Friday, December 30, 2011

पूजा

संगमरमर के बने
विशाल मंदिरों में
मणि-माणक और
स्वर्ण-रजत से सुसज्जित
प्रस्तर प्रतिमाओं के सामने
छप्पन भोगो से भरे  थालों
को सजाने से अच्छा है,
मंदिर की सीढियों  पर
बैठे किसी लूले- लंगड़े
गरीब की सुधा को
दो रोटी खिला कर
शांत किया जाय।


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )





शवों की कीमत

दिल्ली फिर दहला
हाई कोर्ट के गेट पर
बम्ब ब्लास्ट हुवा

खून का तालाब जमा
लाशों का मंजर लगा
आतंकवाद का
नंगा नाच हुवा

सरकार ने
शवों की कीमत
पांच लाख लगाई

स्थाई तौर पर
विकलांगों की
दो लाख लगाईं

कोई नेता या
उसका रिश्तेदार
नहीं मरा

जो भी कोई मरा
आम आदमी
ही मरा

शवों की कीमत
आम आदमी की ही
लगाई जाती है

नेताओं के शवों
पर तो मालाएं
चढ़ाई जाती है।

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Thursday, December 29, 2011

प्रभु महान है

प्रभु आप महान है
इसलिए नहीं कि आपने
सूरज-चाँद बनाऐ हैं या
धरती-आकाश बनाऐ है
आप महान इसलिए हैं कि
छोटे और बड़े सभी  आपको
अपना समझते हैं।


(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )




क्या बीती

रात का समय
दिसम्बर का महीना
सर्दी की परिकाष्ठा
सन्नाटे को चिरती ठंडी हवाएं
न आकाश में चाँद न तारें
चारो तरफ घटाटोप काले-काले बादल
दिल को दहलाने वाली बिजलियाँ
और मुसलाधार वर्षा
मै उठा और कमरे की खिड़की
बंद कर निश्चिंत हो गया
फुटपाथ को बसेरा बनाए बेसहारों
पर क्या बीती किसने सोचा ?

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )




Tuesday, December 27, 2011

खाद्य सुरक्षा बिल

चुहिया ने कहा -
खाद्य सुरक्षा बिल आ रहा है
अब अन्न  गोदामों में
नहीं पड़ा रहेगा
सरकार अन्न गरीबों में बांटेगी
हमें अब भूखे मरना पडेगा

चूहा बोला -
चिंता मत करो
ये राजनैतिक फैसला है
चुनाव के दिन करीब है
आम आदमी को
चारा डाला गया है

ताकि मुफ्त के अनाज का लोभ 
आम आदमी के दिल में
दया का भाव पैदा कर सके
और सरकार कि सत्ता
बची रह सके

हर बार चुनाव आने पर
आम आदमी को इसी तरह से
उल्लू बनाया जाता है
और वो उल्लू बनता हुवा 
उफ़ तक भी नहीं करता है

इस देश में
जब तक वोटों की गन्दी
राजनीति चलती रहेगी
हमारी दीवाली
ऐसे ही रहेगी  |


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


Monday, December 26, 2011

जिन्दगी

दुनियां में
सब कुछ तय है
कौन कब पैदा होगा
कौन कब मरेगा
कब आएगी गर्मी
कब आएगी  बरसात
कब होगी रात और
कब आयेगा प्रभात
यानी सब कुछ
पहले से ही तय है
और जब सब कुछ 
पहले से ही तय है
तब चिंता किस बात की
जिओ जिन्दगी को जिंदादिली से।


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


शब्द शर

त्वचा पर लगी
खरोंच मिट जाती है
शरीरी पर लगा
घाव मिट जाता है
लेकिन स्वजनों के
शब्द शरों से लगे घाव
कभी नही मिटते
वो जिंदगी भर
टिस देते रहते। 

Wednesday, November 23, 2011

ऊँखल मुसळ (राजस्थानी कविता)

घणोई पुराणों
रिश्तो है
रसोई रे सागे
ऊँखल अर मुसळ को

एक लम्बो 
इतिहास है
मिनखा रो  
कूटणे - खाणे रो

घर री धिराणी 
कूटती धान 
पाळती परवार ने 

घाळती 
खीचड़ो अर राबड़ी
घर रे टाबरा ने 

पण आज
ऊँखल-मुसळ खूंणा में 
पड्यो रेव एकलो 

जियां घर रो 
डोकरो पोली माथे 
पड्यो रेव एकळो 

मसीना री घङघड़ा हट मांय 
घंटा रो काम मिंटा मांय 
हुण लागग्यो 

पण ऊँखल-मुसळ
रो स्वाद छिट कर 
दूर भागग्यो 

ओ पुरखो है
मिनखारों 

ब्याव सावा में
आज भी पूजीजै है
बुड्ढा बड़ेरा रै जियां 

हल्दी चावल
रो तिलक काढणे
आज भी लगावे है
कुमकुम रा छींटा 

जणा जार
पूरी हुवे है 
ब्याव री रीतां। 




कोलकाता
२४ नवम्बर, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में  है )

Thursday, November 17, 2011

धन सब कुछ नहीं


धन से बंगला तो  खरीदा
जा सकता है, लेकिन
सुख और शांति नहीं

धन से बढ़िया पलंग और
गद्दा तो खरीदा जा सकता है
लेकिन नींद नहीं

धन से अच्छे अस्पतालों में
कमरा तो लिया जा सकता है
लेकिन स्वास्थ्य नहीं

धन से बाहुबली का पद तो
पाया जा सकता है
लेकिन सम्मान नहीं

धन से अच्छे पकवान तो
ख़रीदे जा सकते है
लेकिन भूख नहीं

धन-दौलत-पैसा
बहुत कुछ हो सकता है
लेकिन सब कुछ नहीं

हर इन्सान के पाँव के नीचे
जमीन और सिर के ऊपर
आसमान होता है

एक दिन सभी को
दो गज कफ़न के साथ
खाली हाथ जाना पड़ता है।




यह कविता  कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, November 15, 2011

होली

           




हुरियारों की आई टोली
            बजा चंग सब गाये होली            
 भर जाये खुशियों से झौली                                                                                                                                     आओ मिल कर खेलें होली      

भर पिचकारी रंग डालते
                  एक दूजे पर हमजोली
घुटे भाँग और पिए ठण्डाई
          आओ मिल कर खेलें होली  

देवर- भाभी, जीजा-साली     
           आपस में सब करे ठिठोली  
बजे चूड़ियाँ, फिसले साड़ी
           आओ मिल कर खेलें होली  

हर आँगन पायल झनके
              हर चोखट चन्दन रोली 
तन में मस्ती, मन में मस्ती
          आओ मिल कर खेलें होली 

हर भोलो कान्हो लागे        
                 हर गोपिन राधा गौरी     
रंग तरंग की बौछारों में         
            आओ मिल कर खेलें  होली। 

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )



Wednesday, November 9, 2011

जीवन अमृत

इश्वर सबका मालिक है                  
              इसी भाव से जीना है 
हरिमय जीवन सबका हो               
              ऐसा सत्संग करना है। 

आपस में सब भाई-भाई               
           ऐसे मिल कर रहना है 
ओणम,क्रिसमस, ईद,दिवाली          
          मिल कर साथ मनाना है। 

मानवता हो धर्म सभी का           
             शील -विनय से रहना है
भेद-भाव से ऊपर उठकर             
                  सब को गले लगाना है। 

राग द्वेष का तिमिर हटा कर         
              प्रेम की ज्योति जलाना है 
मिले धूप हर आँगन को              
                   अब ऐसा सूरज लाना है। 

   भूले राही को राह दिखा कर        
                     मंजिल तक पहुँचाना है
सभी सुखी और स्वस्थ रहें           
                        ऐसा संसार बनाना है। 


कोलकाता
११ नवम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


Friday, November 4, 2011

अपनों का प्यार

इंसान को बहुत कुछ
नहीं चाहिए जीने के लिये
अगर मिल जाये अपनों का
थोड़ा सा प्यार

लेकिन प्यार की जगह मिले
घावों से डबडबा जाती है आँखें
और धूमिल हो जाती है
सभी आकाक्षाएँ

वक्त के साथ भले ही
धूमिल पड़ जाए यादें
फिर भी मन को
कचोटती रहती है बातें

अपनो से सुनी बातों का
दुःख तो जरुर होता है
लेकिन जो होता है वो
अच्छे के लिए ही होता है 

कुछ चोटों के निशान
रहे तो उन्हें देख कर
संभल कर चलना तो
आ ही जाता है।

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  हो गयी है )

Tuesday, November 1, 2011

कसाब को बिरयानी

हर घटना
एक समय बाद
इतिहास की घटना
बन जाती है 

युद्ध पानीपत का हो
या हल्दीघाटी का
आतंकी हमला मुंबई पर हो
या पार्लियामेंट पर 
सभी घटनाएं इतिहास के
पन्नों में दर्ज हो जाती है 
  
आने वाली पीढियाँ
इतिहासिक घटनाओं से
जब रूबरू होती है तब  
महात्मा गाँधी,भगत सिंह और
सुभाष चन्द्र बोस जैसे  प्रसंगों को
पढ़ कर गर्व करती है 

लेकिन आज जब वो
अपने देश के इतिहास में पढ़ती है
कि मुंबई आतंकी हमले के दोषी
कसाब को फाँसी की जगह
सरकार बिरयानी खिलाती रही

या पार्लियामेंट पर
आतंकी हमले के दोषी
अफजल गुरु को सरकार
दस वर्ष तक सजा देने में
नाकाम रही

तो उसका मन
इतिहास का सर्जन
करने वालो के प्रति
नफ़रत से भर जाता है


और उसका दिल
देश के इन कथित नेताओं को
चुल्लू भर पानी में डूब मरने
के लिए कहता है।


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )





कोलकता
३१ अक्टुम्बर २०११

Monday, October 31, 2011

शरद पूर्णिमा

शरद  पूर्णिमा की
चांदनी रात

गीता भवन का
गंगा किनारा

कल-कल करता
गंगा का जल 

लहरें  किनारे से टकरा
टकरा कर लौट रही हैं

मै किनारे पर बंधी 
नौका में लैट जाता हूँ

आसमान में चमकते सितारे 
आँखों में चमचमाते हैं   

जल के संगीत पर
भावना की तरह तैरने लगता हूँ 

गंगा होठों पर बसती जाती है 
और मैं गुनगुनाने लगता हूँ

नैसर्गिक सौन्दर्य को मन की
आँखों से पीने लगता हूँ।

धरती के स्वर्गाश्रम में
स्वर्ग का आनंद लेने लगता हूँ। 


गीता भवन
२० जुलाई, २०१०
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Thursday, October 20, 2011

भूख

एक बच्चा
जख्मों से भरा हुआ
मैले कपड़े, नंगे पाँव
माथे में जूँओ को खुजलाता
बासी जूठे और गंदे खाने को
दोनों हाथो से बिचेरते
हुए खा रहा है

जिसे अभी -अभी
पार्टी ख़त्म होने पर
मेजपोशों से उठा कर
सड़क पर लाकर फेंका है

पास ही
एक कुते का पिल्ला
उसी खाने को पूरे जोर से
बिचेरते हुए खा रहा है 

दोनों अपनी अपनी
सुधा मिटाने में लगे हुए हैं
बीच-बीच में दोनों एक 
की तरफ देख लेते हैं 

उदास शाम
डरावनी रात और
पेट की भूख ने
दोनों को
एक सूत्र में बाँध दिया है।

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


Monday, October 17, 2011

कुछ बात करो

आओ बैठो
कुछ बात करो
अपना हाथ मेरे हाथ में दो 

कुछ मैं कहूँ
कुछ तुम कहो
आओ बैठो कुछ बात करो

ये शामें, ये घड़ियाँ
ये लम्हें, बीत जायेगें  
कुछ पल के ही तो मेहमान है 

क्या पता
किस मोड़ पर जिन्दगी की 
शाम ढल जाए और
ये रंगों का मेला उठ जाए ?

झगड़े -समझोतें और 
मनुहारों का जो जीवन हमने जिया 
आओ उन लम्हों को एक बार 
फिर से ताजा करें

हमने जो प्यार, ममता 
अपनापन एक दूजे को बाँटा
आओ उनकी स्मृति की वादियों
में फिर से खो जाए

हँस-हँस कर
एक दूजे को गुदगुदा कर 
हमने जो जीवन जिया 
आओ उस अमृत धारा को 
फिर से बरसाएँ

गर्म साँसों की महक
और मधुर शरारतों का जीवन 
आओ एक बार फिर से जीऐं 

साथ-साथ बैठ कर
हाथों में हाथ लेकर
आओ कुछ बात करें 

कुछ मैं कहूँ
कुछ तुम कहो
आओ कुछ बात करें। 

  कोलकता
१६ अक्टुम्बर ,२०११

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

 

Thursday, October 13, 2011

बसंत



बसंत गावों में
आज भी आता है और
पूरे सबाब के साथ आता है  

सरसों आज भी गदराती है
आम  के पेड़ आज भी बौरातें हैं
बागों में कोयल आज भी गाती है

भंवरें आज भी गुनगुनाते  हैं
मोर बागो में आज  भी नाचते हैं   
पलास आज भी दहकता है

बसंत गावों में आज भी
पुरे सबाब के साथ आता है  
लेकिन महानगरों में बसंत
अब इन रंगों में नहीं आता है

कंकरीट के जंगल
बनने के बाद बसंत यहाँ
अब केवल बसंत पंचमी  के
दिन ही आता है

और शाम होते-होते    
रिक्शा खींचते-खींचते 
पसीने से तर-बतर  मंगलू की  
चरमराती छाती से
धौंकनी की तरह निकलती 
गरम-साँसों में मुरझा जाता है। 


कोलकत्ता
१४ अक्टुम्बर, 2011

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Tuesday, October 11, 2011

बेटी का बाप

एक बेटी का बाप
अनेक मजबूरियों के साथ
जीवन जीता है

बहुत कुछ करने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मजबूरी के साथ जीवन जीता है 

जनक ने अपनी बेटी के लिए
स्वयंवर आयोजित किया
कि सीता को योग्य वर मिले और
वो सुखी जीवन जी सके

लेकिन सीता को
जंगलो में भटकना पड़ा
सामर्थ्यवान होते हुए भी
जनक कुछ नहीं कर सके 

आज भी
बेटी का बाप
बेटी के सुखी जीवन के लिए
अपना सब कुछ दाँव पर लगाता है 

लेकिन बेटी को
आज भी समाज में
सब कुछ सहना और
झेलना पड़ता है 

पुरखों के
जमाने से चले आ रहे 
समाज के जंग लगे दस्तूरों को
आज भी निभाना पड़ता है

बेटी का बाप
बहुत कुछ कर सकने की
सामर्थ्य रखते हुए भी
कुछ नहीं कर पाने की
मज़बूरी के साथ जीता है। 


कोलकता
१० अक्टूम्बर २०११
 (यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, October 7, 2011

रंगीलो राजस्थान ( राजस्थानी कविता )


रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी

माथे बोर, नाक में नथनी, नोसर हार गलै में जी   
झाला, झुमरी, टीडी भळको, हाथा में हथफूल जी
टूसी, बिंदी, बोर, सांकळी, कर्ण फूल काना में जी
कंदोरो, बाजूबंद सोवै, रुण-झुण बाजे पायल जी    

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी  

रसमलाई, राजभोग औ कलाकंद, खुरमाणी जी
कतली, चमचम, चंद्रकला औ मीठी बालूशाही जी 
रसगुल्ला, गुलाब जामुन औ प्यारी खीर-जलेबी जी
दाल चूरमो, घी और बाटी  सगला रे मन भावे जी

रंग रंगीलो सबसे प्यारो म्हारो राजस्थान जी 

कांजी बड़ा दाल रो सीरो, केर-सांगरी साग जी
मोगर, पापड़, दही बड़ा औ नमकीन गट्टा भात जी
तली ग्वारफली ओ पापड़, केरिया रो अचार जी
घणे चाव से बणे रसोई, कर मनवार जिमावे जी

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी 

काली कळायण ऊमटे जद, बोलण लागे मौर जी
बिरखा रे आवण री बेला, चिड़ी नहावै रेत जी
खड़ी खेत रे बीच मिजाजण, गावै कजरी गीत जी
बादीळो घर आसी कामण, मेडी उड़ावे काग जी 

रंग रंगीलो सबस्यूं प्यारो म्हारो राजस्थान जी ।

कोलकत्ता
१४ जून,२०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )

Saturday, September 24, 2011

साँस की कीमत

माँ ने रोज 
की तरह सूर्यास्त से
पहले ही खाना खा लिया

सुबह के लिए
स्नान घर में पानी की बाल्टी
अपने पहने के कपड़े भी रख लिए 

कबूतरों को सवेरे
दाना डालने वाला कटोरा
भी भर कर कमरे मे रख लिया

गीता और माला
हमेशा की तरह
सिरहाने रखना नहीं भूली

प्रातः बेला में
जब उठी तो कहने लगी
थोड़ा जी घबरा रहा है 

हम कुछ समझ पाते
इतने में ही मृत्यु ने बाज की तरह
झपटा मारा और
 ले उड़ी माँ की साँसों को 

एक क्षण पहले तक 
जो माँ जीवित थी
दूसरे ही क्षण शव बन चुकी थी 

नहीं जगा पाया
माँ को मेरा विलाप
बहुओ और पोतो का आर्तनाद 

वे  हमारी
आवाज की दुनियां से 
अब बहुत दूर जा चुकी थी

मैंने अपने जीवन में
आज पहली बार
एक साँस की कीमत को
पहचाना था। 

कोलकत्ता
२४ सितम्बर, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )




Monday, September 19, 2011

मामूली कविता

मैंने आज एक
मामूली कविता लिखने
की सोची

मामूली कविता
लिखने का एक अलग ही
अंदाज  होता है

मामूली कविता
किसी पर भी लिखी जा सकती है
यह डायरी का लिखना होता है

अपने एक सहपाठी पर भी
जिसके घर से आये नाश्ते के लड़डू
हम निकाल कर खा जाते थे@

अपने छपे पुराने लेख
और कविताओ के संग्रह पर भी 
जो माँ  ने दे दिए थे#

फिल्म गंगा जमना  पर भी
जिसको भूगोल का पाठ समझ कर
देखने चले गए थे$

मामूली कविता लिखने वाला
निश्चिंत होकर लिखता है
मामूली कविता को कोई नहीं चुराता है

और अंत में चार लाइने
जहाँ से इस कविता को
लिखने की प्रेरणा मिली

लारलप्पा, बटाटा बड़ा,
इलू-इलू, इना-मिना-डिका
जैसे गानों को सुन सुन कर। 


     ============================
@ :--मालचंद करवा नवलगढ़ कोलेज हॉस्टल में मेरा रूम पार्टनर था। वह रात को रजाई ओढ़ कर लड्डू खाया करता था। सुबह जब वह  स्नानं करने जाता ,  हम अलमारी खोल कर उसके लड्डू खा लिया करते थे। जब वह देखता कि  लड्डू गिनती में कम हो रहे है, तो वह हमसे पूछता, हम कह देते रात में  रजाई में तुमने कितने  लड्डू खाए कोई गिनती है क्या ? वो निरुतर हो जाता। 

#:-- कोलेज में पढ़ते समय मैं  कुछ लेख और कहानिया लिखा करता था, जो समय - समय पर पत्र - पत्रिकाओं में छपती रहती थी। मै उनको घर ले जा कर रख दिया करता था। एक दिन गाँव से आयदानाराम की माँ आई और कहने लगी सेठानी जी थोड़े कागज़  देदो, दो- चार ठाटे बनालू। माँ ने मेरी सारी पत्र - पत्रिकाए उठा कर उसको दे दी।

$ :--मै उस समय कक्षा नौ में पढ़ता था।  भूगोल में एक पाठ था - गंगा जमुना का मैदानी भाग। मै अपने गाँव बल्दू से सुजानगढ़ एक विवाह में शामिल होने आया था। तांगे पर एक आदमी माइक ले कर फिल्म गंगा जमुना  के बारे में प्रचार कर रहा था। मैंने सोचा, जरुर इस फिल्म में गंगा जमुना के मैदानी इलाको के बारे में दिखाया गया  होगा। मै पिताजी से पूछ कर फिल्म देखने चला गया। उसके बाद क्या देखा, वो तो आप भी  समझते होंगे।



कोलकत्ता
१९ सितम्बर,२०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है। )

कुछ तुम भी करो

मैंने तुम्हे
अंधे की लाठी पकड़ कर
 सड़क पार कराते हुए
देखा है।

मैंने  तुम्हे
 घायल पड़े व्यक्ति को
  अस्पताल पहुंचाते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे 
वृद्धाश्रम में जन्मदिन 
 की खुशियाँ बाँटते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे
 असहाय व्यक्तियों की
 सहायता करते हुए
देखा है।

मैंने तुम्हे
प्यासे राहगीर को
पानी पिलाते हुए
   देखा है।

मैंने तुम्हे
रोते हुए बच्चे को
गोद में लेकर हंसाते हुए
देखा
तुम्हारे जैसा
इन्सान जब दुनिया से जायेगा
लोग अश्रुपूर्ण नेत्रों से बिदा करेंगे।

१८ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, September 16, 2011

पहाडो की गोद में

मै  जब  भी
ऋषिकेश जाता हूँ
 हिमालय मुझे मौन निमंत्रण
देने लगता है

मै चला जाता हूँ
हिमालय के विस्तृत
आँगन मे जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ

देवप्रयाग
रुद्रप्रयाग -सोनप्रयाग
चोपता, तुंगनाथ और जोसीमठ 

जंहा चारों  ओर
 होते हैं ऊँचे ऊँचे पहाड़
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ 

चहकते रंग- बिरंगे पक्षी
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली

 बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और  नाद करते झरनें  
 शिखरों पर पड़ी अकलुषित हिमराशी

खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ हवा

पहाड़ों में बरसती
   उस शुभ्र कान्ति को देख   
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है

मैंने गंग -यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल को
सुनहला और नारंगी होते देखा है

सात बार बद्री
और तीन बार केदार के
 मंगलमय  दर्शन का सुख पा चुका हूँ 

दो बार
गंगोत्री और  यमुनोत्री की
 चढ़ाई का आनन्द भी ले चुका हूँ 

कलकत्ते  की
 व्यस्तता के बीच
 जब भी  समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ

बनजारा मन
होते हुए भी आँगन का पंछी हूँ
 कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
वापिस घर लौटआता हूँ। 
  

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

अन्तर्यामी प्रभु

 आसमान के
द्वार पर आगंतुको का
रजिस्टर देखते हुए
 उदघोषक ने मेरा नाम पुकारा

मैं जैसे ही
  बैकुंठाधिपति के सामने खड़ा हुवा
चित्रगुप्त मुझसे पूछने लगे

 मैंने कहा प्रभु !
मुझसे क्यों पूछते हो
कर्ता-धर्ता तो सबके आप हो 

मैं तो निमित मात्र हूँ 
कर्णधार और सूत्रधार
तो आप ही हो 
  
आपने ही तो मुझे इस
महानाट्य का
 पात्र बनाया था

लीला तो प्रभु
चारों तरफ आप ही की
चल रही थी

मैं तो
आपके हाथ का
एक उपकरण मात्र था

आपने जो करवाया
वह मैंने किया
    जो बुलवाया वही बोला

   मैंने तो
    नहीं बनाई वासनायें
    नहीं रची कामनायें

यह सब कुछ
है आपका ही दिया
मैंने तो कुछ नहीं किया 
              
मुझे तो इस
नाटक के आदि-अन्त
का भी पता नहीं था

 आप ने ही तो
 गीता में कहा था  
निमित्तमात्र भवः  

  मैंने वही किया
केवल निमित्त मात्र बना
 आपका निर्देशित आचरण प्रभु

अब मुझे
       क्यों इस कठघरे में       
  खड़ा करके पूछ रहें हैं प्रभु ?
    
  यत्कृतं  यत् करिष्यामि तत् सर्वं  न मया कृतम्
त्वया कृतं तु  फलभुक् त्वमेव रघुनंदन।

कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११



(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Wednesday, September 7, 2011

टाबरपण रा सुख ( राजस्थानि कविता )

थारा प्रेम रा 
चार आखर लिख्योड़ा 
कागज़ ओज्यूं माळिया
री संदूक मांय पड्या है 

जद कद
माळिया में जाऊँ
थारी प्रीत री निशाणी
ने होठां स्यूं लगान आऊँ 

थारो दियोड़ो
गुलाब रो फूल ओज्यूं    
पोथी रे पाना बीच
रख्योड़ो पड्यो है

पोथी खोलतां ही
ओज्यूं थारी प्रीत री  
खुशबू बिखेरै है 

थारी भेज्योड़ी
रेशमी रूमाल ओज्यूं 
म्हारै कपड़ा बीच पड़ी है 

हाथ मायं लेता हीं 
मधरी-मधरी महक
मन में छा ज्यावे है

टाबरपण रा
संज्योड़ा सुख आज म्हानै
घणो सुख देवै है।



कोलकत्ता
७ सितम्बर,२०११

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, September 5, 2011

मौसम बदलता है,

हर बार
जा कर वापिस
 लौट आने वाला मौसम
अच्छा लगता है

सर्दियों की गुनगुनी धूप
बसंत में कोयल की कूक
सावन की रिमझिम
मन को भाती है

याद आ जाती है
 पिछली बातें उस मौसम की
 जब वह लौट कर आता है

मौसम का
बदल कर लौट आना
  कुछ ऐसे ही लगता है
जैसे उसका पीहर जाकर
लौट आना। 

कोलकत्ता
५ सितम्बर, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, September 2, 2011

अन्ना का आन्दोलन



सुना आपने
देश भर में अन्ना का
आन्दोलन

रामलील मैदान में
अनशन
देश की जनता का
सहयोग

युवा वर्ग का विशेष
समर्थन
चारो तरफ रैलियां
और अनशन

भस्म  हो  जाएगा इस
अनशन और आन्दोलन की 
आग में भ्रष्टाचार

पीले पड़ने लगेंगे
खून पिए हुए  
सुर्ख चेहरे 

जन लोकपाल बिल
पास होते ही
ध्यान में लाये जायेंगे
नेताओं के पिछले कारनामें

शर्म से तब
गड़ जायेंगे भ्रस्टाचारी
देश को मिलेगी
उस दिन
असली आजादी। 


कोलकात्ता
२  सितम्बर, २०११


(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

हरा पत्ता

जब पीला पत्ता
डाल से गिरता है
हरा पत्ता थोड़ा
कांप उठता है

लेकिन
थोड़ी देर बाद  
शान्त हो जाता है 

बसंतआते ही
हरा पत्ता फिर
लहलहा ने लगता है 

वो नहीं जानता
मरने के बाद
आत्माओं के सफ़र
के बारे में। 


कोलकता 
२ सितम्बर, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )


Monday, August 22, 2011

कौआ आकर बोलता है

जब भी घर में कोई
नया सदस्य जुड़ने वाला होता है
कौआ उससे पहले आकर
बोलने लग जाता है 

चाहे घर में बहु के बच्चा
होने की आश हो
चाहे घर में बेटे की सगाई
होने की बात हो

कौआ खिड़की पर
आकर जरूर बोलेगा
एक दो दिन नहीं
कईं दिनो तक बोलेगा 

सबको अपनी भाषा में
पहले से ही बता देगा कि 
घर में कोई नया प्राणी आयेगा

कौए का खिड़की पर 
बैठ कर बोलना
यानि की घर में एक
नए सदस्य का जुड़ना 

ये आज से नहीं कई
बरसों से हो रहा है
कौआ आकर शुभ सूचना
पहले से ही दे रहा है

एक बार माँ ने कहा --
इस बार तुम्हारा कौआ
झूठा निकलेगा  

नहीं कोई बहु का
पाँव भारी है और 
नहीं कोई घर में
होने वाली सगाई है 

लेकिन कुछ दिन बाद ही
माँ ने खुश खबरी दी
बहु का पाँव भारी है
सबको बधाई दी 

कौआ जब भी बोला 
सच बोला 
कभी झूठ नहीं बोला 

कौआ कभी झूठ
बोलता भी नहीं और
सच बोलने वाले को
काटता भी नही। 


कोलकत्ता
 २२ अगस्त, २०११ 
\

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )











Wednesday, August 17, 2011

मेरी सुबह



   
आज  कल
 मै प्रकृति के संग
 रहता हूँ

रोज सवेरे
 मुझे सूरज उठाने आता है
किरणों को भेज कर
मुझे जगाता है 

मै निकल जाता हूँ
प्रातः  भ्रमण के लिए
अपनी सेहत को तरोताजा
रखने के लिए 

रास्ते में
ठंडी- ठंडी  हवाएं  
 तन -बदन को शीतलता
प्रदान करती  है 

पेड़ो की
 डालियाँ  झुक-झुक कर 
   अभिनन्दन करती है

जूही, बेला,
 चमेली की खुशबू   
 वातावरण को सुगन्धित
कर देती है

पंछी मुझे देख
कर चहचहा उठते हैं
मौर मुझे देख नाचने लगते हैं  

भंवरे मेरे
 लिए गुंजन करते हैं
हिरन मेरे लिए चौकड़ियां भरते हैं

प्रकृति   ने    
   कितना कुछ दिया  है     
कितने प्यार से मेरा स्वागत किया है 

ये झरने,ये झीले
  ये नदी, ये पहाड़ 
          सभी प्रकृति ने बनाये हैं मेरे लिए          
कितने रंगों से सजाया है मेरे लिए

बड़ी अच्छी
 लगती है सुबह की घड़ी
चहकते पंछी और महकते फूलों की लड़ी। 


कोलकत्ता  
१७ अगस्त, २०११
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )





Tuesday, August 16, 2011

करुणा बरसाओ

                                                                       

 हे अन्तर्यामी प्रभु !
तुम सर्वब्यापी हो
अनादि और अनन्त हो

सब देखते हो
सब की सुनते  हो
 मैं क्या कहना चाहता हूँ
वह भी जानते हो

मैंने आज तक
तुमसे कुछ नहीं माँगा
जो तुमने दिया
   वो मैंने लिया 

आज मैं
 पहली बार तुमसे कुछ 
माँग रहा हूँ

  मेरा बस
इतना काम कर दो
सुशीला को फिर से
  स्वस्थ और निरोग करदो

 तुम तो
अनादि काल से दया
 ममता और  करुणा के सागर
कहलाते हो 

फिर बताओ
तुम उसे अपनी करुणा
 से कैसे वंचित रखोगे ?

यदि उसे कुछ हो गया
तो मेरी तमाम जिन्दगी
     शाम का धुंधलका बन
   कर रह जाएगी

लेकिन प्रभु !
 तुम्हारा भी तो
दयावान और करुणा का
रूप बिखर जाएगा

तुम्हारी
एक करुणा मेरे
   जीवन में सैकडों चन्दन
  मंजुषाओं की सुगंध बिखेर देगी

मेरे जीवन पथ के
कंकड़ -पत्थरों को
हीरों की तरह चमका देगी

 कल सारा
 संसार जानेगा कि
 तुमने सुशीला पर अपनी
 करुणा बरसाई

 जैसे तुमने
मीरा, अहिल्या और द्रोपदी
पर बरसाई।


कोलकता                                                                                                                                            
१६ अगस्त २०११

(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )



Friday, August 12, 2011

अच्छा लगता है



अच्छा लगता है
सुबह की गर्म चाय के साथ
 अखबार का पढ़ना 

अच्छा लगता है
गुनगुनी धूप में बैठ कर
 सर्दी को भगाना

अच्छा लगता है
आँगन में हरसिंगार के
 फूलों का महकना

अच्छा लगता है
घर आये मेहमान को
बांहों में भरना

अच्छा लगता है
प्रातःकाल दोस्तों के साथ
 विक्टोरिया घूमना

अच्छा लगता है
शर्मा की दूकान पर कचौड़ी
के साथ गर्मागर्म जलेबी खाना 

अच्छा लगता है
जो मन मे आये वो लिखना
और सहेज कर रख लेना   |



कोलकत्ता
१२  अगस्त, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

गुस्सा क्यों नहीं आता


भाई धर्मचंद
तुम मुझे बताओ कि
तुमको गुस्सा क्यों नहीं आता 

तुम किस मिटटी के बने हो यार 
कोई भी घटना घटित हो जाए  
मगर तुम को कुछ नहीं होता 

 आज दीघा से
वापिस कोलकता आते समय 
अविनाश १२० की स्पीड पर 
 गाडी चला रहा था

टर्निंग पर उसने गाडी को
इस तरह से काटा
कि गाडी दो चक्कों पर आ गई 
लेकिन तुम्हारे कुछ नहीं हुवा
तुम्हारा मन शांत था

यदि अविनाश के पास
 मैं बैठा होता
चाहे जितना लाडला हो 
मै थप्पड़ लगा देता

उसको बता देता कि
मोड़ पर गाडी को
किस तरह से काटा जाता ?  

जबकि तुम 
मेरी तरफ देख कर
मुस्करा रहे थे

मुझे
आये गुस्से का
मजा ले रहे थे

आज तुम मुझे बताओ
कि तुम्हें गुस्सा
क्यों नहीं आता ? 

NO 


कोलकात्ता
११  अगस्त, २०११
  

Wednesday, August 10, 2011

दूधों नहाओ - पूतों फलो



सरकार चाहे जितना
भी खर्च कर दे
इस देश की आबादी
पर नियंत्रण मुश्किल है

हमारे देश की तो मिट्टी
को ही वरदान प्राप्त है
यहाँ खेत से सीता निकलती है
पत्थर की शिला से अहिल्या निकलती है

कान से कर्ण निकलता है 
घड़े से अगस्त्य निकलता है
खम्बे से नरसिंह का प्रकाट्य होता है

ये महान देश है
इसकी महान परम्पराएँ हैं 
यहाँ पाँव छूने पर भीं बहुओं को 
दूधों नहाओ और पूतों फलो
का आशीर्वाद दिया जाता है। 

बच्चों को यहाँ रामजी की
देन समझा जाता है  
इस देश की आबादी पर
नियंत्रण कैसे संभव है ?



कोलकत्ता
१० अगस्त, २०११

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

भूलें नहीं,



प्रभु ! हम तुम्हे भूलें नहीं    
कहने से काम चलेगा नहीं 
    
                         पूरी तरह सर्मर्पित हो कर  
                           हर कर्म करे प्रभु निमित्त   

समर्पित कर दें जीवन प्रभु में
   निमित्त हो जाये प्रभु हाथ में

                                        चाहे पत्तो की तरह उड़ाएं 
                                            चाहे फूलो की तरह खिलाएं       

प्रभु जो करें हम सिर धरे 
    सब कुछ प्रभु के नाम करें।     


कोलकत्ता
१० अगस्त, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Monday, August 8, 2011

आएगा जरुर.



एक दिन
ऐसा भी आएगा

सुदूर युग में ही सही 
लेकिन एक दिन 
आएगा जरूर

जब कोई भी अमीर या
गरीब नहीं होगा
सभी समान रूप से
सम्पन्न होंगे

जब कोई भी असहाय या
निर्बल नहीं होगा
सभी स्वस्थ और
नीरोग होंगे

जब रंगभेद और 
जातपांत का भेद नहीं होगा
सभी भाईचारे के साथ
प्रेम से रहेंगे 

जब अणुबम और 
मिसाइले नहीं बनेंगी
दुनिया के लोग शान्ति और 
सौहार्द से रहेंगे 

जब अपराध और अत्याचार
का कहीं नाम नहीं होगा
सभी ईमानदारी और 
सच्चाई पर चलेंगे

जब धर्म और मजहब के नाम 
पर लोग नहीं बंटेंगे 
मानव सेवा को ही 
सर्वोच्च समझेंगे

जब युद्ध और संघर्षों का
नाम नहीं होगा
इंसान की आँख से
आँसू नहीं गिरेंगे 

जब दुनिया सीमाओं में
नहीं बंटी होगी
सभी वसुधैव कुटुंब के  
सिद्धांत पर जियेंगे

जब हर तरफ सुख ही
सुख बरसेगा
पूरा ब्रहमाण्ड धरती को
ही स्वर्ग समझेगा

 एक दिन
ऐसा आएगा जरूर,
सुदुर युग में ही सही
लेकिन आयेगा जरुर। 


   कोलकाता                                                                                                                                                 
८ अगस्त, 2011
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )