Friday, December 27, 2013

बंद करो अब शैतानी






एक बरस की हुई आयशा
        अब करती शैतानी है
अगड़म-बगड़म भाषा बोले 
     हमें समझ नहीं आती है। 

 पानी उसको अच्छा लगता
           बाथटब में नहाती है 
 फिर चाहे कितना बहलाओ  
         बाहर नहीं निकलती है।  

      बड़े शौक से झूला झूले 
          निचे नहीं उतरती है
    पिज़ा,मैगी और पकौड़ी
            बड़े चाव से खाती है। 

     छुपा-छुपी खेल खेलना 
      उसको प्यारा लगता है 
    उसकी इन अदाओं पर
    सारा घर खुश हो जाता है। 

 सबकी प्यारी राजदुलारी
    करती अपनी मनमानी
      मम्मी आँख दिखा कहती      
       बंद करो अब शैतानी।


२८ नवम्बर २०१३ को प्यारी आयशा एक साल ki हो गयी। 

Friday, December 13, 2013

सावण आयो रे (राजस्थानी)

घणो सौवणो सावण लागै
सौणा तीज तिवांर रे
उमट कळायण बरसै बादळ
मन हरसावै रे
सावण आयो रे

ऊँचा डाळै हिंडो घाल्यो
सखियाँ हिंडो हिंड रे
घूँघट मांही पळका मारै
लड़ली लुमाँ झुमाँ रे
सावण आयो रे

सोन चिड़कल्यां  करै कई किळोळा
गीत पपीहा गावै रे
पीऊ-पीऊ कर बोले मोरियो
छतरी ताणे रे
सावण आयो रे

फर-फर करती उड़े चुनड़ी 
चले पवन पुरवाई रे  
झिरमिर-झिरमिर मैहा बरसे 
गौरी मूमल गावै रे 
सावण आयो रे
          
मैह मोकळो अबकी बरस्यो
जबर जमानो हुसी रे
हळिया ने हाथा में पकड़्यां
छेलौ तेजो गावै रे
सावण आयो रे

कर सौलह सिणगार गोरड़ी
भातो लेयर चाळी रे
ऊँचा बैठो सायबां
प्रीत करे मनवार रे
सावण आयो रे।



[ यह कविता "एक नया सफर" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]

म्हारो गाँव (राजस्थानी)


भायळा सागे गुवाड़ में
गेड्या दड़ी खेळता
चाँद के सैचन्नण चांनणै
लुक मिंचणी खेळता

भूख लागती जणा 
कांदो रोटी खावंता 
ऊपर स्यूँ भर बाटको
छाछ-राबड़ी पीवंता 

पौशाळ में पाटी बड़ता स्यूं
बारखड़ी लिखता
छुट्टी हुयां स्यूं पेली सगळा
पाड़ा बोलता

संतरे वाली फाँक्या
सगळा बाँट" र खांवता  
दूध री गिलास मलाई
घाळ" र पींवता 

जाँवण्या भरी रेंवती
दूध अर दही स्यूं
पौल भरी रेंवती  
काकड़ी र मतीरा स्यूं

गोबर रै गारा स्यूं लिपता
घर का आंगणा
होळी-दियाळी मांडता
गेरू-हिरमच रा मांडणा। 

सियाळा में पड़ती ठंड
जणा सुहाती तावड़ी
थेपड़यां थापण आंवती
मांगीड़ै री डावड़ी।

गोबर का गारा स्यूं लीपता
घर का आंगणा
होळी-दिवाळी मांडता
गेरू-हिरमच का मांडणा।



 [  यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गयी है।  ]





Sunday, December 1, 2013

पुल पर जड़े सैंकड़ो ताले



पिट्सबर्ग (अमेरिका ) सिन्ले पार्क ब्रिज का लम्बा पुल... पुल पर का यह दृश्य...सैंकड़ो ताले लटक रहे है।  बहुत समय से देख रहा हूँ।  जब भी घूमने के लिए निकलता हूँ, इस पुल को पार करते -करते विचार मन में आने लगते है।  क्या सचमुच यूँ पुल पर अपने नाम का ताला जड़ कर चाभी पानी के हवाले कर के विश्वस्त हुए लोग जिंदगी भर साथ रहेंगे। क्या आज भी सचमुच उनकी मान्यता ने उन्हें कभी न ख़त्म होने वाला साथ-- उपहार स्वरुप दिया होगा--- या जीवन की विडम्बनाओं से जूझते हुए कहीं अलग थलग सी कोई कहानी होगी उनकी... कौन जाने!
 
बहुत प्यारा सा कांसेप्ट है, ताले पर अपना नाम अपने प्रिय के नाम के साथ लिख कर यूँ पुल पर टांक दिया जाए और चाभी हमेशा के लिए बहती धारा के हवाले कर दी जाय।  फिर न कभी मिलेगी चाबी और न कभी खुलेंगे ताले, न कभी जुदा होंगे दो लोग...! काश ऐसा ही आसान होता जीवन का यह खेल। ताले चाभी के खेल सा सरल होता जीवन...

Friday, November 29, 2013

बर्फानी हवा



आओ बैठो
खिड़की के पास 
देखो बाहर का नजारा 
  बर्फ के फोहें उड़ रहे है हवा में
   चाँदी का बर्क बिछ गया है धरा पर 

 खोल दो खिड़की 
आने दो बर्फीली हवा को
फिर न जाने कब मौका मिले
नयनों से समेटो इस सौंदर्य को
और सुनो बर्फानी हवा के संगीत को

सामने के लॉन ने
ओढ़ली चाँदी की लिहाफ
सड़क पर आकर सो गयी है हिम
चारो तरफ बिखरे पड़े है हीरक कण
कारों की कतारो पर जा बैठी है बर्फ

चमक रहे हैं 
 गिरजाघरों के कँगूरे 
स्कूल से घर लौटते बच्चे
फेंक रहें है एक दूजे पर गोले
प्रकृति का अदभुत नजारा है यह

पेड़ों कि टहनियों
पर पड़ी बर्फ हवा के
झोंकों से गिर रही है निचे
पंछी कोटरों में दुबक गये हैं
गिलहरियां फुदक रही है बर्फ में

  
आओ बैठो
एक-एक गर्म चाय
के साथ बर्फ के इन फाहों से
ढाई अक्षर की एक कविता बनाएं 
   इस बर्फानी हवा को आज जी भर जिएं । 

  

    [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]



Sunday, November 24, 2013

आभार प्रभु आपका



हे करुणाकर
मै आपकी करुणा
   पाकर धन्य हो गया प्रभु ! 

मै निर्मल मन से
करता रहा आपसे प्रार्थना
हर समय जपता रहा  आपका नाम
कहता रहा अपने मन की बात आपको प्रभु !

सुबह शाम आपके
चरणो में अश्रु सुमन समर्पित
करता रहा और कातर स्वर से कहता रहा-
सुशीला को स्वस्थ करो प्रभु !

हे अन्तर्यामी
अपरिमित दया आपकी 
जो स्वीकार किया आपने मेरा आग्रह 
कर दिया सुशीला को स्वस्थ और निरोग प्रभु !

आज आपने मेरी
अभिलाषा को पूर्ण कर दिया
जीवन में फिर मधुमास ला दिया
  सब कुछ आपकी अहेतुकि कृपा प्रभ ! 




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Saturday, November 23, 2013

मर्यादा पुरुषोत्तम राम


हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम !
सीता से यही तो अपराध
हुवा कि उसने आपसे
स्वर्ण मृग माँगा

वो भी इसलिए कि
आपकी पर्णकुटी
सुन्दर लगे
राम स्वर्णचर्म पर बैठ सके 

लेकिन आपने
उसके साथ क्या किया ?
सीता की अग्नि परिक्षा ली
क्या यह स्त्रीत्व का
अपमान नहीं था ?

एक रजक के कहने पर 
 आश्वप्रसवा सीता को 
निर्वासन दिया 
क्या यह पति धर्म था ?

आपकी हृदयहीनता से दुःखी
सीता धरती में समा गयी
क्या यह नारी जाति का
अपमान नहीं था ?

   राज्य के सुखों को त्याग   
सीता आपके साथ वन गयी
क्या सीता का यह त्याग कम था ?

राम!
इतिहास के पन्नो में भले ही
आप "मर्यादा पुरषोत्तम" कहलाये 
लेकिन सीता के साथ आप
न्याय नहीं कर सके।









Tuesday, November 12, 2013

प्यार की पराकाष्ठा



दोनों एक दूजे  के
सुख-दुःख में शामिल

कई अनमोल सौगाते  
एक दूजे की 
एक दूजे के पास

गात अलग 
लेकिन मन एक 

मेरे मन कि बात 
अनायास निकल पड़ती है  
तुम्हारे मुख से

और तुम्हारे मन कि बात 
निकल आती है
मेरे होठों से

सब कुछ समाहित है
एक दूजे का 
एक दूजे में 

कहीं यही तो नहीं है
प्यार की पराकाष्ठा 
मेरा प्यार - तुम्हारा प्यार।



 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]






























Monday, November 11, 2013

मेरी चाहत है

मेरी चाहत है
तोड़ लाऊं मेहंदी के पत्ते
लगाऊं चटक रंग तुम्हारी
हथेलियों पर और 
सजाऊं तुम्हें  

मेरी चाहत है 
समंदर से चुन लाऊं 
मोतियों वाली सीपियाँ 
और बना कर सुन्दर हार
पहनाऊं तुम्हें  

मेरी चाहत है 
बगीचे में जाकर 
चुन लाऊँ बेला के फूल 
और बना कर गजरा 
सजाऊँ तुम्हें 

मेरी चाहत है 
इंद्रधनुष के रंगो में
रंगाऊँ  रेशम की चुन्दडी
और लगा कर चाँद-सितारे
औढ़ाऊँ तुम्हें।


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Friday, November 8, 2013

टर्मिनल


भाग-दौड़ भरी 
जिंदगी में परिवार 
बिखरते जा रहे हैं 

सभी इतनी तेजी से 
दौड़ रहे है कि 
मुड़ कर देखने का भी 
समय नहीं है

जिंदगी को जीवो 
लेकिन इतनी रफ़्तार 
से भी नहीं कि सब कुछ  
पिछे छूट जाए

दूरियां जीतनी तेजी से 
तय की जायेगी  
फासले उतने ही 
बढ़ते जायेगें  

वेग कि भी एक 
मर्यादा होनी चाहिए 
रुकने के लिए भी एक 
टर्मिनल होना चाहिये

साल भर में एक बार
परिवार कि सभी गाड़ियाँ
एक साथ आकर
ठहरनी भी चाहिये।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, November 5, 2013

महानगर

यह महानगर है
यहाँ कुत्ते नहीं भोंकते
बिल्लियाँ रास्ता नहीं काटती
यहाँ बेकाबू गाड़िया दौड़ती है

तुम ठिठक कर
खड़े क्यों हो गये ?
सड़क पर जो दम तोड़ रहा है
उसे अभी-अभी सिटी बस ने कुचला है

अस्पताल पहुँचाने का
यहाँ कोई कष्ट नहीं उठाता
सभी ठिठकेंगे, देखेंगे और
निश्चिंत होकर आगे बढ़ जायेंगे
 
जब तक पुलिस आयेगी
घायल सड़क पर दम तोड़ देगा
यहाँ का यह आम नजारा है
यहाँ जीवन सबसे सस्ता है

लोग सकुशल घर पहुँचने के लिए
यहाँ मनौती मना कर
घरों से निकलते हैं
यह महानगर है। 


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]








Friday, November 1, 2013

जीवन की यादे

जीवन भी
धूप-छांव कि तरह
कितने रंग बदलता है

कभी सुख
तो कभी दुःख
कभी ग़म तो कभी ख़ुशी

कभी दोस्त
तो कभी अजनबी
कभी सुदिन तो कभी दुर्दिन

नदी की तरह बहता है जीवन
पुराने बिछुड़ते रहते है
नए मिलते रहते है

जो आज हमारा है
कल किसी और का हो जाता है
सब कुछ बदलता चला जाता है

रह जाती है केवल चंद यादे
वो यादें जो जीवन के अंत तक
साथ निभाती है।




 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, October 29, 2013

आयशा बड़े कमाल की



नौ महीने की हुई आयशा 
खाटू-सालासर धाम गयी
बाला जी को बाल चढ़ाये
     जय कन्हैया लाल की
   आयशा बड़े कमाल की 

रात-रात भर गरबा देखे
थकने की कोई बात नहीं
हाथों में लेकर के डंडिया
    सबके साथ धमाल की 
    आयशा बड़े कमाल की   

   घूम-घूम कर पूजा देखी 
     गली-मुहल्ले पंडाल की  
     तारों सी चमकाए आँखे  
      देख चमक पंडाल की 
     आयशा बड़े कमाल की  

       पुरे घर में धूम मचाए  
    चिमट्टी बड़े कमाल की  
       किचन में जब भी जाए   
      शामत आती थाल की  
      आयशा बड़े कमाल की    

   वैष्णो देवी के दर्शन कर  
 कश्मीर घूमने चली गयी
  मम्मी संग घोड़े पर बैठी
   नहीं पसंद अब पालकी 
      आयशा बड़े कमाल की।   



 

आयशा अपने नानाजी एवं मामाजी के संग माता वैष्णो देवी के दर्शनार्थ। 




Tuesday, October 22, 2013

कुदरत रो खेल (राजस्थानी कविता)

एक सी तो माटी
एक सी बैवे पून
एक सो तपै तावड़ो
मूळ मांई बैवे एक सो पाणी

फेर ए न्यारा-न्यारा स्वाद
कठै स्यूं निपज्या
कियां हुयो ओ अचरज ?

दाड़मा"र मौसमी
आम "र अंगूर
काकड़ी"र मतीरा
न्यारा-न्यारा रूप"र सुवाद

मिनख र समझ
माईं नीं आवै ओ खेल
सारो कुदरत रो खेल
कठै कांई निपजा देवै 

समझ एकलो  सिरजनहार
सिरजनहार री खिमता
कुण समझ सक्यो
अर कुण समझ पावैळो।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]



Sunday, October 20, 2013

Oh Great donor

Oh, Life Giver, it is you I've come to know,
So in your honor, I bow my head this low.

You passed on your organs
While landing at heaven's portal,
Oh this path of goodness
You've become immortal.

You sacrificed your kidneys
So someone could excrete,
You gave your heart
For another's life to beat.

You offered your eyesight
So someone else could see,
And it is I who has your lungs
That now allow me to breathe.
Oh ! Great donor
Oh ! Secret donor
I know you now.
To you I take the deepest bow.

We will forever be in your debt
You are thoughtful and kind,
You will always be with us
In both body and mind.

You gave it all away
As a willing volunteer,
Now the gates have opened in heaven
For your spirit to appear.

Go ahead through the door
Let the Lord greet you with open arms,
May the angels sing thy praises
Of your compassion and all your charms.

Ciao Hasta la vista, Adios, Sayonara, Alvida,Good Bye !
Great and Secret donor, Life giver,
You will be remembered forever.

(हिंदी कविता का अंग्रेजी अनुवाद मनीष कांकाणी  द्वारा किया गया )

Saturday, October 19, 2013

मौज मनास्या खेता में (राजस्थानी कविता )


धौरा माथै बाँध झुंपड़ो
दौन्यु रैस्या खेता में
सीट्टा मौरस्या मौरण खास्यां
खुपरी खास्यां खेता में
मौज मनास्यां खेता में

खेजड़ळी पर घाल हिंडोळो
हिंडो हिंडस्या सावण में
खाट्टा मिट्ठा खास्या बोरिया
कांकड़ वाला खेता में
मौज मनास्यां खेता में 

हरियै धान री मीठी सौरभ
गमकै ळी जद खेता में
अलगोजा पर मूमळ गास्यां
धौरां वाला खेता में
मौज मनास्यां खेता में

हेत प्रीत रा कांकड़ डोरड़ा
आपा खोलस्या खेता में
हाथ पकड़ कर कनै बैठस्यां
बाता करस्यां खेता में
मौज मनास्यां खेता में

साख सवाई अबके हुसी
घोटां पोटां बाजरियाँ
सिट्या तोड़स्यां कड़ब काटस्यां
खळो काढस्यां खेता में
मौज मनास्यां खेता में।




[ यह कविता "एक नया सफर" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, October 9, 2013

पावन गंगा






स्वर्गलोक से भूलोक में चली आई गंगा
कर निनाद पहाड़ों में बहती चली गंगा 

जाति-धर्म से बंधकर नहीं रही गंगा
शीतल-निर्मल जल बहाती चली गंगा

ऋषियों की तपस्थली सदा बनी गंगा
जन-जन के कष्ट हरे ममता मयी गंगा

वसुंधरा को हरित बना बहती रही गंगा
जंगल में सदा मंगल करती  रही गंगा

तीर्थ बने नगर सभी जहाँ से निकली गंगा
जन शैलाब उमड़ पडा संगम बनी  गंगा

बहना ही जीवन जिसका रुकती नहीं गंगा
कागद्विप में आकर सागर में मिली  गंगा

आज अपनी पहचान खो रही है गंगा
अमृत बदला जहर में सूख रही गंगा

मत आहत करो प्रकृति कहती रही गंगा
वरना एक दिन जलजला  लाएगी गंगा।



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]

Tuesday, October 8, 2013

शहीद की पीड़ा




मै इस देश की
सीमा पर तैनात एक 
अदना सा सिपाही हूँ

देश की
रक्षा करते हुए
आज शहीद हो गया हूँ 

मैंने अभी पुरे नहीं किए
अपने जीवन के
 तीस बसंत भी 

पच्चीस बर्ष में ही
मेरे जीवन का 
हो गया अंत भी 

मै जानता हूँ
मेरे  लिए कोई
शोक सभा नहीं होगी

कोई मौन
नहीं रखा जाएगा
कोई झंडा नहीं झुकेगा 

यहाँ तक कि
मेरे गाँव में मेरा कोई
स्मारक भी नहीं बनेगा

एक सिपाही की मौत से
 किसी को क्या
फर्क पडेगा ?

हाँ ! फर्क पडेगा
मेरे बच्चों को जिनका
मै बाप था

मेरी पत्नी को
जिसका मै पति था 
माँ को जिसका मैं बेटा था

और .....कल के
अखबार के कोने मे 
एक छोटी सी खबर छपेगी

कश्मीर घाटी में
आतंकियों से मुकाबला करते
    तीन सिपाही शहीद। 



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]

Monday, October 7, 2013

सुनहरे मोती

किसी की नजरो से गिरने में वक्त नहीं लगता,
मगर किसी के दिल में बस कर दिखाओ तो जाने। 

किसी से प्यार के वादे करने में वक्त नहीं लगता,
मगर वादा कर के उसे निभाओ तो जाने।  

अपने मतलब से तो सभी गले मिलते हैं,
मगर किसी को बिना स्वार्थ गले लगाओ तो जाने।  

सुख में तो सभी साथी साथ निभाते हैं,
मगर दुःख में साथ निभा कर दिखाओ तो जाने।  

हँसते बच्चे को तो सभी गोद उठाते है,
मगर किसी रोते हुए बच्चे को गोद उठाओ तो जाने। 

तुम हिन्दू-मुस्लमान कुछ भी बनो
मगर  पहले इन्शान बन कर दिखाओ तो जाने।  



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]

Sunday, October 6, 2013

सबको अच्छा लगता चाँद



बच्चों का यह चन्दा मामा
नील  गगन से निचे आता
लोरी गाकर  उन्हें सुलाता
तारों  के संग  रहता  चाँद
 सबको अच्छा लगता चाँद 

अमीर-गरीब का भेद नहीं
छुआ- छुत  की  बात नहीं
एक नजर और एक भाव से
सब के घर  में जाता चाँद
सबको अच्छा लगता चाँद

रोज चांदनी के संग आता
अंधियारे में राह दिखाता
  लेकर बारात सितारों की  
   पूनम को पूरा दीखता चाँद  
सबको अच्छा लगता चाँद

ईद मनाओ या करवा चौथ
करे  चाँद  का  दर्शन लोग
गीता कुरान  का भेद नहीं
सब के मन को भाता चाँद
  सब को अच्छा लगता चाँद।




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, October 2, 2013

कुछ दोहे

सुन तू ज्यादा कमती बोल,
वरना खोलेगा अपनी पोल।

दया-धर्म की गठरी खोल,
आया बुढ़ापा आँखे खोल।

मन की बात को पहले तोल,
फिर उसको तु मुख से बोल। 

छल-कपट को मन से छोड़,
सबसे मीठी वाणी  बोल। 

दुनियां को क्यों देता दोष,
जो कहना है प्रभु से बोल। 

जो बिछुड़ा वो फिर ना मिला
फिर भी कहते दुनिया गोल। 

झंझट तुम क्यों लेता मोल,
सब की हाँ में, हाँ तू बोल। 

लोग प्रसंशा सुननी चाहते,
तू भी सबको वैसा ही बोल।  






















Sunday, September 29, 2013

नीम का पेड़


नीम के पेड़ की
शीतल बयार
शुद्ध हवा

पंछियों का बसेरा
गिलहरियों का फुदकना
चिड़ियों का चहचहाना

लल्लन का पालना
छुटकी का झुला
कोयल का घोंसला

सब मेरे देखते-देखते
अतित बन गया
पेड़ धराशाही हो गया

कुल्हाड़ी के लगते ही
पेड़ कांप उठा था
पत्ती-पत्ती सिहर उठी थी

आरे के चलते ही पेड़ में
दर्द का दरिया फुनगी से
जड़ो तक बह गया था

मेरे देखते-देखते एक
हरे-भरे पेड़ का
अंत हो गया था। 



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]










Saturday, September 28, 2013

Special Tips for nose relief

Allergy Relief

If you have seasonal allergies,consider a lowcost nasal rinse. Mix 3 teaspoons of iodine - free salt with 1 teaspoon of baking soda. Add 1 teaspoon of  that to 8 ounces of lukewarm distilled or boiled water, then use a bulb syringe to irrigate your nostrils.

Thursday, September 5, 2013

बौना हो जाता है बुढ़ापा


(१ )
बुढ़ापे में बाप
अपने बेटो से नहीं पूछता -
दवाईयां नहीं लाने की वजह या
चश्मे की फ्रेम नहीं बनने का कारण
वो अपने फट्टे हुए कमीज के
साथ-साथ मुंह पर भी पैबंद
लगा लेता है।

(२ )
बच्चे बुढ़े माँ-बाप को
कम समझदार और स्वयं को
अधिक समझदार समझते है
इसलिए घर में जब दोस्त आते हैं
उनको कमरे में बैठने की
सलाह दी जाती है।

(३ )
बुढ़ापा एक कमरे में
सिमट कर रह जाता है
झड़ जाते है दिन और
बदल जाता है वक्त
अपने बच्चों के सामने ही
बौना हो जाता है बुढ़ापा।

    

Monday, September 2, 2013

एक नन्ही परी


एक नन्ही  परी सी 
गुलाब की कली सी
अपनी भाषा में कुछ बोलती 
हँसती मुस्कराती मधु घोलती

एक नन्ही परी  सी
मिसरी की डली सी
लघु पांवों पर खड़ी होती
पकड़ खाट थोड़ी सी चलती

एक नन्ही परी सी
प्यारी राजदुलारी सी 
घर में किलकारियां भरती
गोदी में अठखेलियाँ करती 
   
एक नहीं परी सी
हँसती सूरजमुखी सी
  अति कोमल नाजुक सी
  भोली-भाली गुड़िया सी

एक नन्ही परी सी
प्यारी छुई-मुई सी
बाहर जाने को खूब मचलती
 बाहर जाकर खुश  हो जाती

एक नन्ही परी सी
कोई नहीं आयशा सी।

(राजश्री-मनीष की बेटी आयशा और मेरी लाडली पोती "नागड़ी " जो नौ महीने की हो गयी है। उसकी अठखेलियाँ देख कर कुछ लिखने का मन बना।  ) 



[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]

Sunday, August 18, 2013

भलाई का काम


आओ बंधु !
घर से बाहर निकलो
कब तक कमरे में बैठे टी. वी.
देखते रहोगे ?

ईश्वर ने हमें
मानव तन दिया है
क्या इस से कोई भलाई का
काम नहीं करोगे ?

देखो कितना सुहाना मौसम है
ठंडी-ठंडी बयार चल रही है
आओ निकलो बाहर
आज कोई अच्छा काम कर आएं

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाएं
किसी भूखे को दो रोटी खिलाएं
और नहीं तो किसी बीमार को
थोड़ी दवा ही पीला आएं

देखो ! दुःखो का अंत तो
एक दिन सभी का होना है
हर अँधेरी रात के बाद
सूर्य को निकलना है

हमें तो इश्वर ने एक मौका दिया है
क्यों नहीं हम उसका लाभ उठाये
हमें तो करना भी  उतना ही है
जितना सामर्थ्य से होता है

आओ निकलो बाहर
चलो मेरे साथ
करते है आज मिल कर
एक भलाई का काम।



 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]







Wednesday, August 14, 2013

गर्व है तुम्हारे ऊपर


अनजाना देश
अनजाने लोग
अनजानी भाषा
गजब की हिम्मत
तुमने दिखाई

हम सब को गर्व है
तुम्हारे ऊपर कि तुमने
इतनी हिम्मत दिखाई

नर्सो की बात को
समझना और उनको
वापिस उत्तर देना तुम्हारे
लिए रोजमर्रे की बात थी

नर्सो के साथ
उनके घर - परिवार की
सुख -दुःख की बात करना
तुम्हारे लिए सहज बात थी

नर्स से तुम रोज
उनके गीत सुनती
अपने गीत उन्हें सुनाती
अफ्रीकी नर्स तो रोज डांस करती

तुम डाक्टर को
अपने बारे में बताती
उनसे सब कुछ पूछती
तुम निःसंकोच बात करती

इतनी बड़ी अस्पताल में
स्वयं जांच करवाने जाती
अकेली रुम में रहती

हमें गर्व है तुम्हारे ऊपर
अनजाने देश में भी तुम
बेधड़क रहती।

NO




















Wednesday, August 7, 2013

गर्मी रो दिन (राजस्थानी कविता )

जेठ-असाढ़ रै महीना में
घड़ी-दो घड़ी दिन कौनी चढ़ै
जताने तो तपबानै
लाग जावै सूरज


दस बज्यां ही घर सूं बारै
निकळबो होज्या मुसकिल
आभा सूं बरसावण लागै
खीरा सूरज


दोफारी मांय चालै लूवां
गली में बैठा कुता हुळक ज्यावै
अर सड़कां पर पड्यो डामर
पिघल ज्यावै।

बळतो बायरो चैपै
ताता चींपिया डील माथै
गाभा करण लाग ज्यावै चप-चप
पसेवो बैवै जाणै  न्हार निकल्यो हुवै


दिन आंथै कौनी
बिउं पैली आ ज्यावै
बाळणजोगी आँधी अर
करद्ये टापरा रो सत्यानाश


रात बापड़ी ठंडी हुवै
जणा जा"र थोड़ी शांती मिलै
पण दिन उगता ही सूरज फेरूं
तपबाने लागज्यावै लगाद्ये गळपांश।


[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]



Monday, August 5, 2013

चौपड़ (राजस्थानी कविता )

आ भायळा  चोपड़ खेलां
टाबर पण का खेल खेलां
                धरम चबूतर चोपड़ खेलां
                 सगळा  साथी सागै खेलां

पैळी जाजम ल्याय बिछावां
पछ चौपड़ ल्याय जमावां
               च्यार जणा नै भिड़ी बाँटा
               काली-पीळी गोट्या छाँटा

हरी हरावे, लाल जितावै
काली पीली पासो ल्यावै
                कोड्या फैंका पासो ल्यावा
                 दाँव-दाँव पर होड़ लगावां

मन चायो पासो  ल्यावां
पौ बारा पच्चीस लगावां
                   एक दूजा के ळारै भागा
                   पीछ पड़ कर गौटी मारा

जमा गोटियाँ तोड़ करावां
काढ बावळी खेल बढावां
                 प्यारो खेल खेलता जावां
                 हार-जीत पर सौर मचावां।



[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





Thursday, July 25, 2013

तुम्हे मुस्कराते देखा होगा।

तुम्हारा साथ है तभी तक यह जान है
तुम्हारे बिना मौसमे-बहार का भी क्या होगा।

तुम्हारे जाने से लगा तनहा जीना आसन नहीं
तुम लौट कर आवोगी तभी मौसमे-बहार होगा।

मेरे कानो के पास से जब भी गुजरती है हवाए
कहती है मत धबराओ तुम्हारा प्यार खरा होगा।

तुम्हारे जाने से वीरान है ये आँखे
तुम लौट कर आओगी तभी मधुमास होगा।

बीत गए कितने ही दिन तुमको गए हुए
उठती है एक हूक दिल में कुछ खलता होगा।

मुझे पता है बादल भी यू ही नहीं बरसता
जरुर किसी की याद में आँसू बहा रहा होगा।

महीनो बाद आज तुम लौट कर आयी हो
तुम्हे देख घर का कोना-कोना महका होगा।

हँस पड़े बगिया के फुल जैसे ही तुम घर में आई
चराग भी खुद जल उठै, तुम्हे मुस्कराते देखा होगा।


 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]


Tuesday, July 16, 2013

गाँव रो पीपळ (राजस्थानी कविता )

गँवाई कुवै के
जिवणे पासै हो पीपंळ
अर पीपंळ रे पसवाड़े हो
सती दादी रो देवरो
गांव री लुगायां दैवरो धौकती


गौर-ईशर री जद सवारी
कूवै पर आंवती जणा गाँव री
छोरया-छापरयां पींपळ रै हैठे
भैळी  हुय र गीत गांवती


नुवों ब्याव हुयोड़ो जोड़ो
सती दादी रै गठजोड़े री
जात देवण आंवतो जणा
पीपळ री छियां आशीष देवंती


बैसाख रे महीना में
भोरान-भोर गाँव री लुगायाँ
पीपळ सींचण ने आंवती
गट्टा पर बैठ"र कांण्या कैंवती


टाबरिया रमता पीपळ री
छियाँ मांय दड़ी र गेडियो
लगाता लंम्बा-लंबा टौरा
जेठ-असाढ री गरमी रे मायं


पीपऴ रे  निचे हुवंती
नारा-गाड्या री दौड़ अर
देखतो पुरो गाँव गौर के
मगरीया मांय

पण आज गँवाई कुवै रे पासै
कौनी रियो पीपंळ
पण जाका देख्यो ही कौनी पीपंळ
बाने कियां याद आवैगी ऐ बातां

आशीष रै ओळावै
पींपळ देग्यौ आपरी
समूची ऊमर गाँव नै अर
छोड़ग्यो मीठी-मीठी बातां।


[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]



Monday, July 15, 2013

आत्मसंतुष्टी,

मैंने अपनी 
पोती से पूछा
कहाँ से आ रही हो ?

मैकडोनाल्ड से आ रही हूँ
पिछले सप्ताह मेरे जन्म दिन पर
कुछ फ्रेंड्स नहीं आ सके थे
उनको आज पार्टी दी थी।

अब क्या करोगी ?
मैंने फिर पूछा-
बस कुछ नहीं आज टी. वी.
पर एक नया सिरियल आ रहा है 
मिस्टर पम्मी प्यारेलाल
उसी को देखूंगी। 

मैंने कहा -
तुम्हें राजस्थानी भाषा का शौक है
इसलिए मैंने कुछ कवितायें 
राजस्थानी में लिखी है 
तुम पढ़ना।

दादाजी आपको तो पता है
इस साल बोर्ड एग्जाम है
कितनी मेहनत करनी पड़ रही है
एक मिनट का समय नहीं है।

मैं सोचने लगा
क्या इसको कभी समय मिलेगा ?
क्या वो कभी पढ़ पाएगी 
मेरी लिखी कविताऐ ?

अभी बोर्ड का एग्जाम है
फिर कॉलेज की पढ़ाई है
आगे चल कर सर्विस करनी है 
एक दिन नयी गृहस्थी सम्भालनी है।

अपनी आत्मसंतुष्टी के लिए
मैं एक गहरी सांस लेता हूँ और 
सोचता हूँ शायद कभी मेरी उम्र में।

NO























Friday, July 12, 2013

ओळाव (राजस्थानी कविता)

दुनिया की दादागिरी रो
ठेको ले राख्यो है
अमेरीका

शांती'र नाम दुनिया में
करे जुद्ध,लड़ाव देश के लोगा ने
एक दूजा स्यूं अमेरिका

भेजे आपरी फौजा
देव नुवां-नुवां हथियार
शुरू करे अंतहीन जुद्ध अमेरिका

आभै में कांवळा दाईं
उडावै हवाई जहाज
ठोड-ठोड फैंक ब़म अमेरिका

बिना मिनखा
चाळबाळा हवाई जहाज
डरोण बरपाव कहर

आग री च्यांरा कानी उठे
लपटा, धुंवारा उठै गुब्बार
मिट ज्यावै गांव र शहर

चीखां अर चितकारा सुणीजे चौफेर
दिखै छत-बिछत हुयोड़ी ळाशा
दिन रात हुवै धमाका

चिरळी मारै घरां में
सुत्योड़ा टाबरिया
सुण र बामा रा धमाका

बरसा न बरस चाळै
शांती "र नावं पर
अशांती रो जुद्ध

मन में बैठ्या दरिंदै ने तो
कोई न कोई ओळाव चाईजै
करनै दुनिया में जुद्ध।




[ यह कविता "एक नया सफर" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]





Wednesday, July 10, 2013

दादी रो टुंणो (राजस्थानी कविता)

दादी जांणती
टुंणो  करणो
गांव में आँधी आंवती
जणा रोक देवंती आंधी ने
कर देती टुंणो

टाबरिया धूळरा बतूळा
देखता र भागता
दादी कनै अर केंवता
दादी आँधी आवै है
बेगो करो टुंणो

दादी ल्याती बुवारी
अर ऊपर मैळती भाटो
राळती बाजरी का आखा
सींच देती कळस्या  स्यूं पाणी
कर देती टुंणो

टाबरियां रो
बिसवास हो दादी
अर दादी रो बीसवास हो
आपरो टुंणो

जे कदास 
आँधी आ ज्याती तो
दादी केती बाळणजोगी पेळी
बड़गी कांकड़ में,नहीं जण"स
कर देतो जापतो म्हारो टुंणो।



[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]


Sunday, July 7, 2013

बळजी (राजस्थानी कविता)

बळजी
साँचो माणस हो
माँ दिशावर गयी जणा
बळजी ने संभळाय'र गयी
आपरो सगळो गैणो-गाँठो
अर हिदायत दीनी  -
बळजी नींग राखिज्ये।

बळजी गैण री पोटळी
थाम तो लीनी
पण रातां री नींद उड़गी
माँ पाछी आई जणा बळजी
गैण री पोटळी पकड़ाय'र बोल्यो-
"सेठाणी जी आज सुख री नींद सोंवुला"।

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बळजी
भळो माणस हो
गाँव मांय सगळा रे
सुख-दुःख मांय आडो आंवतो
आधी रात ने जे कोई बतळा लेंवतो
बळजी पग जुती कोनी घालतो

आराम-बीमार पड्या
बळजी घरां जाय झाड़ो लगावंतो
गाँव रा लोग कैवता बळजी रो
झाड़ो पळै।

###################
           
बळजी
स्याणो माणस हो
ब्याव-सावा मांय
ओसर-मोसर मांय
सगळे गाँव री
मिठाई बळजी ही बणावतो

पण मजाळ जे
कदैई बळजी कोई स्यूं
पांच रिपिया भी बणाइरा मांग्या हुवै
कोई देवै तो बळजी राजी
अर कोई नी देवै तो बळजी राजी

बळजी मीनख हो
मीनख कांई
जबर मीनख हो।

Friday, July 5, 2013

खेत रै गेळै मांय (राजस्थानी कविता)

म्हनें ओज्यूँ याद आवै
खेत जावंता गेळै मांय
थूं चाळै ही सामै -सामै
अर म्हैं चाळ हो थारै लैर - लैर

गेळै मांय
थारो ओढणो झाड़का रे
काँटा मांय उलझग्यो

तू देख्यो कै म्हैं
थारो पल्लो पकड्यो हूँ
तू झट बोल पड़ी--

हे रामजी!
थे तो रस्ते मायं ही
नीचळा कौनी रैवो
अबार उगड़ ज्यावंतो माथो

म्हैं अचंम्भो कर
थारो मुंडो देखबा लागग्यो

इतना मांय तू बोल पड़ी --
मरज्याणा - बाळणजोगा
ऐ झाड़का थारै दांई हुग्या।



Thursday, July 4, 2013

चौमासो (राजस्थानी कविता)

जका चल्या गया छोड़ र गाँव
बसग्या टाबरा ने ळैर परदेश
                        बानै कांई लेणो है बिरखा स्यूं
                       अर कांई लेणो है चौमासा स्यूं।


दीसावरा में चाळै चौखा धंधा
एयरकण्डीशन में बैठ्या करे मौज
                      देश में बिरखा बरसे जे नहीं बरसे
                               बांको मन तो कदै नी तरसे।


बाजार में मिल ज्यावै सगळी सरा
काकड़ी,मतीरा,काचरा र फल्या
                         चोखा-चोखा छांट-छांट ले आवै
                     जणा बानै क्यू चौमासो याद आवै।


फरक पड़े है गाँव में रेव जका कै
नहीं बरस्या काळ पड़तो ही दिखै 
                   पड्या काळ मुंडै पर फेफी आज्यावै
                      डांगर-ढोर भूखा मरता मर ज्यावै।


ना होली दियाळी लापसी बणै
ना टाबरियां ने सीटा पौली मिलै
                      घरा में रोट्या का फोड़ा पड़ ज्यावै
                      बाबो बिना दुवाई के ही मर ज्यावै।



 [  यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गयी है।  ]




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Friday, June 28, 2013

बचपन में शादी

मैं ऑफिस से
घर आ कर बैठा ही था
कि किसी ने आकर
अपनी नरम-नरम हथेलियों से
मेरी दोनों आँखे बंद करदी।


बताइये मै कौन हूँ ?
उसने मुझे से पूछा-
मैंने  अपने हाथों से
उन हाथों का स्पर्श
करते हुए कहा -पुजा
ऊँ हूँ - उत्तर आया
मैंने कहा राधिका
वो भी नहीं
और झट से मेरी आँखे खोल
सामने आकर बोला-
मैं गौरव हूँ दादा जी
मैं मुस्करा उठा।

उसने मुझे
हाथ में लिए एलबम को
दिखाते हुए पूछा-
दादा जी यह आप और
दादीजी के बचपन का फोटो है ना ?
मैंने कहा- हाँ
आप कितने हैण्डसम लग रहे हैं
और दादीजी भी कितनी क्यूट लग रही है।

(राजस्थान के गाँवों में पहले शादियाँ बहुत छोटी उम्र में कर दिया करते थे। मेरी शादी के समय उम्र मात्र सत्तरह  साल की थी और सुशीला की साढ़े तेरह साल। गौरव मेरी शादी का एलबम देख रहा था। )









Wednesday, June 26, 2013

बिरथा गुमान करणों (राजस्थानी कविता )

पिण्डल्यां मांय 
चमके बीजल्यां 
पांसल्यां मेळे
चबका

बूकियां मांय चालै 
बाईंटां
डील री चटकै 
हाडक्या

पगां में चालै 
रीळा 
सांसा चाळै
धोंकणी ज्यूं

आंख्यारी
चली गई जौत
कान हुग्या 
साव बैरा 

गाळा पर
लटक चामड़ी
माथै रा बाळ
हुग्या धोळा

अब औ गुमान
करणो बिरथा
कै म्हारी जड़ा
जमीं मांय उंडी लागै।




प्रकृति का ताण्डव




केदारनाथ मंदिर
उतराखण्ड का प्राचीन धाम
करोड़ों हिन्दुओं की श्रद्धा का केंद्र
जहाँ सुनाई दे रही है
सदियों से आस्था की गूंज


वही मंदिर आज 
खण्डहर बना खडा है
न पुजा,न पाठ न आरती, न भोग
भांय-भांय करता 
सिर्फ और सिर्फ सन्नाटा


शिव मूक है
गंगा कर रही है तांडव 
इंद्र देवता का रौद्र रूप देख
मन्दाकिनी ने भी 
धारण कर लिया है विकराल रूप

चारों तरफ 

बिखरी पड़ी है लाशें 
कहीं पत्थरों में दबी हुयी है 
तो कहीं मलबे में फंसी हुयी 
अकाश में मंडरा रहे है सैंकड़ों गिद्ध

पहाड़ों से

ऐसा जलजला आया कि 
तबाही का मंजर पसर गया 
प्रकृति के इस भयावह 
तांडव को लोग वर्षो याद रखेगें  

मिट्टी के सैलाब में
हजारों बह गए 
हजारों अपने 
अपनों को ढूंढते 
रह गए। 




  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]









Saturday, June 22, 2013

अनकहा दर्द


प्यार के लिए सात समुद्र पार
कभी कभी महँगा पड़ जाता है
                 
                     एक का सानिध्य पाने के लिए
                   देश-परिवार सभी छूट जाता है

जवानी तो जोश में बीत जाती है
लेकिन बुढ़ापा भारी पड़ जाता है

                   अपनो की यादे सताने लगती है
                   एकाकीपन भारी लगने लगता

घुट कर उमर बीत जाती है
एक जीवन अपनो के बिना

                    छोटी आकांक्षायें भी रह जाती है
                    मन में किसी के साथ बाँटे बिना

उम्र भर तड़पते ही रह जाते है
पाने के लिए अपनो का प्यार

                         विदेशी धरती पर नहीं मिलता
                          अपनी धरती का सच्चा प्यार

जब यादों की गांठे खुलती है
गली दोस्तो की यादें आती है

                      दिल में सिर्फ यादे ही बची रहती है
                      जिन्दगी घिसे सिक्के सी लगती है।

(पिट्टसबर्ग,अमेरिका में एक वृद्ध दम्पती से मिल कर, मुझे जो कुछ अनुभव हुवा,उसी को मैंने शब्द दिए हैं )



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, June 19, 2013

बादल फट पड़े



१७ जून को देवभूमि में तांडव मचा
बादल क्या फटे मौत कहर ढा गयी
                         
                            कच्चे मकानों की क्या बात करे
                          चार चार मंजिले इमारते बह गयी

अलकनंदा-मंदाकिनी  है पुरे उफान पर
कोई थमने का कही नाम नहीं ले रही है
                 
                    पुरे गाँव और शहर पानी में बह गए है
                   आसमानी कहर को धरती झेल रही है

उतराखण्ड में ऐसा तांडव कभी नहीं हुआ
जल कुलांचे भर रहा था हिरण की तरह
                 
                   क़यामत का मंजर और तमतमाई लहर
                  मकान गिर रहे थे तास के पत्तो की तरह

अभावग्रस्त पार्वत्य समाज बेहाल हो गया
नदी किनारे बसा जीवन बरबाद हो गया

                   दिल दहलाने वाला बना तबाही का मंजर
                    होटले, मकान,दुकान, सब कुछ बह गया

मुक्ति के प्रतिक तीर्थो में  भ्रमण करते
लाखो तीर्थयात्री जगह -जगह फसं गए

                     हजारो की संख्या में मरे, हजारों घायल हुए
                      गाडिया,बसे और बुलडोज़र सभी बह गए

चारो और सुनाई दे रही थी खौपनाक चीखें
दिख रहा था मलबे में दबी लाशो का मंजर

                      देव भूमि में ऐसा विनाशकारी बरपा कहर
                      लील गयी सब कुछ रस्ते में उफनती लहर

हमें इस चेतावनी को समझना होगा
ग्लोबल वार्मिंग को कम करना होगा

                      परमाणु हथियारों का प्रसार रोकना होगा
                          नहीं तो फिर इसी तरह से मरना होगा।




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Tuesday, June 11, 2013

गंगा घाट

गंगा घाट पर
शाम के समय बैठ जाते हम
किनारे खड़ी नौका में

लहरों के थपेड़ो से
डोलती रहती नौका और हम
झुलते रहते नौका में

याद है मुझे आज भी
वो पुरे चाँद की रात जब
हम दोनों बैठे हुए थे नौका में

चाँद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी में और लहरे
किनारे को छु लौट रही थी जल में

तुम जल तरंग सी
स्वर लहरी में भजन गा रही थी
बैठी हुयी नौका में

तुम्हारा भजन मुझे
कभी प्रवचन तो कभी पावन श्रुति
सा लग रहा था गंगा जल में

चाँद भी साथ-साथ हँस रहा था
चांदनी भी खिलखिला रही थी
गंगा के बहते जल में

तुम्हारी साँसों से कस्तुरी और
रोम-रोम से चन्दन की सुगंध
महक रही थी नौका में

तुम्हारी सुवास आभास करा रही थी
असंख्य स्वर्गिक अनुभूतियों का
गंगा घाट पर नौका में।


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

















Sunday, June 9, 2013

सम्बन्ध विच्छेद

आज उसके
सम्बन्ध विच्छेद दस्तावेज पर
न्यायाधीश ने हस्ताक्षर कर दिया

कर्मकांडी वकीलों ने भी
उसके रिश्ते की मृत्यु पर
गरुड़ पुराण का पाठ पढ़ दिया

उसने भी आज प्यार का
सारा कूड़ा कचरा दिल से खुरच कर
बाहर फैंक दिया

रिश्ते की कब्र पर कफ़न गिरा
एक दुःखद अतित का
अन्त कर दिया

जितने भी पत्र और तस्वीरे थी
उनको भी गंगा मे बहा
तर्पण कर दिया

लगे हाथ गंगा किनारे
यादों और अहसासों का
पिण्डदान भी कर दिया

दफ़न कर दिया जिन्दगी का
हर वह लहमा जो उसने
साथ बिताया

एक लम्बे अर्से के बाद
आज उसके दिल ने
राहत भरा दिन बिताया।


Friday, May 31, 2013

विरासत



क्या हमने कभी
सोचा है कि है कि हम
किधर जा रहे हैं ?

एक पेड़ लगाने की
नहीं सोचते और जंगलो
को काटते जा रहे हैं

वायु मंडल में बारूद
और जहरीली गैसे छोड़ कर
वायु को प्रदुसित कर रहे हैं

नदियों में गंदा पानी
और फक्ट्रियों के केमिकल
बहा कर नदियों को गंदा कर रहे हैं

वाहनों के आत्मघाती
धुंए से ओजोन की परत में
छेद करते जा रहे हैं

समुद्रो में उठता जलजला
दरकते पहाड़ और फटती जमीन
हमें चेतावनी दे रहे हैं

बादलों का फटना
ग्लोबल वार्मिंग,भूकम्प हमें 
सावधान कर रहे हैं

फिर क्यों नहीं हम
अपनी प्यारी धरती को बचाने
की सोच रहे हैं ?

क्या हम आने वाली
पीढ़ी को यही सब विरासत में
देने जा रहे हैं ?




[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]






















Monday, May 27, 2013

कटेली चम्पा



कोलकता के
विक्टोरिया मेमोरियल
का हरा भरा मैदान

सुबह का समय
साइड वाक पर घुमते
लोगो का समूह 

कटेली चम्पा के
फूलों से वातावरण का
महकना

फूलों का अपना
अस्तित्व कायम रखने की
  हर संभव कोशिश करना

तभी क्रूर हाथों का
बढना पेड़ की तरफ और
 तोड़ लेना फूल को

दो-चार हाथों मे से 
 निकलना फुल का और
नोच डालना पंखुड़ियों को

कर डालना उसकी
गंध और कोमलता को
तहस-नहस

इन्सान की हवस से
फुल के अस्तित्व का
चिर-हरण

कटेली चम्पा के 
अन्तर से दुखोच्छवास
का छुटना। 

फूल जो पेड़ का सौंदर्य है, उसकी सोभा है, लेकिन विक्टोरीया में घूमते लोग कटेली चम्पा के पेड़ पर लगे फूल को ढूँढ कर तोड़ लेते है। थोड़ी देर फूल दो चार हाथों में घूमता है और फिर नोच कर डाल  दिया जाता है, पांच मिनट में फूल का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। 


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]














Sunday, May 26, 2013

वह सबकी प्यारी हो गयी





 मम्मी को देख हँसने लगी 
 गोदी लो हाथ उठाने लगी
 वह अब बैठना सीख गयी
  वह सबकी प्यारी हो गयी  

      अँगूठा वह चुसने लगी
     हटाने पर मचलने लगी     
    वह अब बातूनी हो गयी
  वह सबकी प्यारी हो गयी  
  
  घुटनों के बल चलने लगी     
 चीजों को मुंह में लेने लगी     
   वह अब नटखट हो गयी   
  वह सबकी प्यारी हो गयी  

      थोड़ी थड़ी करने लगी  
   भूख लगने पर रोने लगी
   वह एक वर्ष की हो गयी
 वह सबकी प्यारी हो गयी  

 सपने देख मुस्कुराने लगी  
   आँखों को मटकाने लगी 
     वह अब चंचल हो गयी
 वह सबकी प्यारी हो गयी। 

Friday, May 24, 2013

प्रभु अगर ऐसा हो जाता



प्रभु अगर ऐसा  हो जाता
मै  छोटा पक्षी बन जाता
आसमान में ऊँचे उड़ कर
कलाबाजियाँ मैं भी खाता


पेड़ों पर मीठे फल खाता
झरनों का मैं पानी पीता
स्कूल से हो जाती छुट्टी
होमवर्क नहीं करना पड़ता


खेतों -खलिहानों में जाता 
नदी-नालों के ऊपर उड़ता
उड़ कर देश-प्रदेश देखता
नानी के घर भी उड़ जाता


उड़ने पर कोई रोक न होती
आसमान मेरा घर होता
जब तक मर्जी उड़ता रहता
शाम ढले घर पर आ जाता


मीठी वाणी बोल-बोल कर
सबके मन को मैं मोह लेता
बच्चों को मैं दोस्त बना कर
तोड़-तोड़ मीठे फल देता। 




[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]












Saturday, May 18, 2013

राबड़ी (राजस्थानी)

ऊँखळ के सागे
मूँसळ भी पड्यो है
दूबक्येड़ो एक खुणा मायं

कुण पूछ है अब
सगली बित्ये ज़मानै
री बाता रेगी

एक जमानो हो नाजुक कलायाँ
ऊँख़ळ में कूटती
बाजरो

चूड़ला री खणखणाट
सुणीजती गौर ओ
गुवाड़ी मांय

रंधतो खदबध खीचड़ो
र बणती छाछ री
राबड़ी

खार खीचड़ो
टाबरिया कूदता
घोड़े मान

खार राबड़ी
बाबो सोंवतो
खूंटी टाँण

राबड़ी री थाली
बाबो धो "र पिंवतो
जणा केवंतो 

सबड़को सुवाद लागे
मीठी लागे
राबडी

उंणा खुणा स्यै भरय़ा
स्याबाश म्हारी
राबड़ी।




[यह कविता "एक नया सफर" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]
















Tuesday, May 14, 2013

मंत्री जी की दिक्षा

परम्परानुसार नया मंत्री शपथ
ग्रहण के बाद प्रधान मंत्री जी* से
आशीर्वाद लेने जाता है

प्रधान मंत्री जी उसे अर्थशास्त्र का
ज्ञान देते हुए जीवन में
अर्थ का महत्त्व बताते हैं

कुर्सी आज तुम्हारे पास है
कल नहीं भी रहे लेकिन अर्थ
जीवन में हर पल साथ देता है

इसलिए कुर्सी रहते हुए
अर्थ का आदर करना सीखो
मौका बार-बार नहीं मिलता है

मत्री अपने कार्यकाल में
प्रधान मंत्री जी की सलाह को
तहे दिल से पालन करता है

कम से कम समय में
बड़े से बड़े घोटालो को अंजाम देता है
अर्थ की व्यवस्था करता  है

एक-एक घोटाला अरबो में करता है
आठ-दस पीढ़ी तक का इंतजाम
एक बार में कर लेता है

पकड़े जाने पर
विपक्ष और न्यायलय के दबाव में
मंत्री को हटा दिया जाता है

परम्परानुसार नया मंत्री शपथ ------

*हमारे प्रधान मंत्रीजी एक अच्छे अर्थशास्त्री है ,यह कविता व्यगं मे लिखी गयी है।



[ यह कविता "एक नया सफर " पुस्तक में प्रकाशित हो गई है। ]











Wednesday, May 8, 2013

पचास वर्षो का सफ़र



मेरी चाहत थी
इसी जीवन में
सब कुछ पाने की

नहीं चाहत थी
अगले जन्म में
फिर कुछ पाने की

तुम मुझे मिली
मानो गुलशन में
बहार आई

मेरी राहों के कांटे
पलकों से उठाये
तुमने

मुझे अम्बर तक
उठने का अहसास
दिया तुमने

अपनी हँसी के संग
मुझे मुस्कराहट
दी तुमने

जीवन के पचास
बसंत साथ बिताये
तुमने

चंद शब्दो में कहूँ तो
जीवन में सब कुछ
दिया तुमने।



 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]



















Tuesday, April 30, 2013

अंग दान करे

जब कोई वस्तु हमारे काम की
नहीं रहती तब भी उसकी
उपयोगिता रहती है

भले ही वो हमारे काम की
नहीं रहे, किन्तु किसी दुसरे
के तो काम आ ही सकती है

शरीर जो आज हमारा है
कल हमें छोड़ कर जाना होगा
पता नहीं कब साँझ ढल जाये

फिर क्यों नहीं ऐसा करे कि जो 
हमारे काम का नहीं है वो किसी
दुसरे के काम आ जाये

हम अपनी आँखे दे कर
किसी के जीवन में रोशनी की
किरण ला सकते है

हम अपना ह्रदय देकर
किसी की धड्कनो को ज़िंदा
रख सकते है

हम अपने फेफड़े दे कर
किसी की साँसों को जीवित
रख सकते है

हम अपने गुर्दे दे कर
किसी के जीवन को बचा
सकते है

शरीर के अंगो का दान कर
कई लोगो को नया जीवन
दिया जा सकता है

तो फिर क्यों नहीं
इस शुभ कार्य की शुरुआत
हम आज ही करें

मृत शरीर का दान कर
अनेको की जिंदगी फिर से
रोशन करें।


No one should assume
they are too old or unhealthy
to donate organs.
Even those people who know
they are dying may qualify,
as successful transplants
have been performed from
all sorts of donors.
The heart, kidneys, lungs,
pancreas and liver might be
debilitated by treatment or disease,
but eye, bone and skin tissue
may all be suitable for grafting
and transplantation.


  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]