Tuesday, December 30, 2014

मीठी स्मृतियाँ

एक धरोहर के रूप में
अंतहीन यादें हैं तुम्हारी
मेरे पास  

तुम्हारे जाने के बाद भी 
वो छाई हुई है
मेरे अंतश मन के पास 

समुद्र के किनारे सीपियां चुनना 
गंगा के घाट पर दीपक तैराना 

झाड़ियों से मीठे बैर तोड़ना
खेतो में मोर का नाच देखना

घूँघट की आड़ में
तिरछी नज़रों से झाँकना

होली पर रंग लगाना
दीवाली में दीपक जलाना

गर्मी की रातों में छत पर सोना
दबे पांव आकर आँखें बंद करना

  न जाने कितनी यादें हैं 
कहाँ से शुरु करुं 
और कहाँ अंत करुं

रिमझिम फुहारों सी है
तुम्हारी यादें
जब भी मुझे छूती है
जेठ की गर्मी में भी
   सावन सा सुख देती है।





  [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]








कोहरा

कोहरे ने कोहराम मचाया
सर्दी को संग लेकर आया

घर-बाहर में ढाया कहर
सबकी सिमटी आज नजर

ओढ़  रजाई  सूरज  सोया
तापमान  निचे  गिर आया

मुँह से भाप निकलती ऐसे
धुँवा  छोड़ता  ईंजन  जैसे

कोहरा अपना रंग दीखाता
ठण्ड से दाँत बजाते बाजा

नहीं दीखती अब पगडंडी
कैसे  खोले घर की कुण्डी।


Sunday, December 28, 2014

गांव की औरत

गांव की औरत
शहरी औरतों की तरह
होटलों में खाना पसंद नहीं करती है

वो अपने घर में बनाया
खाना खा कर ज्यादा संतुष्टी का
अनुभव करती है

वो शहरी औरतों की तरह
बचे खाने को डस्टबीन में
नहीं फेंकती है

वो बची दाल से परांठे
और खट्टे दही से कढ़ी
बना लेती है

वो शहरी औरतों की तरह
अपनी लम्बी काली चोटी को
भी नहीं कटवाती है

वो अपनी भौहें नहीं नुचवाती
क्रीम पावडर से चहरे को भी
नहीं पुतवाती है

फिर भी वो शहर की
किसी कमसिन औरत से
कमतर नहीं लगाती है।  









Friday, December 26, 2014

हमारे जीवन का सफर

हमने जीवन में
कईं कैलेण्डर बदल लिए
कईं नई डायरियाँ भी आई

जीवन में मौसम भी
बदलते रहे
कभी गर्मियाँ तो
कभी सर्दियाँ भी आई

कहने के लिए
हम जीवन जीते रहे

लेकिन असल में हम
केवल दिन काटते रहे

अगर असली जीवन
जिया होता तो हम
घर से बाहर निकलते

बिना किसी पर्व के
अनजाने हाथों में
कुछ उपहार रख आते

देखते अचानक
उन अनजाने चेहरों पर
आई ख़ुशी की लहर

तब समझ में आता कि
हाँ ! आज सफल हुवा है
हमारे जीवन का सफर।


Friday, December 19, 2014

प्रिय कुछ तो मुझको कहती

    देवदूत उतरा अम्बर से   
कांप उठा अनजाने डर से  
     तन्हा दिल मेरा घबराया    
        छाई उदासी मन में 
                                         
         मेरे अंतर्मन की पीड़ा, झर-झर कर नयनों से बहती                                               
                                     प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                         

देख तुम्हारी नश्वर देह को
अवसाद निराशा छाई सब को       
     मेरे मन के उपर छाया  
          अंधकार पल भर में   
                                       
  मुझको दिख रही थी आज, अपनी प्यारी दुनिया ढहती                                           
                                     प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                       

      मधुऋतु में पतझड़ छाया     
  रोम-रोम मेरा अकुलाया
     तन्हाई का जीवन पाया
           जीवन के झांझर में 

एक नजर मुझे देख कर, कुछ अपने मन की कह जाती                                        \
                                                            प्रिय कुछ तो मुझको कहती।                                                                          


 [ यह कविता "कुछ अनकहीं ***" में छप गई है।]


Sunday, December 14, 2014

कुछ मुक्तक

मौसम ने जो करवट बदली ठंडी आई
तुम्हारी ढ़ेरों मधुर यादें दिल में समाई
पचास शरद ऋतुऐं संग - संग बिताई
आज तुम्हारी गर्म साँसों की याद आई।

**********************

दिल तुम्हारे संग धड़कना चाहता है
मन फिर तुमसे मिलना चाहता है
तुम्हारे बिना आज तलक जी रहा हूँ
यह मेरा नहीं इन साँसों का गुनाह है।

********************

दिन रात तुम्हारा इन्तजार रहता है
तुम फिर मिलोगी यह मन कहता है
तुम चली गयी यह मन नहीं मानता
आज भी एक विश्वास दिल में रहता है।
**************************

तुम मेरी जिंदगी में आई वो प्यार था
तुम मेरे ख़्वाबों में समाई वो प्यार था
तुमने मेरा जीवन संवारा वो प्यार था
तुम छोड़ गई, लगता सब ख़्वाब था।

Saturday, December 13, 2014

गर्म कपड़े

जैसे ही जाड़े ने दस्तक दी
बाहर निकल आए गर्म कपड़ें,
तुम्हारी यादें कपूर बन फ़ैली
साथ निकले तुम्हारे जो कपड़े।

प्यार भरी यादें दिल में मचली
बाहर निकले संग-संग कपड़े,
वो ठंडी रातें और प्यारी शरारते
याद दिला रहें ये गर्म कपड़े।

यादों में समाई वो गर्म साँसें
जैसे ही निकले संदूक से कपड़े,
भूलाना चाहूँ तो भी कैसे भुलाऊँ
मखमली यादें संग लाए कपड़े।


Monday, December 1, 2014

यह आप कहते हैं

हमने साथ में जीने मरने की कसमें खाई थी                          
 किसने  साथ निभाया है, यह आप कहते हैं।                                                          
                                                              
 मेरी जिंदगी एक, ठहरा हुवा पल रह गई है                  
                       जीवन कभी नहीं ठहरा, यह आप कहते हैं।                                        

वो फिर से मिलने का वादा, कर के ही चली जाती                                                                                         
  जाने वाले लौट कर नहीं आते, यह आप कहते हैं।                                                                                         

            भरी बहारों में, मेरा गुलसन वीरान हो गया                               
         पतझड़ भी आता है,यह आप कहते हैं।                          

 सूरत तो सूरत, उसका तो नाम भी प्यारा था                        
चली गई उसे भूल जाओ, यह आप  कहते हैं।                                                  
             
           कब सोचा था, सुहाने सपने पल में मिट जायेंगें                        
  धूप-छाँव का खेल है जिंदगी, यह आप कहते हैं।                 

                
 [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]




             
                            




                         


Friday, November 28, 2014

थारी ओळूं (राजस्थानी कविता)


थारी ओळूं
ओज्युं भूली कोनी
म्हारे तांई पुगण रो मारग

ओळूं रे सागै
चालै है आंख्यां रा आंसू
नितरे मारग

आज ताईं
संचनण उबी है
हिवड़ा में थारी छिब

आँख्या बंद कर
झांकता ही याद आवै
थारी उणियारे री छिब

थारी बातां
अर मुंडै री मुळक
आज भी आवै है याद

मन में
आज भी उठै है हूंक
जद-जद करूँ तनै याद

तू तो चली गई
दुनियादारी सूं होय
पूरी मुगत

पण म्हैं आज भी
थारै बिना एकलो
रियो हूँ भुगत।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]




Thursday, November 27, 2014

गीत प्यार रा गांवाला (राजस्थानी कविता)




सदभाव बढ़ावां आपस रो, हेत-प्रेम से रेवांला
धुप खिले हर आंगण मं,  ऐसो सूरज ल्यावांला।

                                 सगळा धरमा ने गले लगा, गीत हेत रा गांवाला
                                विश्व बन्धुत्व फैलावाला, भारत रो मान बढ़ावाला।

                     
साधू-संता री धरती पर, धर्म-ध्वजा  फैरावांला     
शुर-वीरां री धरती पर, वीरां रो मान बढ़ावांला। 
                               
                                    गांव-गांव, ढाणी-ढाणी, आखर अलख जगावांल
                                    साफ़ सफाई राखाळा, धरती ने स्वर्ग बणावांला।

सगळा हाथा ने काम मिलै, ऐसी जुगत बणावांला
दिन में ईद, रात दीवाली,  हर घर मायं मनावांला। 

                                   ऊँच-नींच अर जात-पाँत ने, मिल कर दूर भगावांला
                                    टाबरियां न पढ़ा - लिखा, मिनखां में मान बढ़ावांला।

 सगळा ने मुफ्त इलाज़ मिलै, ऐसी  तजबीज बिठावालां                                                                      
 सोने री चिड़िया भारत ने, अब पाछो सम्मान दिरावांला।

Tuesday, November 18, 2014

पेट फूली रोटी (राजस्थानी कविता)


जीमती बगत
ओज्यूँ  याद आ ज्यावै
माँ रे हाथ री रोटी

माँ तुवां स्यूं रोटी उतार
चिंपिया स्यूं काढती खीरां
उलट- पुलट सेंकती
पेट फूली रोटी

रोटी पर घाल देंवती
घणों सारों बिलोवण रो घी
अर मुट्ठी भर शक्कर

म्है थाली में चूरतो रोटी
बणातो चूरमो
मिलाय घी अर शक्कर

दिल रे झरोखा स्यूं
आज भी कोनी बिसरी
पुराणी यादां

माँ आज भी आँसू बण
ढळबा लाग ज्यावै
चूरमा रै मिठास ज्यूँ।


OK / OK / OK

तुम्हारी ये तस्वीरें



सुनहली तारीखों को
आभामय और अविस्मणीय
बनाए रखने हेतु तुम
संजोये रखती थी
सदा तस्वीरें

अभिनव सोच थी तुम्हारी
बड़े जतन से सहज कर
रखा करती थे एल्बम में
सारी तस्वीरें

पचास वर्ष के संगसफर में
हमारे प्रेम और विश्वास ने
जो अमृत रस घोला
उस की साझेदार हैं
ये तस्वीरें

कितने रंग भरे थे हमने
अपने जीवन में
उन्ही की मीठी यादें हैं
ये तस्वीरें

मेरी स्मृतियां जैसे ही
लिपटती है तस्वीरों के संग
बोलने लग जाती है
ये तस्वीरें

तुम्हारे विच्छोह के
गम को दूर करने
आज मेरा सहारा बनी है
ये तस्वीरें।


  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]








Sunday, November 16, 2014

आउटडेटेड



एक तुम्हीं तो थी
जिसके साथ मैं किसी भी 
बात को ले कर 
झगड़ लिया करता था 

तुम से मिले
इस अधिकार का
मैं बेहिचक इस्तेमाल 
करता था 

अब, जब तुम चली गई 
तो किस के साथ 
वाद-विवाद करूँ

अब तो मन को मना लिया 
चाहे झूठ हो या सच
सभी निर्विवाद स्वीकार करूँ

अब कोई भी कुछ पूछता है 
मैं अपनी आँखे बंद कर 
मौन स्वीकृति दे देता हूँ 

किसी भी बात को लेकर
मैं वाद-विवाद नहीं करता 
उन्ही की बात को मान लेता हूँ 

आजकल नयी पीढ़ी
अपने आप को ज्यादा
समझदार समझती है 

वो बुजर्गो को अब
आउटडेटेड
समझती है। 

तुम साथ छोड़ कर चली गई

 सुख गया जीवन का उपवन,रहा कभी जो हरा-भरा
पतझड़ आया जीवन में,तुम साथ छोड़ कर चली गई।

 दुःख की लंबी राहों में, खुशियों के दिन तो बीत गए
                                             चलते-चलते राहों में, तुम साथ छोड़ कर चली गई। 

मैंने आँखों में डाला था,जीवन के सपनों का काजल
संगी-साथी कोई नहीं, तुम साथ छोड़ कर चली गई

     दुःख मेरा अब क्या बतलाऊँ, दिल रोता है रातों में
     भीगे पलकें अश्कों से,तुम साथ छोड़ कर चली गई।

बिस्तर की हर सिलवट से,महक तुम्हारी ही आती
छाई उदासी मन में, तुम साथ छोड़ कर चली गई।

गीत अधूरे रह गए मेरे, अब क्या ग़मे बयान करुं 
  बिखरी सारी आशाएं,तुम साथ छोड़ कर चली गई।    


[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

Tuesday, November 11, 2014

आयशा की दादी



डेढ़ साल की आयशा
आँगन में खेल रही है
जब उसे भूख लगेगी
वो रोने लगेगी

जब नींद आएगी
मम्मी की गोदी में
जाकर सो जाएगी

उसे नहीं पता
उसको गोद खिलाने वाली
उसकी दादी आज उसे छोड़
सदा के लिए चली गई

जब भी कोई पूछता है
'आयशा दादी जी कहाँ है'
वो अपनी नजर और अंगुली
तस्वीर की तरफ उठा देती है

उसे नहीं याद रहेगा
उसकी दादी उसे कितना
प्यार करती थी

कैसे दिन भर
उसे गोद में उठाये
खिलाती थी

कैसे उसकी अंगुली पकड़
पार्क में घुमाने
ले जाया करती थी

अभी तो वो खेलेगी
 हँसेगी, रोएगी और
रूठेगी

और हमें अपना
सारा काम छोड़
उसे गोद में लेनी होगी।


NO 

Monday, November 10, 2014

मेरे मन की वेदना

             

अगर तुमने मुझे इतना प्यार नहीं किया होता 
तो आज मेरी आँखों से अश्रु-जल नहीं बहता।

अगर तुम्हारा हाथ सदा मेरे हाथ में रहता
                                                     तो मेरा जीवन इतना बेसहारा नहीं होता। 

अगर तुमने ढलती उम्र में मेरा साथ दिया होता
तो आज मुझे दुःख का दिन नहीं देखना पड़ता। 

                                                अगर जाते समय तुमने मुझे कह दिया होता                                                   तो तुम्हारे जाने का इतना गम मुझे नहीं होता। 

अगर मैं तुम्हारी सूरत आँखों से निकाल पाता                                                                                               
तो मुझे भी तुम्हारे जाने पर सब्र आ गया होता।                                                                                             

अगर तुम्हारी रवानगी किसी तरह टाल देता 
                                                   तो आज मेरा जीवन इतना तनहा नहीं होता।     
                                                


                                           [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

Sunday, November 9, 2014

हे मृत्यु जननी !

मृत्यु उस दिन
एक ममतामयी माँ
की तरह आई थी

उसने बड़े प्यार से
तुम्हें अपने अंक
लगाया था

स्नेह के साथ
तुम्हारे सिर को
सहलाया था

धीरे-धीरे थपकी देकर
तुम्हें सदा के लिए
सुला दिया था

हम कुछ समझ पाते
तुम्हारा आगे का सफर
शुरू हो गया था

हे मृत्यु जननी!
स्वागत तुम्हारा
जब भी तुम आओ
इसी तरह से आना

प्यार की थपकी देकर
अपने अंक लगाना
अंगुली पकड़
संग ले जाना।

Monday, November 3, 2014

मेरे ख़्वाबों का चमन उजड़ गया



मेरे जीवन का ख्व्वाब टूट गया                                                              
       मेरे दिल का गुलशन सुख गया    
               मेरे जीवन साथी तुम बिछुड़ गए
                      मेरे ख़्वाबों का चमन उजड़ गया।

मेरी खुशियों का सूरज डूब गया
        मेरी बहारों का मौसम गुजर गया
              मेरे हमसफ़र तुम ओज़ल हो गए
                      मेरे ख़्वाबों का चमन उजड़ गया।

मेरी मुहब्बत का चिराग बुझ गया
       मेरी आशाओं का महल ढह गया
               मेरे हमराही तुम वादा तोड़ गए
                     मेरे ख़्वाबों का चमन उजड़ गया।

मेरा मधुमयी मधुमास बीत गया
           मेरा जीवन गागर रीत गया 
                 मेरे मधुबन के पाहुन तुम चले गए


                          मेरे ख़्वाबों का चमन उजड़ गया।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

मगर बहुत उदास गुजरेगी

मौसमी बुखार है
दो दिन से घर पर
आराम कर रहा हूँ

कमरे में सोया
तुम्हारी तस्वीर को
देख रहा हूँ

मैं जानता हूँ कि अब
तुम मेरा सिर दबाने
नहीं आओगी

मेरे सिरहाने बैठ
सिर पर दवा
नहीं लगाओगी

बिखर गई है जिंदगी
तुम्हारे इस तरह
चले जाने से

तनहा हो गया जीवन
हो सके तो लौट आओ
किसी बहाने से


गुजर तो जाएगी
यह जिंदगी
मगर बहुत उदास
गुजरेगी।

Thursday, October 30, 2014

एक बार लौट आओ



रंग बिरंगी तितलियाँ
आज भी पार्क में
उड़ रही है 

गुनगुनी धुप आज भी 
पार्क में पेड़ों को
चूम रही है 

फूलों की खुशबु आज 
भी हवा को महका 
रही है

कोयलियाँ आज भी
आम्र कुंजों में
गीत गए रही है

हवा आज भी
टहनियों की बाँहे पकड़
रास रचा रही है

लेकिन तुम्हारी
चूड़ियों की खनक आज
सुनाई नहीं पड़ रही है

तुम्हे मेरी कसम
मेरे हमदम
एक बार लौट आओ

अपनी चूड़ियों की
खनक एक बार फिर से
सुना जाओ।


                                  [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]









Tuesday, October 28, 2014

यादें मेरी स्मृति में बसी रहेगी





प्रियजन कहते हैं वो चली गई
आप उसे अब भूल जाओ
लेकिन मैं कैसे भूल जाऊँ ?

प्रेम केवल यादों की
चौसर मात्र तो नहीं है कि
इतनी सहजता से भूल जाऊँ

उसका प्रेम तो मेरे
रोम-रोम में घुल गया है
जिसे भुलाना मेरे लिए
इतना सहज नहीं रह गया है 

उसके अहसासों का
उसकी उमंगों का
उसकी मुस्कानों का
एक संसार मेरे मन में बस गया है

मैं कैसे करुं उन
साँसों को अलग जो मेरी
साँसों के संग घुल-मिल गयी है

मैं कैसे लौटाऊँ
उसके बदन की खुशबु
जो मेरे भीतर समा गयी है

मैं कैसे अलग करुं उसकी छायां
जो मेरी छायां संग
एकाकार हो गयी है

मैं कैसे भुलावुं उन
खूबसूरत क्षणों की यादें
जो मेरे दिल में बस गयी है

जब तलक
इस धरा पर मैं रहूंगा
तब तलक उसकी यादें
मेरी स्मृति में बसी रहेगी। 



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]





Wednesday, October 22, 2014

तुम संगदिल हो बेदिल नहीं



आज मैंने सूरज से पूछा--
रोज सुबह वो तुम्हें
अर्ध्ये दिया करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
सूरज ने कहा -वो अच्छी है
और चला गया पहाड़ों के पीछे।

आज मैंने चाँद से पूछा--
तुम्हें देख-देख वो रोज
अपनी पोते-पोतियों को लोरियाँ
सुनाया करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
चाँद ने कहा - वो अच्छी है
और चला गया बादलों के पीछे।

आज मैंने हवाओं से पूछा--
तुम रोज उसके आँचल से
खेला करती थी
आज मुझे बताओ
वो अब कैसी है ?
हवाओं ने कहा - वो अच्छी है
और चली गई पेड़ों से गुनगुनाने।

आज मैंने बादलों से पूछा--
तुम तो उसके पास से आते हो
आज मुझे बताओ
वो कैसी है ?
बादलों ने कहा - वो अच्छी है
और चले गए आकाश को चूमने।

मैंने सबसे कहा-
तब मुझे भी ले चलो
उस के पास
कोई भी तैयार नहीं हुवा
मुझे ले चलने तुम्हारे पास

मैंने तारों की पंचायत में
फ़रियाद लगाईं
चांदनी से सिफारिश करवाई
जंगल, पहाड़, नदियां से
प्रार्थना की
लेकिन कोई सुनाई नहीं हुई

मुझे पता है
तुम मेरे बिना
खुश रह ही नहीं सकती
तुम संगदिल हो बेदिल नहीं।




                                               [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]







Tuesday, October 21, 2014

मेरी छोटी पोती आयशा



""दद्दा"
यह सुरीली आवाज
बिना किसी काट छांट के 
मेरे कानों तक पहुँचती है 

इस बेशकीमती  
आवाज को सुनने के लिए 
मेरे कान बेक़रार रहते हैं 

आवाज को सुन कर 
कानों को एक प्यारी सी 
गजल का अहसास होता है 

मेरे पास आते ही
मैं उसे दोनों हाथों से 
उठा लेता हूँ 

मेरे हाथों को 
नरम- मुलायम खरगोश 
का अहसास होता है 

यह चंचल-नटखट मेरी 
सबसे छोटी पोती 
आयशा है।

Saturday, October 18, 2014

तुम जो साथ नहीं हो

जब तक
तुम मेरे साथ थी
मुझे नदी, नाले,
पहाड़, झरने
बाग़, बगीचे
बरसते बादल
हरे-भरे खेत
बहुत अच्छे लगते थे

अच्छे तो
वो आज भी हैं
लेकिन अब तुम  जो
मेरे साथ नहीं हो...... 

सुबह- दो मनः स्थितियाँ

एक सुबह
उस दिन हुई थी
जब तुम मेरे साथ थी

एक सुबह
आज हुई है जब
तुम मेरे साथ नहीं हो

सुबह तो वही है
सूरज भी वही है
लेकिन मनः स्थिति वह नहीं है

उस सुबह
होठों पर हँसी थी
जब तुम मेरे साथ थी

आज सुबह
आँखों में पानी है
जब तुम मेरे साथ नहीं हो

मेरा मन समझता है
दोनों में कितना
अन्तर है।

यादों का वृन्दावन

मैं तुम्हें जितना ज्यादा
याद करता हूँ
मेरा दुःख उतना ही
बढ़ता जा रहा है

मैं चाहता हूँ
तुम्हें याद करना छोड़ दूँ
जिससे मेरा दुःख
कम हो जाए

लेकिन जितना कम
याद करता हूँ
उतनी ही ज्यादा
याद आने लगती है

समझ नहीं आ रहा
कि मैं क्या करूँ
कैसे विछोह के दर्द और
जख्मों से मुक्ति पाऊँ

जिंदगी में हर किसी ने
याद करना सिखाया
कैसे भूलना है
यह किसी ने नहीं सिखाया

दिल भी बड़ा नादान है
जीवन के सफर में केवल
यादों के वृन्दावन में ही 
रहना चाहता है। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 

Friday, October 17, 2014

अलविदा की बेला


तुम तो मुझे छोड़ कर
कहीं नहीं जाती 
अकेली

फिर आज क्यों 
मुझे छोड़ ली गयी 
अकेली 

मेरे घर पहुँचने तक भी 
तुमने नहीं किया 
इन्तजार 

नहीं दिया तुमने मुझे 
दो बात करने का 
भी अधिकार 

थोड़ी देर रुक जाती
तो तुम्हारा क्या 
बिगड़ जाता 

अलविदा की बेला में
दिल की बात ही
कह लेता 

लेकिन तुम तो 
मेरे पहुँचने से पहले ही 
चली गई 

इतने लम्बे सफर में
मुझे छोड़ अकेले ही
निकल गई 

मत चली जाना इतनी दूर 
कि मेरी आवाज भी 
नहीं सुन सको 

अपने भरे पुरे परिवार को 
फिर से देख भी 
नहीं सको 

जल्दी लौट आना 
मैं अकेले जीवन-पथ पर 
 नहीं चल पाउँगा  

तुम्हारी जुदाई का दर्द 
मैं सहन नहीं कर 
 पाउँगा।



   [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]





Sunday, September 28, 2014

मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है




जब से तुम बिछुड़ी हो मुझसे
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारे स्नेह स्पर्श से  
मेरे मन में प्यार उमड़ आता 
अधरों पर गीत मचल जाता 
अब वो स्नेह स्पर्श नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारी मुस्कराहट के संग
मेरा सूर्योदय होता
मन उत्साह-उमंग से भर जाता
अब वो मुस्कान नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारी उन्मादक गंध 
मेरे मन में मादकता भरती 
दिल में भावों के फूल खिलाती 
अब वो उन्मादक गंध नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।

तुम्हारे नयनों का दर्पण 
मेरे मन में चंचलता भरता 
आकुल प्यार मुखर हो उठता 
अब वो नयनों का दर्पण नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है। 

तुम्हारी पायल की झंकार 
मेरे कानों में सरगम घोलती 
एक प्यारी धुन निकल आती 
अब वो पायल की झंकार नहीं है
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है। 

जब से तुम बिछुड़ी हो मुझसे
मेरे अधरों पर कोई गीत नहीं है।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Thursday, September 25, 2014

दुसरो को भी जीने दो



इस धरती पर
सभी के लिए पर्याप्त है
सूर्य और उसकी रोशनी
चन्द्रमा और उसकी चाँदनी
हवा और पानी
विस्तृत फैला नीला आकाश है

धरती की मिटटी से
उठती है एक सौंधी महक
सौभाग्य की खुशियों की
और सौंदर्य की जो करती है
सब के मन को मोहित

इस धरती पर
केवल अपने लिए नहीं जीना है
दुसरो को भी जीने का हक़ देना है
उतनी ही आशाओं के साथ
जीतनी हम करते हैं।






पण थूं पाछी कोनी बावड़ी (राजस्थानी कविता )






म्है तो चावौ हो
थनै सावण-भादौ री 
उमट्योड़ी कलायण 
दाईं देखबो करूँ 

पण तुंतो 
बरस'र पाछी 
बावड़गी।  

*******


म्हारै माथै भला ही 
चाँद चमकण लागग्यो हुवै 
मुण्डा पर भला ही 
झुरया पड़नै लागगी हुवै 

पण म्हारै हैत में थूं 
कोई कमी देखी कांई  
जणा बता थूं सावण की
डोकरी दाईं क्यूँ चली गई। 

*********


पून ज्यूँ बालूरा धोरा नै
सजार- संवार चली जावै
बियान ही थूं चली गई
म्हारै जीवण ने सजार- संवार

पण पून तो साँझ ढल्या
ठण्डी हुवारा लैर लैहरका
पाछी  आज्यावै
पण थूं पाछी कोनी बावड़ी।

*********




Tuesday, September 23, 2014

जीवन की परिभाषा




आँख का खुलना
और बंद होना
इतने में ही तो सिमट जाता है जीवन

साँस का आना 
और दूसरी का जाना
इतने में ही तो गुजर जाता है जीवन

बिजली का चमकना
और लुप्त होना
इतने में ही तो लुट जाता है जीवन

जलते दीपक को
हवा का झोंका लगना और बुझाना
इतने में ही तो बुझ जाता है जीवन

बंद मुट्ठी में
रेत को पकड़ना और फिसलना
इतने में ही तो रीत जाता है जीवन

सागर की लहरों का
किनारे से टकराना और लौटना
इतने में ही तो लौट जाता है जीवन।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]







Monday, September 22, 2014

पूर्ण विराम



चार महीने पहले आज के दिन
घर में खुशियों का  माहौल  था
किसी का भी पाँव जमीं पर
नहीं टिक रहा था 

मम्मी- पापा की शादी की
गोल्डन जुबली मनाई गयी थी
सबने  साथ मिल कर
ढेरों खुशियाँ बाँटी थी

लेकिन आज लगता है जैसे
जीवन में सब कुछ थम गया है
जीवन की राह में एक
पूर्ण विराम लग गया है

अचानक मम्मी हमें
अकेले छोड़ कर चली गई
अपनी ईह लीला समाप्त कर
ईश्वर में विलीन हो गई

अब तो लगता है बिना मम्मी
के घर जैसे वीरान हो गया है
खुशियों से भरे जीवन में
हिमपात हो गया है

किससे जाकर कहूँ कि मम्मी
तुम्हारी बहुत याद आती है
हर पल तुम्हारी बातें मन में
आकर आँखों से अश्रु बहाती है

लेकिन कभी लगता है जैसे
मम्मी तुम हमारे पास ही हो
और हम सभी के जीवन का
पथ प्रदर्शन कर रही हो

जब तक मम्मी तुम्हारा
आशीर्वाद हमारे साथ है
जीवन में कभी पूर्ण विराम नहीं होगा
ऐसा हम सब का विश्वाश है।

नोट : यह कविता मनीष कांकाणी द्वारा लिखी गयी है।  )

Saturday, September 20, 2014

जब तक तुम साथ थी


जब तक तुम साथ थी
मन में खुशियों के
फूल खिला करते थे
अब तो दुःखों के बादल
छाए हुए हैं।

जब तक तुम साथ थी
जीवन सुहाना सफर
लगता था
अब तो जीवन गुजरा हुवा
कारवां लगता है।

जब तक तुम साथ थी
आँखों में सुख की नींद
बसा करती थी
अब तो आँखों से केवल
अश्रु बहते हैं।

जब तक तुम साथ थी
होठों पर प्यार भरे गीत
मचलते थे
अब तो केवल
दर्द भरी आहें निकलती है

जब तक तुम साथ थी
दिन सोने के और रातें
चांदी की होती थी
अब तो दिन रेगिस्तान और
रातें पहाड़ लगती है।



  [ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Tuesday, September 16, 2014

मेरे मन की कौन सुनेगा

  
हर दम तेरी आती यादें
मन में उमड़े सारी बातें    
तन्हाई के इस जीवन में  
कौन प्यार की बात करेगा     

  मेरा दिल अब टूट गया है                                                       
   मेरे मन की कौन सुनेगा                                                      

  मैं दुःख के दरिया में जीता   
    अपने अश्रु जल को पीता   
 जीवन की इस अर्द्धरात्रि में        
  दीपोत्सव अब कौन करेगा  

                                            मेरा दिल अब टूट गया है 
                                             मेरे मन की कौन सुनेगा।    

     सोते-उठते तुम्हें पुकारूँ          
सपनों में अब तुम्हें निहारूँ       
     कैसे जीवन अब काटूंगा       
   इसकी चिंता कौन करेगा     

                                             मेरा दिल अब टूट गया है 
                                              मेरे मन की कौन सुनेगा।     

   मेरे सारे ख्वाब थे तुमसे       
    आँखों में सपने थे तुमसे     
   मेरी जीवन की नैया को     
    कौन खेवैया पार करेगा   

                                           मेरा दिल अब टूट गया है
                                             मेरे मन की कौन सुनेगा।        




                                           [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Wednesday, September 10, 2014

उसने कहा था


एक बार
उसने मुझे कहा था कि 
जब मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूँ 
तो तुम यह मत समझना
मैं तुमसे दूर चली गयी हूँ

मुझे देखने के लिए
तुम आसमान की तरफ मत देखना
अपने दिल के भीतर झांकना 
मैं तुम्हें  वहीं मिल जाऊँगी

मैं तुम्हारे दिल में
सदा बसी रहूँगी
मैं तुम्हें छोड़ कर 
कभी नहीं जाऊँगी। 


NO 

Monday, September 8, 2014

मेरा आभार




जीवन के
लम्बे संग-सफर में
मैं कभी प्रकट नहीं कर सका
तुम्हें अपना आभार 

निश्छल प्रेम
करुणा
शुभ भाव वर्षण 
सब कुछ पाया
लेकिन नहीं कह सका
आभार 

सोचता हूँ 
आज तुम्हे प्रेषित करूँ 
अपना आभार

बादलों को दूत बना
मैं भेज रहा हूँ
तुम्हें अपना आभार

भावांजलि बन मैं
बिखर जाना चाहता हूँ
प्रकट करने तुम्हें
अपना आभार

अपने ह्रदय में
सहेजना मेरे भावों को 
स्वीकार करना
मेरा आभार।

[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]






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Sunday, September 7, 2014

आओ आपा उछब मनावां (राजस्थानी कविता)

महालया रे दिन
बरसा न बरस स्यूं
आपा देवा निमंत्रण 
बुलावा छोटी - छोटी 
कुँवारी कन्यावां ने 

धौवां बारा पगल्या
पुंछ गमछा स्यूं
लगावां कुंकु अर 
करा नमन समझ 
दुर्गा रे उणियारै

माथै तिलक लगावां 
देवां मोकळो सामान
जको काम आवै
पढने-लिखणे मांय 

बूढी'र विधवां रो भी
करा आपा सम्मान
देवां बानै भी पैरण 
ओढ़ण रो सामान

जीवण री आपाधापी स्यूं
थोड़ो टेम काढ़ 'र आवो
नवरात्रा के दिना मांय

आपा सगळा सागै मिल 'र
पुजा कुँवारी कन्यावां नै
देवा कपड़ा बूढी'र विधवाओं ने
नवरात्रा के दिना मांय।


NO 

Wednesday, September 3, 2014

तुम सदा मेरे साथ रहोगी




इस जीवन में अब तुम से
मिलना नहीं होगा
लेकिन जीवन के हर पल में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

बारिश की रिमझिम में
सर्दी की गुनगुनी धुप में
मुस्कराते बसंत में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरे सपनों के आकाश में
मेरी कविताओं के भाव में
परिंदों के चहचहाते स्वर में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरी बातों में
मेरी यादों में
मेरे मन के भावों में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी

मेरी तो सुबह भी तुमसे होगी
साँझ भी तुम से ढलेगी
जिन्दगी के राहे-सफर में
तुम सदा मेरे साथ रहोगी।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Tuesday, September 2, 2014

हसरतें अधूरी रह गई मेरी

नेह भरे थे नयन तुम्हारे
        चितवन से मृग भी थे हारे
                 गीत लिखे थे तुम पर मैंने
                          अपने  स्वर में गाए तुमने

जब तक संग तुम्हारा था 
        जीवन बचपन लगता था 
                   अब तो जीवन संध्या है
                           कुछ  ही दिन का मेला है

जब जब याद तुम्हारी आती
          कंठ रुँध, आँखे  भर आती
                  मरुभूमि बन गयी जिंदगी
                           सपने सी खो गयी बंदगी 

बिना तुम्हारे रह नहीं पाता
        अपना दर्द मैं कह नहीं पाता
                  खुशियां सारी खो गई मेरी
                        हसरतें अधूरी रह गई मेरी।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
                 
               



Monday, September 1, 2014

बन कर मेरी परछांई





आज बहती पुरबा ने 
हौले से मेरे कान में कहा
आँखें क्यों रो रही है ?

याद कर अपने
संग-सफर की बातें
बेहद मीठी होती है यादें

मैं जैसे ही
तुम्हारी यादों में डूबा
तुम बरखा बन
चली आई मेरे पास

तुम्हारी यादों के संग
रिमझिम फुहारों ने
भीगा दिया मेरा तन-मन

तुम सूरज की
पहली किरण बन
कल फिर आना मेरे पास

मुझे हौले से सहला कर
कुछ देर बैठ जाना मेरे
सिरहाने के पास

मैं जब भी तुम्हें याद करूँ
तुम इसी तरह आते रहना
बन कर मेरी परछांई
मेरे संग - संग चलते रहना।


Sunday, August 31, 2014

मेहंदी री सौरम (राजस्थानी कविता)





आपणै ब्याव री
पैली तीज रा सातू
आपा गांव में पास्या

आकड़ा रा हरियळ पत्ता
ल्यावण खातर थूं
सहेल्यां सागै गीत गावंती
रिंधरोही मायं गई

आंवती बगत थूं
समलाई नाडी मांय
मैंदी रचिया हाथा स्यूं
आकड़ा रा पत्ता धो लिया

बरसा न बरस बीतग्या
पण नाडी रे पाणी में ओज्यूं
थारे हाथा री मैंहंदी री
सौरम आवै

तीज आंवता ही बोरायोड़ो मन
सपन लोक में खो ज्यावै
थारी यादा पौर-पौर में
उतर ज्यावै।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]




कैसे निभाऊँ अपना कृतव्य







जब तक तुम थी
घर-बाहर के सभी
छोटे-मोटे निर्णय
तुम ले लिया करती थी 

तुम्हारे जाने के बाद 
यह भार मुझ पर
आ गया 

लेकिन मैं
तुम जैसा सामर्थ्य 
कहाँ से लाऊँ 

प्रियजन भी कहते हैं 
अब आपको ही
माँ और बाप दोनों का प्यार 
बच्चों को देना होगा 

लेकिन मैं  
तुम जैसा ह्रदय
कहाँ से लाऊँ 

कल शशि पूछने लगी
दस दिन पिहर जा कर
आ जाऊं क्या ?

मेरी आँखों में अश्रु छलक पड़े
मेरा गला रुँघ गया
मैं केवल इतना कह पाया-
हाँ - ना कहने वाली तो चली गयी
मैं क्या कहूँ ?

अब तुम ही बताओ 
बिना तुम्हारे कैसे निभाऊँ 
मैं यह सब दायित्व 

कहाँ से लाऊँ 
इतना साहस कि 
निभा सकु अपना कृतब्य।