सभी काम
     प्रतिदिन स्वयं करना
        खाना बनाना,घुमना, योग    
            और प्राणायाम सभी करना                                                                   

मै आश्चर्य से देखता रहता हूँ
     तुम्हारा ध्येर्य और विस्वास 
            सभी करते है तुम्हारी प्रशंसा 
                देख तुम्हारी हिम्मत और साहस    

लगता है  तुम्हारे जीवन का
     झरना पाताल लोक से बहता है
           तुम्हारे जीवन रथ की वल्गा
               स्वयं प्रभु हाथ में थामे रखता है ।




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
  

Thursday, August 23, 2012

बूम चीक बूम चीक

                                               

         


  बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे
गाड़ी दौड़ी जाए रे
     बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे 

गाँवौ को ज़ोडे शहरों से
शहरों को नगरों से जोड़े रे
भेद-भाव नही इसके मन में  
सबको साथ ले जाए रे 
बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे 


हर स्टेशन पर रुकती जाए
मंज़िल तक पहुँचाए रे 
हरा रंग का सिग्नल देखे 
सरपट भागी जाए रे 
बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे

घाटी पर्वत नदियाँ झरने 
सबको ये दिखलाए रे
सीटी बजाए शोर मचाए
गाड़ी भागी जाए रे 
    बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे

काला-गोरा मोटा-पतला
सबको ये बैठाए रे
बच्चों के मन को भाए
नानी घर ले जाए रे
बूम चीक बूम चीक बूम चीक रे।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

दादाजी का आशीर्वाद






राहुल - अभिषेक

सफलता का पहला  स्वाद
तुम दोनों ने आज चखा
हम सब को तुम पर गर्व है

यह तो तुम्हारी पहली सीढी है 
जिस पर तुमने पाँव रखा है
मंज़िल तो अभी बहुत दूर है

अभी तो तुम्हें समुद्र की
अतुल गहराई से
मोती चुन कर लाने है

नीले आसमान मे पंछी की
तरह उड़ कर आकाश
की उँचाई को मापना है

जिंदगी के रंगीन
सपनों को साकार करना है
मेहनत और परिश्रम के बल
बहुत दूर तलक जाना है

हमारा आशीर्वाद
सदा तुम्हारे साथ रहेगा
तुम पर प्रभु कृपा बरसेगी
आँखों से हर पल दया रहेगी 

तुम्हारे दिल में प्यार की
शीतलता छाई रहेगी
दुनिया तुम्हारा नाम
सम्मान के साथ लेगी

तुम्हारी वाणी मे
सत्य का ओज बसेगा
तुम्हारे दिल मे हर पल
परोपकार का भाव जगेगा।

ढेर सारी शुभ कामनाओं के साथ

तुम्हारे दादाजी



गाँव की सर्दी






सर्दियों में जब कभी भी
गाँव की तरफ जाता
गाँव का भोगा बचपन सपने
जैसा सामने आ जाता


बचपन के वो दिन जब
जाड़े  की सर्दी में ठिठुरते
हम सब बच्चे अल सुबह
बड़ी माँ के घर चले जाते


सूरज के सामने वाले
चबूतरे पर कम्बल और
रजाई में दुबक कर सभी
एक साथ बैठ जाते


"सुरजी बाबा सुरजी बाबा
तावड़ो ही काढ़ थारा
छोरा-छोरी सींया ही मरै"#
की जोर-जोर से रट लगाते


सूरज की पहली किरण
ज्योंही चबूतरे की दिवाल
पर उतरती हम सभी के 
चहरे खिल उठते


बड़ी माँ ठंडी मिस्सी रोटी 
पर तेल लगा गरम करती
और हम सबको गरम-गरम
खाने को देती।


अब न वो दिन रहे
न तेल लगी रोटी रही
न देने वाली बड़ी माँ रही
लेकिन यादेँ है आज भी ताज़ी।


# हे सूर्य भगवान धूप निकालो, तुम्हारे बच्चे सर्दी से मर रहे हैं।


[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]



Wednesday, August 22, 2012

जुम्मन की स्त्री



आज का युग
विज्ञान और प्रोद्योगिकी में
बहुत आगे बढ़ गया है

अन्तरिक्ष में स्टेशन बन गए हैं
जहाँ वैज्ञानिक अन्य ग्रहों पर
जीवन  की खोज करते हैं

इंटरनेट और मोबाइल ने
दूर संचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी
पूरी दुनिया को एक साथ जुड़ गई है

मंगल ग्रह पर पानी को खोजा जा रहा है
कृत्रिम बादलो से बरसात की जा रही है
समुद्र से तेल निकाला जा रहा है

द्रुतगामी वायुयान बन गए हैं
फूलों में मन चाहे रंग भर दिए गए हैं
शरीर के अंगों का प्रत्यारोपण किया जा रहा है

लेकिन इन सबसे जुम्मन की स्त्री को क्या लेना-देना
उसे तो रोज सड़क के किनारे बैठ कर
भरी दुपहरी में पत्थर ही तोड़ना है

और ठेकेदार की बुरी नजर से बचते हुए
अपने बच्चे को दूध पिलाने के बहाने
किसी पेड़ की छांव में सुख ढुंढना है।




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, August 21, 2012

पिट्सबर्ग





पहाड़ों में बसा सुन्दर शहर
तीन नदियों का संगम स्थल
हरे भरे खेत, गोल्फ के मैदान
एवर ग्रीन सिटी - पिट्सबर्ग 

जंगलो में ट्रेकिंग, बाइकिंग ,कैम्पिंग
नदियों में बोटिंग, राफ्टिंग, रोविंग   
केसीनो,बैले थियेटर,कॉफ़ी हाउस
सिटी ऑफ़ इंटरटेनमेंट - पिट्सबर्ग 

सड़कों पर दौड़ती रंगीन गाड़ियाँ
पुटपाथों पर दौड़ते लड़के-लड़कियां
सर्राटे से भागती हुई साईकलें 
रनिंग सिटी - पिट्सबर्ग 

घरों के सामने सुन्दर बगीचे
रंग -बिरंगे खुशबू वाले फूल
चेरी, ऐपरिकोट,स्ट्राबेरी के पेड़
सिटी ऑफ़ फ्लोवर्स- पिट्सबर्ग 

हस्ट-पुष्ट और स्वस्थ नागरिक
चहरों  पर हँसी और मुस्कराहट
परिश्रमी, दयालु  और परोपकारी   
ऐनरजेटिक  सिटी - पिट्सबर्ग    

फुटबाल, होकी, टेनिस के खिलाड़ी  
बेसबाल और गोल्फ के शोकीन
पाईरेट्स-स्टीलर्स-पेंगुइन के मुकाबले
सिटी ऑफ़ चेम्पियनस - पिट्सबर्ग

मेडीसिन और ट्रांसप्लांट सर्जरी में
विश्व में विख्यात यु. पी. ऍम. सी.
टेकनोलोजी में अग्रणी सी. ऍम. यु.
आठ युनिवर्सिटीज का शहर - पिट्सबर्ग

पहाड़ों पर अनेक किस्म के पेड़  
फूलों से लदी रंग बिरंगी झाड़ियाँ
फाल में नंदन कानन का सौन्दर्य
अमेरिका का मिनी स्वर्ग - पिट्सबर्ग

आकाश में चांदनी बिखेरता चाँद 
तारों से झिलमिलाती सुनहरी रातें
चारो ओर चमचमाते हुए जुगनू
प्राइड ऑफ अमेरिका  - पिट्सबर्ग ।



  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

Monday, August 20, 2012

पुस्तकें





पुस्तको की भी एक
अलग दुनिया होती है
एक अलग पहचान होती है

जैसे कुछ पुस्तकें ड्राइंग रूम
की शोभा होती है जो हमेशा
ड्राइंग रूम में ही सजी रहती है

कुछ पुस्तकें सजी-संवरी होती ह
जिन्हें देख कर एक बार हाथ में
उठाने का मन करता है

कुछ पुस्तकें नीरस होती है
जो केवल सूचनाओं से भरी रहती है
जरुरत के समय हम उन्हें पढ़ते हैं

कुछ पुस्तकें दुःख-दर्द की गाथाओं से
भरी रहती है जिन्हें पढ़ कर हम
दुःख के सागर में डूब जाते है

कुछ पुस्तकें कब आई और कब
गई  पता भी नहीं चलता
केवल नाम मिलता है

कुछ पुस्तकें शिक्षाप्रद होती है
जिन्हें पढ़ कर ज्ञान मिलता है
जीवन को एक नयी राह मिलती है

कुछ पुस्तकें भाग्यशाली होती हैं
जिन्हें विनम्रता के साथ खोला
और आदर के साथ पढ़ा जाता है

कुछ पुस्तकें बड़ी बदनसीब होती है
जो केवल रटने के काम आती है
गुलाब के मुरझाये फुल इन्ही में मिलते है

कुछ पुस्तकों के मधुर शब्द
हमारे होठों पर बैठ जाते है और
हम उन्हें आनंद से गुनगुनाते है

कुछ पुस्तकें अँधेरे के गर्त में पड़ी रहती है
जिन्हें कभी कोई अन्वेषक ही
ढूंढ़ कर बाहर निकालता है

कुछ पुस्तकें महान लेखको के द्वारा
लिखी होती है जिन्हें उत्सुकता और
सम्मान के साथ पढ़ा जाता है

कुछ पुस्तकें कालजयी होती है
जो बार-बार संवर्धित,संशोधित होकर
नए संस्करण में छप कर आती  है।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
















Sunday, August 19, 2012

मरुधर (राजस्थानी कविता )





नावं सुण्या सुख उपजै
हिवड़े हरख अपार 
इस्ये  मरुधर देश में
घणी करे मनवार   


मरुधर सावण सौंवणो
बरस मुसळधार 
मरवण ऊबी खेत में
गावै राग मल्हार


सोनल वरणा धोरिया
मीसरी मघरा बैर
बाजरी री सौरभ गमकै
ले-ले मरुधर ल्हैर 


पल में निकले तावड़ो 
पल में ठंडी छांह 
इस्या मरुधर देश में
खेजड़ल्या री छांह 


मरुधर साँझ सुहावणी
बाजै झीणी बाळ 
टाबर घैरै बाछड़ा 
गायां लार गुंवाल 


रिमझिम बरसे भादवो
छतरी ताणै मौर 
मरुधर म्हारो सोवणों
सगला रो सिरमौर 


छैला झुमै फाग में
गूंजे राग धमाल 
घूमर घालै गोरड्या
उड़े रंग गुलाल। 




[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]







अपना बनाना





मै तुम्हारे
नाम का उच्चारण
दुनिया की प्रत्येक भाषा
में करना चाहता हूँ

मै तुम्हारे
एक-एक रोम में
अपने प्यार को मुदित
करना चाहता हूँ

मै तुम्हारे
करुणा, प्रेम और त्याग का
पर्याय दुनियां की प्रत्येक भाषा में
ढूढंना चाहता हूँ

मै तुम्हें उन
हज़ारो नामों से पुकारना चाहता हूँ
जन्म जन्मान्तर के लिए अपना
बनाना चाहता हूँ

मै फूल की
हर पंखुड़ी पर तुम्हारा नाम
अपने हाथों से लिखना
चाहता हूँ

मै फूल की
खुशबू के साथ-साथ
तुम्हारा नाम पुरी दुनिया में
फैलाना चाहता हूँ।



 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]




Friday, August 17, 2012

असीम आनंद






माँ की गोद में सोया
बच्चा टुकुर-टुकुर
माँ की तरफ
देख रहा है

माँ बच्चे के
मुख को देख-देख
मंद-मंद मुस्करा
रही है

माँ को देख
बच्चा भी हँसता है
एक फैनिल हँसी

बच्चे को
हँसता देख माँ के
चहरे पर भी आजाती है
एक प्यारी सी हँसी

बच्चे की आँख की चमक
माँ के चहरे की दमक
बता रही है दोनों ओर
असीम आनंद की अनुभूति।














कावड़िये






सावन का महीना लगते ही
सड़को पर दौड़े कावड़िये
रंग -बिरंगे  कपड़े  पहने
बम  बम  बोले कावड़िये 

फुल  और  मालाओं  से
कावड़ सजाते कावड़िये
कलशो में भर गंगा जल
पूजा  करवाते  कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये

कन्धों पर रख कावड़ को
मस्ती में चलते कावड़िये
मीलो पैदल चल -चल कर
शिव पूजन करते कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये

मार्ग  के कंकर-पत्थर  से
नहीं घबराते ये कावड़िये
खून बहे चाहे जितना
नहीं थकते ये कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये

लगा   भोग   शंकर    के
भांग  घोटते    कावड़िये
खाते-पीते  मस्ती करते
चलते  जाते   कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये

सुन्दर-सुन्दर शिविरों में
थकान मिटाते कावड़िये
हलवा-पुड़ी,खीर-जलेबी
भोग  लगाते   कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये 

अबकी सावन गंगा को
स्वछ  करेंगे  कावड़िये
अगले सावन हर-हर गंगे
फिर से बोलेंगे कावड़िये
बम बम बोले कावड़िये।


[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]












वो पीता है, मैं नहीं








मैंने भानु प्रताप से कहा -
इतनी मत पिया कर
ये मौत की सहेली है
इससे दूर रहा कर

वह बोला -
मै कहाँ ज्यादा पीता हूँ
मैं तो सिर्फ एक पेग लेता हूँ
और दिन भर मस्त रहता हूँ

मैंने आश्चर्य से पूछा -
फिर क्यों रोज एक बोतल
खरीद कर लाते हो ?

वह एक दार्शनिक
अंदाज में बोला -
मैं तुमको समझाता हूँ
असली माजरा बताता हूँ

मैं एक पेग पीने के बाद
"मैं " मैं नहीं रहता
मैं "वो" बन जाता हूँ

अब मैं नहीं पीता
वो पीता है और
मैं उसे पिलाता हूँ

आखिर पिलाते-पिलाते 
बोतल खाली हो जाती है 
और मैं भी लुढ़क जाता हूँ।  



( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, August 16, 2012

माँ और बाबूजी

बाबूजी
जब खाना खाने बैठते तब माँ
आसन बिछा कर पाटा लगा देती

बगल में
एक लोटा और गिलास
पानी का भर कर रख देती

बाबूजी
लोटे से हाथ धोकर
शांत भाव से आसन पर बैठ जाते

माँ
थाली में खाना परोस कर
बगल में पंखा झलने बैठ जाती

बाबूजी
मनुहार के साथ खाना खाते हुए
माँ को घर-बाहर की बाते बताते

बाबूजी
खाना खाने के बाद जब  हाथ पौछते
माँ गमछा पकड़ा देती

माँ
जब जूठी थाली उठाती तो उसके चेहरे
पर एक संतोष का भाव होता

माँ
ही समझ पाती उस आनंद को
दुसरा नहीं समझ पाता

आज
भाग दौड़ भरी जिंदगी में कोई इस
आनंद की कल्पना भी नहीं कर सकता।


[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]









दुःख और दर्द






अपने दुःख और दर्द को
कम करना है तो दूसरों के
दुःख और दर्द को देखो

एक दिन किसी सरकारी
अस्पताल के जनरल वार्ड को
जाकर देखो

तब समझोगे दुःख क्या होता है
कैसे लोग दुःख-दर्द को साहस
और धीरज से झेलते है

उन तंग गलियों को जाकर देखो
जहाँ ठन्डे चूल्हे पर रखी खाली पतीली
से बच्चो को बहलाया जाता है

जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर
माँ के सीने से दूध के लिए तब
समझोगे अभाव क्या होता है

जीवन में दुःख तो सभी को होता है
किसी को कम तो किसी को
ज्यादा झेलना पड़ता है

हमें अपने दुःख-दर्द और अभाव  का
रोना छोड़ कर सामर्थ्यानुसार
दूसरों का भला करना चाहिए

जरूरतमंद की सहायता और
बीमार का इलाज कराना चाहिए
दूसरों के दुखों को बांटना चाहिए।




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]

समन्दर के किनारे






समन्दर के किनारे
देखा लहरें आ रही थी 
किनारे से टकरा कर जा रही थी
जीवन में दुःख-सुख भी तो
इसी तरह से आते-जाते हैं

समन्दर के किनारे
पड़ी रेत को मुट्ठी में उठाया
देखा कण-कण निकलता जा रहा है
जीवन भी तो इसी तरह क्षण-क्षण
बीतता जा रहा है। 

समन्दर के किनारे
पड़ी सीपियों को देखा जो
अपना अनमोल मोती खो चुकी थी
मानव जीवन भी तो अनमोल है जिसे
हम व्येर्थ में खोते जा रहे हैं 


किनारे से टकराती 
पीछे से लहर की आवाज आई
मैं जीवन की बाजी जीत गयी
समन्दर बोला-अब लौटजा 
तुम्हारी अवधि बीत गयी ।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Monday, August 13, 2012

प्रेसबी की नर्स "रोज "

प्रेसबी की नर्स  "रोज "
मनीष से  बाते कर रही थी
बगल मे खड़ा डॉक्टर
काफ़ी देर से  सुन रहा था

उसने रोज से पूछा -
क्या तुम इसे जानती हो ?
रोज तपाक से बोली -हाँ
यह मेरा छोटा भाई है

मै थोड़ी ज्यादा गौरी हुँ
ये थोड़ा कम गौरा है
लेकिन मै भी अब
इसकी तरह होने लग गयी हूँ

थोड़े दिनो मे
हम दोनो  का रंग
एक जैसा हो जाएगा
फिर तुम नही पूछोगे

और उसी के साथ "रोज"का
चिर परिचित हँसी का
एक जोरदार ठहाका
डॉक्टर झेंप कर हँसने लगा। 

प्यारी नर्स "रोज़"

युनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्टसबर्ग
'प्रेसवीटेरियन हॉस्पिटल'
हार्ट कैथ डिपार्टमेन्ट मे
काम करने वाली नर्स 'रोज़'

गुलाब की तरह खिलनेवाली
खिलखिला कर हँसने वाली
डिपार्टमेंट में सबकी प्यारी
जिन्दादिल नर्स 'रोज़'

उसकी हँसी का ठहाका
गूँजता पूरे डिपार्टमेंट में 
जब भी हँसती दिल खोल
कर हँसती 'रोज़'

हरसिंगार फूल की तरह
झड़ती उसकी हँसी
सबका मन मोह लेती 'रोज़'

हँसते दूसरे भी
लेकिन वो हँसते कम
मुस्कराते ज़्यादा
ठहाका लगाती सिर्फ़ 'रोज़'

वह जब भी हँसती
बेड पर सोया बीमार भी
दर्द को भूल, मुस्करा उठता
सब के दिलों में बसी रहती
प्यारी नर्स  'रोज़'। 


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
 

 


कलैंडर नहीं जीवन बदलो





प्रत्येक महीने हम
बदलते रहते है कलैन्डर
लेकिन नही बदलते जीवन

तारीख़े लाल घेरों
में ही क़ैद रह जाती है
मुट्ठी से बालू  की तरह
खिसक जाता है जीवन

न जाने कितनी
पूनम की रातें
दरवाजे की सांकल
बजा कर ही लौट जाती है          

पूरब की बंसन्ती हवाऐं
बिना मन को झकझोङे
ही चली जाती है

चैत की औस-भीगी सुबह
हमारी अंगड़ाई से पहले ही
निकल जाती है

आजकल तो धूप भी
बंद दरवाजों को  देख कर
सीढ़ियों से ही लौट जाती है

जीवन का आनन्द लेना है 
तो प्रकृति से जुड़ना होगा
किसी नौका में बैठ कर 
नदी
की सैर पर जाना होगा 

पहाड़ की ऊँची 
चोटी पर चढ़ना होगा
बादलो की कोख से निकलते

सूर्योदय को देखना होगा 

फुलो पर मंडराते भँवरों
का गुंजन सुनना होगा 
डूबते हुए सूर्यास्त का
नजारा देखना होगा

यदि जीवन का सच्चा आनंद लेना है 
तो कलैण्डर नहीं जीवन को
बदलना होगा।





[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]